मौरुसी का मलबा

धरती पर उतरा स्वर्ग, इसी के बीचोंबीच बलखाती-इठलाती जेहलम पर काशी पंडित के पुश्तैनी अग्निग्रस्त भवन के चतुर्दिक बिखरे मलबे का अम्बार, काल के कपोल पर एक विकृत धब्बे के समान, इसी बात की गवाही दे रहा था कि यह इमारत, विशेष रूप से अपने समय में अत्यन्त भव्य एवं बुलन्द रही होगी। लगता था कि काशी पंडित के पूर्वज इसी मौरूसी (पैतृक) भवन में न जाने कितनी शताब्दियों से संयुक्त परिवार के रूप में व्यतीत किये होंगे। उनका जीवन अत्यन्त संयत एवं सदा से ही सर्वोत्तम भावनाओं से समन्वित रहा होगा। समता, सामंजस्य एवं समझौता ही उनका प्रिय आदर्श रहा होगा, क्योंकि कश्मीर की देवधरा का प्रारंभ से ही यही उद्देश्य रहा है।

काशी पंडित के इस शुभ्र भवन के निकट ही तट पर एक ओर देवालय था और पार्श्र्व में ही एक मस्जिद। एक ओर देवालय से जब उच्च शंख-नाद का उद्घोष गगन में गूंज उठता और दूसरी ओर मस्जिद से अजान की उच्च स्वर-लहरी नभ में गुंजायमान होती, तब यह मिश्रित मधुर ध्वनि सबके हृदय को ईश-अल्लाह के रसानंद से परिपूर्ण कर देती। धर्म-सहिष्णुता की इसी भावना ने दोनों वर्गों को स्नेह-सूत्र में बांधकर रखा था। इन्हीं परिस्थितिगत उच्च आदर्शों की संपन्नता में काशी पंडित युवावस्था को प्राप्त हो चुका था। अब वही इस भवन का अविरोधी स्वामी था।

गृह-स्वामी होते हुए भी न वह अहंवादी था और न ही क्रूर। सर्वगुण-सम्पन्न एवं दयालु था वह। पूर्वजों के पथ पर चलकर मर्यादित मार्ग पर प्रत्येक कार्य बखूबी सम्पन्न करता। पूर्वजों के सम्मान में दान-धर्म करता। भवन से सटे बगीचे में जो अखरोट, बादाम के फल पेड़ों पर लगते, उन्हें पड़ोसियों एवं संबंधियों बांट देता। इन्हीं पेड़ों पर विश्राम करने वाले पक्षियों को भिन्न-भिन्न प्रकार के दाने चुगा देता। वायस पूर्णिमा जैसे पक्षी-त्योहार को भी मना लेता। इस प्रकार वह वर्ग-भेद एवं वर्ण-भेद से उठकर सबके सम्मान का पात्र बन गया। अपनी मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा एवं प्रेमभावना को प्रदर्शित करते हुए, वह सदा इन पंक्तियों को बार-बार दोहराता रहता –

अगर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त,

हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त।

(यदि कहीं धरती पर स्वर्ग है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है)

देशभक्त काशी पंडित की जीवन-यात्रा सहज मार्ग पर चल ही रही थी, तभी अनायास ही उसे ऐसे उपद्रव के प्रादुर्भाव का धीरे-धीरे आभास होने लगा, जिससे सब आशंकित हुए बिना न रह सके। लगा कि आतंकवाद पनप रहा है और किसी ने परस्पर संबंधों के मधु दुग्ध-कलश में कटु-विष घोल दिया है, जिससे वातावरण अत्यन्त विषाक्त एवं विक्षुब्ध रूप ग्रहण कर रहा है। सहिष्णुता को गोली की नोक से उड़ाया जा रहा है तथा चतुर्दिक आतंकवाद का वातचक्र सबको अपनी लपेट में ले रहा है। इसके उग्र रूप धारण करते ही सड़कों पर बम फटने लगे, दुकानों को जलाया गया तथा हिंसा भड़क उठी, बेबस लोगों को हत्या का शिकार बनाया गया और आकाश में इस प्रकार के नारे गूंजने लगे – हम बनायेंगे यहॉं पाकिस्तान बिना पंडितों के, समेत पंडितानियों के।

