अंग्रे़जी वर्चस्व के भाषाई संकट

अंग्रेजी वर्चस्व चाहे उसका विस्तार औपनिवेशिक साम्राज्यवादी नीतियों के लिए हुआ हो अथवा भू-मण्डलीकरण के बहाने बाजारवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से, विविधता को संकुचित करने और वर्गों के बीच भेद बढ़ाने की उसकी कुटिल भूमिका रही है। अंग्रेजी का साम्राज्यवादी विस्तार ब्रिटेन के रास्ते हुआ और अब आर्थिक विकास का मार्ग अमेरिका से निर्बाध चला आ रहा है। अंग्रेजी की यह अत्याधुनिक शक्ति भारत समेत तमाम विकासशील देशों की जैविक और सांस्कृतिक बहुलता को नष्ट करती हुई उन्हें रूपांतरित कर एकरूप में ढालने में लगी है और हम हैं कि अपनी जड़ों में पानी डालने की बजाय या तो पत्तों को सींचने में लगे हैं अथवा अपनी ही जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं। यदि अपने-अपने देशों की जैविक और सांस्कृतिक विविधता को नहीं बचाया गया तो मानवता को इस वैयक्तिक उपभोगवादी विकास की भयानक कीमत चुकानी होगी।

जब ब्रितानी हुकूमत का सूरज नहीं डूबता था तब अंग्रेजी का वर्चस्व शासक और प्रजा, तथा अमीर और गरीब के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींचता था और अब इस वर्चस्व ने विकासशील देशों के समाज को प्रगतिशील और पिछड़े के रूप में विभाजित किया हुआ है। उपनिवेशवादी मानसिकता की गुंजलक में जकड़े रहने के ये दुष्परिणाम हैं। यह जकड़न वर्तमान परिदृश्य में इसलिए और बढ़ गई है क्योंकि अब हम व्यापारिक शक्तियों के प्रभाव में आने हेतु अंतर्राष्टीय व्यक्तित्व बनने के लिए बैचेन हैं। इसलिए औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद जो काम हम अपनी-अपनी भाषा और बोलियों में करते थे वह काम अब अंग्रेजी में करने के लिए भाषाई स्तर पर अंग्रेजी का वर्चस्व स्वीकारने की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते जा रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम से फैलने वाला भू-मण्डलीकरण और बाजारवादी व्यवस्था का सर्वग्रासी सुरसामुख भाषा और बोलियों की बहुलता को ही नहीं निगलेगा, दुनिया की तमाम सांस्कृतिक विविधताओं को भी निगल जायेगा। इस चेतावनी का अनुभव करते हुए अनेक यूरोपीय देशों ने अपनी भाषाओं को बचाने के लिए संरक्षण के उपाय एक मुहिम के रूप में शुरू कर दिए हैं।

वैश्र्विक दुनिया में फिलहाल आठ भाषाएं-अंग्रेजी, चीनी, स्पेनिश, बांग्ला, हिन्दी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी वजूद में हैं। इन्हें बोलने वाले करीब दो अरब चालीस करोड़ लोग हैं। विश्र्व भाषा के रूप में स्वीकार लिए जाने के कारण निर्विवाद रूप से अंग्रेजी का वर्चस्व सर्वाधिक है। हालॉंकि यूरोप की भाषाओं में विस्तार की दृष्टि से भले ही अंग्रेजी बड़ी भाषा हो, लेकिन समृद्घि और वैज्ञानिक भाषा की दृष्टि से जर्मनी और ोंच को रुतबा हासिल है। यूरोप में धारणा है कि यदि आप विद्वान बनना चाहते हैं तो जर्मन सीखें और सुसंस्कृत होना चाहते हैं तो क्रोंच सीखें। हालॉंकि वैज्ञानिक भाषाओं में सबसे उत्कृष्ट भाषाओं के रूप में संस्कृत और हिन्दी मानी जाती हैं। लेकिन अंतर्राष्टीय बा़जार की भाषा का दर्जा अंग्रे़जी को हासिल हो जाने की वजह से व्यवसाय और नौकरी में उसकी हैसियत बढ़ी है। निजीकरण के विस्तार ने इसके महत्व को और बढ़ाया है। नतीजतन अंग्रेजी ने स्थानीय भाषाओं और बोलियों को निगलना शुरू कर दिया। भाषाओं के खत्म होते इसी भय के चलते हालैंड और बेल्जियम की सरकारों ने मिलकर डच भाषा के संरक्षण के मकसद से एक संगठन बना लिया है। भविष्य में आज की बड़ी भाषाएं केवल बोलचाल की भाषा में सिमटकर न रह जाएं इसलिए इनके संरक्षण के सामूहिक उपाय जरूरी हैं। लेकिन भाषाएं अकेले संरक्षण के उपायों से नहीं बचेंगी, इनकी अस्मिता रखने के लिए इन्हें सरकारी कामकाज, व्यवसाय, तकनीक और कम्प्यूटर की भाषा बनाया जाना जरूरी है। क्योंकि प्रतिस्पर्धा की वैश्र्विक होड़ में वही भाषाएं बचेंगी, जिन्हें उपरोक्त दृष्टिकोणों से विकसित किया जाएगा। दुनिया के तमाम देश आज भी चिकित्सा, अभियांत्रिकी और संगणन (कम्प्यूटर) के क्षेत्र में अंग्रेजी के मोहताज हैं।

