कोमल काया में भरी है आग

मानवीय काया में अद्भुत चमत्कार समाया हुआ है। योगीजन इसे प्रत्यक्ष कर लेते हैं, परन्तु कभी-कभी सामान्यजनों में भी एकाएक इसकी अलौकिकता की झलक मिल जाती है। यह असाधारण एवं अकल्पनीय चमत्कार शरीर में निहित विद्युत शक्ति के रूप में इस तरह प्रकट होता है कि इसे देख मानवीय बुद्धि की तर्क क्षमता चूक जाती है। कुछ समझ में नहीं आता है कि इस कोमल तन में इतनी प्रचंड शक्ति कहॉं से प्रकट हो जाती है और आश्र्चर्य की बात तो यह है कि यह शक्ति उसमें निहित सूक्ष्म एवं कोमल न्यूरॉन्स, कोशिकाओं एवं हॉर्मोन्स आदि को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाती है। इसी कारण भागवत में मानव शरीर को ब्रह्मांड का प्रतीक पिंड यानी मैक्रोकॉस्म का माइक्रोकॉस्म कहा गया है।

1890 में फ्रांस में लुइस हैंबरगर नामक एक युवक प्रातःकाल उठकर अपनी दुकान में पहुँचा, तो वहॉं का दृश्य देखकर हैरान हो गया। उसके आते ही बिना स्विच ऑन किये कुछ मशीनें अपने आप काम करने लगीं। जब वह मशीन के पास पहुँचा तो टेबिल में पड़े छोटे-मोटे प्लायर, स्क्रू ड्राइवर आदि लोहे की चीजें उसके हाथों से चिपकने लगीं। बड़ी मुश्किल से उन्हें हटाया और जब पेपर पिन लगाने के लिए ऑलपिनों से भरा डिब्बा उठाया, तो चुंबक की भॉंति ढेर सारी ऑलपिनें उसकी उँगलियों से चिपक गईं। उसने जब पिनों को झटकना चाहा तो पिन गिरने के बजाय उनकी एक लंबी श्रृंखला बन गई।

इस घटना की सत्यता को जॉंचने के लिए मेरी लैंड कॉलेज ऑफ फॉर्मेसी, बाल्टीमोर के वैज्ञानिकों का एक दल आया और उसे सही पाया। उनके पास शरीर की इस अद्भुत जैव विद्युत क्षमता का कोई स्पष्ट जवाब ही नहीं था। विज्ञान में इन चीजों की व्याख्या संभव नहीं हो पाती है। संभवतः सूक्ष्म शरीर की कोई ऊर्जा स्थूल शरीर में प्रकट हो गई हो और इस रूप में घटित हुई हो।

इसी से मिलती एक घटना 1846 की है। फ्रांस की चौदह वर्षीय बालिका ऐगेलिक कॉटेन अपनी फैक्टरी में काम कर रही थी। वहॉं पर एकाएक कुछ हलचल होने लगी। उसके आते ही लोहे आदि से बनी धातुओं की वस्तुएँ छिटक कर गिरने लगीं। प्रतिकर्षण एवं हलचल करने की यह क्रिया धातुओं के अलावा अन्य वस्तुओं के साथ भी होने लगी। फिर तो जब वह रसोईघर में पहुँचती तो वहॉं के सामान अजीब ढंग से खड़खड़ाने लगते। जब वह कुर्सी पर बैठने लगती तो कुर्सी खिसक कर आगे बढ़ जाती। सोने के लिए बिस्तर में जाने पर बिस्तर बुरी तरह से हिलने लगता। यह प्रक्रिया कॉटेन के साथ दस दिन तक चली और इन दस दिनों में उसका जीवन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया था। इसका कोई अंत नजर नहीं आ रहा था और न कोई समाधान ही मिल पा रहा था। इस घटना पर पेरिस के अकादमी ऑफ साइंस के विशेषज्ञों द्वारा सूक्ष्मता से अध्ययन किया गया, परन्तु इसका कोई निदान नहीं मिल सका। यह घटना दस-पंद्रह दिनों में स्वयं ही शांत हो गई।

1879 में ओंटोरियो, लंदन की एक 19 वर्ष की लड़की कैरोमीन क्लेयर नर्वस सिस्टम के किसी रोग से पीड़ित थी। वह इससे स्वास्थ्य लाभ कर रही थी। एक दिन उसके शरीर में एक अजीब परिवर्तन हुआ और धात्विक वस्तुएँ जैसे- पिन, चम्मच, कील, बरतन आदि उससे इतने अधिक चिपक जाते थे कि बड़ी कठिनाई से उन्हें छुड़ा पाना संभव होता था। सन् 1920 में न्यूयार्क में एक अजीब परिस्थिति विनिर्मित हुई। कुछ लोगों ने वहॉं विषाक्त भोजन कर लिया था। जितने लोगों ने ऐसा भोजन ग्रहण किया था, उनमें से अधिकांश लोगों में बायोइलेक्ट्रिसिटी की मात्रा बढ़ गई थी। उन लोगों के शरीर से पेपर पिन आदि विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ अपने आप आकर्षित होती थीं। वे कंपास की सुई को भी अपने हाथों से चुंबक के समान इच्छानुसार घुमा सकते थे।