यह अल्पसंख्यक पंडितों के लिए एक चुनौती थी। वे घबरा उठे। इस बात को भी उछाला गया, पंडितों! यहां से भागो, नहीं तो मिट जाओ, वरना हमारे संग मिल जाओ। इन तीन विकल्पों में से अब पंडितों के पास अपना प्यारा वतन कश्मीर त्यागने के सिवा और कोई चारा नहीं था, क्योंकि अब स्पष्ट रूप से अनावरण हो चुका था। सोचा गया कि यह प्रवास अल्पकाल का होगा और पुनः लौटने में कोई अधिक विलम्ब नहीं होगा, किन्तु कौन जानता था कि यह प्रवास एक दीर्घकालीन वनवास बन कर रह जाएगा। हाय रे विधाता!

इस भयावह चुनौती के कारण काशी पंडित को अपना मौरूसी भवन छोड़कर भारत के वाराणसी नगर में शरण लेनी पड़ी। अपने वतन की याद उनको सबसे अधिक सताती। यहां दो जून रोटी मिलना भी उनके लिए दुर्लभ हो गया। वनवास समाप्त होने की कोई आशा किरण भी नजर नहीं आ रही थी। वतन में भी इस आतंक की इति की कोई आशा प्रतीत नहीं हो रही थी। दवाई का जितना प्रयोग हो रहा था, मर्ज उतना ही बढ़ता चला जा रहा था। प्रवासियों की सांप-छछूंदर की गति हो रही थी। न वतन का मोह छूट रहा था और न ही वहां के प्रत्यावर्तन का कोई साधन दिख रहा था। जीवन इसी कष्ट एवं यातना के बीच जूझ रहा था। रहन-सहन की दुविधा सता रही थी। जिजीविषा का प्रश्र्न्न मुंह बायें खड़ा होकर ललकार रहा था। समझ में आ रहा था कि निराशा ही परम सुख है और आशा परम दुःख।

एक दिन ऐसा आया, जिसकी संभावना थी और भय भी था। आतंकवादियों ने उसके मौरूसी भवन का अग्निदाह कर दिया था। अपने पूर्वजों की इस अमूल्य एवं प्रिय बपौती की क्षति के बारे में सुनकर उसका हृदय विचलित हो गया। यही भवन उसके जीवन का एक संबल था, ऐसा प्राणतंतु, जिस पर उसे गर्व था। यही उसकी कीर्ति का एकमात्र आधार था, जो अब भस्मीभूत हो गया था। उसे यही सांत्वना थी कि वह पुनः अपने वतन लौटकर इसी भवन में अपने जीवन के अंतिम दिन व्यतीत करेगा, किन्तु अब उसका आधा-अधूरा स्वप्न मात्र भी राख हो कर रह गया। उसका जीवन अब खोखला बन गया, जिसमें कुछ भी नहीं बचा था। न मान, न प्रतिष्ठा और न ही पुनः स्थापना। उसे लग रहा था जैसे राख के मलबे के नीचे अब सब कुछ दब कर लुट गया हो।

हताश किन्तु साहसी काशी पंडित ने अपने मन में ठान ली कि वह अवश्य अपने मौरूसी भवन के ध्वंसावशेष देखने के लिए अपनी माटी की गंध में प्रवेश करके अपना उत्सर्ग करेगा। वह जानता था कि यह बड़ा जोखिम का कार्य है, क्योंकि न आतंकवाद की इति हुई है और न ही वातावरण शांत है, फिर भी अपने परिवार वालों की जिद की उपेक्षा करके वह वहां के लिए चल पड़ा। वहां पहुंचते ही उसने सीधा अपने ध्वंसावशेष भवन की ओर प्रस्थान किया।

धीमे कदमों से सावधान होकर कि कहीं वह फंस न जाये, मलबे के ऊपर जाकर खड़ा हो गया। चारों ओर खामोशी थी और उसके सामने बिखरा पड़ा था पर्वत जैसा मलबे का एक अपार समूह ढेर। मलबे के ऊपर छत की टीन गिर कर उसे ढक रही थी। टीन की शीट की एक ओर उसने पूर्वजों के धूल-धूसरित छाया-चित्र को देखा और बड़े सम्मान से उठाकर अपने रूमाल से पोंछते हुए, एक ओर रख दिया। पुनः उसकी दृष्टि पूजा-कक्ष की ओर गई। उसने बड़े प्रयास से मूर्तियां एकत्र करके छायाचित्र के पास ही संभाल कर रख दीं।