करीब डेढ़ दशक पहले तक ऐसा लगता था कि हाशिये पर सदियों से पड़ा जो समाज सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों से जूझता हुआ अपनी ठेस देशज पहचान के साथ उबरकर केन्द्रीय सत्ता में आ रहा था, वह मुख्यधारा में आते ही हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने के लिए अंग्रेजी से डटकर मुकाबला करेगा। क्योंकि समय की मार झेलने वाली यह राजनीतिक ताकत सामाजिक न्याय, समान अवसर, एक नागरिक संहिता, समान शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में सामाजिक विषमता दूर करने जैसे नारों के साथ राजनीति की मुख्यधारा में आयी थी। लालू, मुलायम, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस, मायावती और भारत की राष्टीय एकात्मता का नारा बुलंद करने वाले भाजपाई इन असमानताओं को दूर करने का दावा करने वाले प्रमुख पैरोकार थे। लेकिन समाज और राजनीति से गहरे जुड़े होने के बावजूद जब ये लोग केन्द्र अथवा राज्यों की सत्ता में आए तो सामाजिक न्याय के इनके बुलंद नारे नौकरशाही के समक्ष खामोश होते चले गए। बल्कि अब लगता है कि साम्राज्यवादी आधुनिक शक्तियों ने प्रौद्योगिक तकनीक के बहाने इतना मजबूत वैश्र्विक जंजाल पूरी दुनिया में बुन दिया है कि भाषाओं व बोलियों के माध्यम से ज्ञान की विस्तृत विविधता जो क्षेत्रों में फैली हुई थी उसे सूचना के बहाने सूक्ष्म बनाकर नष्ट किया जा रहा है।

भू-मण्डलीकरण के दुष्परिणामों को किशन पटनायक ने 1998 में ही पहचान लिया था, इसीलिए उनका कहना था, “इस ऐतिहासिक तथ्य को हम कैसे भूल सकते हैं कि आधुनिक प्रौद्योगिकी को उन्हीं शक्तियों ने विकसित किया है जिनके निहित स्वार्थ साम्राज्यवादी संपर्कों को दृढ़ करने में था।’ प्रौद्योगिक तकनीक का व्यावसायिक विस्तार तो हमारे देश में वैसे भी निजीकरण को सुदृढ़ करने के लिए संस्थागत ढांचों को शिथिल करने और संस्थाओं का बेवजह कम्प्यूटरीकरण कर देने की शर्त पर हुआ। तकनीक को थोप देने वाली इन साम्राज्यवादी मंशाओं ने भी अंग्रेजी के प्रभाव को बढ़ाया क्योंकि कम्प्यूटर और इंटरनेट का जंजाल जिस बारहखड़ी में खुलते और बंद होते हैं वह अंग्रेजी में ही है। यह बारहखड़ी भारत की भाषायी बहुलता के लिए खतरा बन गई है। भारत को भी अब अपनी-अपनी भाषाएं बचाने में सक्रिय हुए लोगों की तरह चिंतित होकर मातृभाषाओं को प्रतिष्ठित करने में लग जाना चाहिए। क्योंकि बहुजन का शैक्षिक सशक्तिकरण व उत्पीड़न मुक्ति मातृभाषाओं की प्रतिष्ठा में ही निहित है। यदि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को भय से उन्मुक्त और अज्ञानता के कारण अवचेतन में बैठे हीनता बोध से मुक्ति दिलाकर राष्ट की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं तो मातृभाषाओं को हमें सरकारी कामकाज और आधुनिक तकनीक की भाषा बनाना होगा, अन्यथा हमारे समतामूलक समाज निर्माण के वायदे और नारे थोथे व झूठे ही कहलाएंगे।

– प्रमोद भार्गव

 

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