ऐसी ही एक घटना 1973 की है। लंदन में सोफिया नामक एक महिला रहती थी। उसमें ऐसा कुछ भी खास नहीं था, परन्तु एक दिन जब वह अपने टी.वी. सेट के पास आई तो उसका टी.वी. झिलमिलाने लगा। उसमें ठीक-ठीक पिक्चर आना बंद हो गया। उसके पश्र्चात जब उसने रेडियो को ऑन किया तो रेडियो में भी गड़बड़ी आ गई, परन्तु टी.वी. और रेडियो से जैसे ही वह दूर हटी तो दोनों अपने स्वाभाविक रूप से कार्य करने लगे। यह घटना बताती है कि इन्सान के अंदर जैव-विद्युत है, जिससे जीवन परिचालित होता है, परन्तु कभी, जब इसकी मात्रा एवं प्रवाह अधिक होने लगता है तो उपर्युक्त घटनाएँ घटती हैं।

जैव-विद्युत को यौगिक भाषा में “प्राण’ कहते हैं। यह प्राण यौगिक साधनाओं के माध्यम से बढ़ता है, इसलिए कुछ विशिष्ट साधनाओं के दौरान योगी अपने शरीर को किसी और को स्पर्श नहीं करने देता है। अपात्र, अयोग्य एवं दुर्बल व्यक्ति के स्पर्श से समर्थ योगी का कुछ नहीं होता है, परन्तु स्पर्श करने वाले के प्राण-प्रवाह में खतरा उत्पन्न हो सकता है। ऐसी ही एक घटना घटी, जब स्वामी विवेकानंद ध्यान कर रहे थे। उस दौरान उनकी देह में प्रचंड प्राण-प्रवाह बहता था। एक दिन वे जब ध्यान कर रहे थे तो जिज्ञासु स्वामी अभेदानंद से बोले कि वह उन्हें स्पर्श करता रहे। स्वामी अभेदानंद ने ऐसा ही किया। जब इस बात का पता ठाकुर रामकृष्ण परमहंस को चला तो वे बड़े परेशान हो गये, क्योंकि अभेदानंद की प्राणिक प्रकृति में बदलाव आ गया था। यह बदलाव अनुकूल नहीं था और अभेदानंद के लिए घातक सिद्ध हो सकता था। जैव-प्राण का प्रचंड प्रवाह किसी चमत्कार से कम नहीं होता है।

इलेक्ट्रसिटी अर्थात् जैव-प्राण की यह घटना गुरु-शिष्य संबंधों का भी आधार है। गुरु अपने शिष्य में इस प्राण का नित्य नूतन प्रयोग करता रहता है। ठाकुर रामकृष्ण ने जब स्वामी विवेकानंद की छाती पर लात से प्रहार किया तो स्वामी जी को सर्वत्र ब्रह्म का दर्शन होने लगा था। उन्हें बस, कार, दीवार, भोजन, कपड़ा आदि सभी में उसी ब्रह्म का साक्षात्कार होने लगा था। यह सघन प्राणिक प्रवाह की अद्वितीय घटना है, जो अत्यंत दुर्लभ होती है। चूँकि यहॉं पर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद दोनों ही समर्थ थे, इसलिए यह प्रक्रिया संभव हो पाई थी।

मनुष्य अपने इस प्राण का घोर उपयोग करता है। इस प्राण का जप, ध्यान, साधना आदि से संग्रह किया जाता है, परन्तु इसकी फुलझड़ियॉं तब जलती हैं, जब व्यक्ति इच्छा, कामना, क्रोध आदि करता है। काम-वासना, भोग से भी प्राणों की होली जलती है। सर्वाधिक प्राण का इसके मार्ग से नुकसान होता है, परन्तु संयमित ढंग से यदि संग्रहित किया जा सके तो अद्भुत एवं आश्र्चर्यजनक कार्य किये जा सकते हैं। प्राण के कारण ही तो आकर्षण होता है, जिसमें जितना अधिक प्राण होता है, वह उतना ही प्राणवान एवं चमत्कार पैदा करने वाला होता है। अतः श्रेष्ठ कार्य करने के लिए हमें अपनी काया को स्वस्थ रखना चाहिए तथा गायत्री मंत्र आदि के जप से प्राण की पूँजी की नित्य अभिवृद्धि करनी चाहिए।

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