आश्र्चर्य से वह कुछ देख रहा था। बीते दिनों का स्मरण उसे सालता रहा। बचपन एवं युवावस्था में उसने अपने दिन कहां बिताये थे, कहां बैठकर अध्ययन करता था और कहां अपने संयुक्त परिवार में साथ मिलकर भोजन करता था- ये सभी स्मृतियां एक-एक करके उसके चित्त को क्रमशः व्यथित करती रहीं। छायाचित्र एवं मूर्तियों को एकत्र करके अभी वह मलबे से नीचे उतर ही रहा था कि एक युवक उसके सामने खड़ा हो गया। चकित होकर वह उस युवक की ओर ताकने लगा। फिर वह निकट आकर बड़े सलीके से उसे अभिवादन करते हुए बोला, सलाम पंडित जी!

काशी पंडित ने उत्सुक होकर पूछा, आप कौन?

आपने मुझे पहचाना नहीं पंडित जी! मैं शमीम हूं। बचपन में आप मुझे टॉफी खिलाया करते थे ना – उसने उत्तर दिया।

ओह, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। बड़े हो गये हो न इसलिए। तब तुम बिल्कुल छोटे थे तीन साल के, जब हम यहां से चले गये थे।

हां पंडित जी, आप यहां आये बड़ी खुशी हुई। कभी आपने हमें याद नहीं किया। कितना प्यार करते थे आप मुझसे, शमीम ने स्नेह भरे शब्दों में कहा।

ठीक कहते हो। बस, दूषित वातावरण में लौटना उचित नहीं समझा। आतंकवाद जो फैला था। काशी पंडित ने एक निःश्र्वास लेते हुए कहा।

हां पंडित जी, उनकी ही तो यह सब शरारत है। हमने उन्हें रोकने की काफी कोशिश की, मगर माने नहीं। उलटे वे हम पर भी बरस पड़े। उन्होंने मेरे अब्बू की भी जान ले ली। बड़े बेरहम थे वे। कुछ मानते ही नहीं थे। शमीम ने निराश मन से कहा।

सहानुभूति जताते हुए काशी पंडित ने कहा, तो क्या तुम्हारे अब्बा नहीं रहे इस दुनिया में! मुझे बड़ा अफसोस है। मुझे उनसे हमदर्दी है। मेरे जिगरी दोस्त थे। इतना कहने के बाद फिर बोले, हे परमात्मा, मृतक की आत्मा को शांति देना। मेरा मित्र अब्दुल मेरा सब कुछ था। हम दो शरीर और एक आत्मा थे। मुझे भवन के अग्निग्रस्त होने का इतना अफसोस नहीं, जितना उनकी मौत का मुझे अफसोस है। एक शुभचिन्तक के नाते उसने कहा।

दोनों देर तक मौन रहे। इसके बाद शमीम ने कहा, आप यहां आये हैं तो घर नहीं चलेंगे क्या? रहमान चाचा आपसे मिलना चाहते हैं।

शमीम अपने साथ काशी पंडित को घर ले गया। उनका स्वागत किया गया। इस मुलाकात से सभी प्रसन्न हुए। रहमान चाचा ने कहा, पंडित जी, आपका मकान अब राख हो गया है। आप अब यहां कब आएंगे, मुश्किल है। यदि आये भी तो केवल यात्री बनकर ही आ सकते हैं। हां, आप अब जमीन का प्लाट हमें बेच सकते हैं। अच्छी अदायगी होगी। हम शमीम की शादी कर रहे हैं। उसी जगह पर वह अपना मकान बनाकर रह लेगा। उम्मीद है, आप हमारी इस मिन्नत को मान लेंगे। रहमान चाचा की एक-एक बात शब्दभेदी बाण के समान तीव्र एवं तीक्ष्ण थी, जिससे काशी पंडित के हृदय का घाव तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। उनकी जिह्वा पर एक ताला लग गया था, क्योंकि अब सब कुछ प्रश्र्न्नचिह्न के रूप में उनके सामने खड़ा था। अब वह समझ गये कि उन्हें जीवन के चौराहे पर फेंक दिया गया है।

– डॉ. जिया लाल हण्डू

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