शनि के पौराणिक व ज्योतिषीय पहलू

Shani Bhagwanपद्म पुराण के मतानुसार शनिदेव सूर्य के पुत्र हैं, जो उनकी छाया नामक पत्नी से उत्पन्न हुए हैं। पिता की आज्ञा से शनिदेव ग्रह बने तथा अपनी पत्नी के श्राप की वजह से उन्हें ाूर रूप प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि शनि की पत्नी चित्ररथ गंधर्व की कन्या थी, जो उग्र स्वभाव की थी। एक बार शनिदेव भजन में लिप्त थे। वह ऋतु-स्नान व श्रृंगार कर रमण करने के उद्देश्य से वहॉं आयी, परंतु शनि ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। इससे ाोध में आकर उनकी पत्नी ने उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारी दृष्टि जहॉं पर भी पड़ेगी, वहॉं विनाश ही विनाश हो जाएगा।

ऐसा भी कहा जाता है कि गणेश जी का सिर कटने की वजह शनि ग्रह की उन पर पड़ने वाली दृष्टि ही थी। शनि का वर्ण काला है। इनका वाहन गिद्ध तथा भैंसा हैं तथा इस ग्रह के पीछे अधिष्ठित देवता भैरव हैं। एक कथा के अनुसार शनि के द्वारा रोहिणी नक्षत्र का भेदन अच्छा नहीं होता है, क्योंकि राजा दशरथ प्रजा की रक्षा करने के लिए शनि देव को रोहिणी नक्षत्र का भेदन करने से रोकने के लिए उनसे युद्ध करने गये। जिससे प्रसन्न होकर शनिदेव ने उन्हें वर मांगने को कहा था, तब राजा दशरथ ने उनसे रोहिणी-भेदन न करने का वर मांगा, जिसे शनिदेव ने स्वीकार कर लिया तथा उन्होंने रोहिणी-भेदन नहीं किया।

शनिदेव बचपन से ही क्रोधी स्वभाव के थे। एक बार उन्होंने अपनी मॉं छाया को तुरंत भोजन देने के लिए कहा, परन्तु माता के यह कहने पर कि भोजन भोग लगाने के पश्र्चात् दूंगी, शनिदेव ने अपना एक पांव उठाकर मां पर प्रहार करना चाहा, जिससे ाोध में आकर उनकी माता ने उन्हें श्राप दिया कि उनका पांव इसी समय टूट जाये तथा वे लंगड़े हो जायें। तभी से शनिदेव लंगड़े हो गये।

नवग्रहों में शनि ग्रह अपना एक अलग ही महत्व रखता है। शनि ग्रह को ाूर तथा तामसिक ग्रह भी कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मकर तथा कुंभ राशि पर शनि ग्रह का स्वामित्व होता है। शनि ग्रह तुला राशि में उच्च तथा मेष राशि में नीच होता है। शुा ग्रह को शनि का सबसे घनिष्ठ मित्र तथा सूर्य को सबसे बड़ा शत्रु कहा गया है। शनिदेव एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने में लगभग ढाई वर्ष का समय लेते हैं। वर्तमान में शनिदेव सिंह राशि में भ्रमण कर रहे हैं। शनि ग्रह की गणना पाप ग्रहों में की जाती है। इनके विषय में यह भी कहा जाता है कि अगर ये विपरीत चल दें तो सम्राट को भी भिखारी बना सकते हैं। शनि ग्रह के पास तीसरी, सातवीं तथा दसवीं पूर्ण दृष्टियॉं भी हैं। शनि ग्रह के बुध, शुा, राहु मित्र हैं तथा सूर्य, चंद्र, मंगल शत्रु तथा गुरु व केतु सम हैं। शनि ग्रह की महादशा 19 वर्ष की होती है। लग्न राशि या चंद्र राशि से बारहवें स्थान पर शनिदेव के आने पर साढ़ेसाती का प्रारंभ माना जाता है तथा द्वितीय स्थान से निकल जाने को शनि की साढ़ेसाती का अंत माना जाता है। इसके अतिरिक्त लग्न राशि या चंद्र राशि से चौथे या आठवें स्थान पर शनिदेव के भ्रमण को ढैंचा कहकर पुकारा जाता है।

शनिकृत पीड़ा को शांत करने के लिए कोई भी व्यक्ति निम्न उपाय कर सकता है।

  1. सरसों के तेल का दान, उड़द या बादाम का दान।
  2. बजरंग बाण का पाठ।
  3. भैरव चालीसा का पाठ।
  4. स्नान से पहले तेल मालिश।
  5. शनिवार को मंदिर में बताशे चढ़ाना।
  6. लोहे का कड़ा धारण करना।
  7. शनिवार को एक नारियल मंदिर में चढ़ाना।
  8. वाहन तथा पहनने वाले जूतों को ठीक रखना भी शनि को अच्छा लगता है।

 

– पं. ऋषभ वत्स

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