महान बाबा बंदा सिंह बहादुर अपने समय का एक महान सिख योद्धा था, जिनका जन्म 16 अक्तूबर, 1670 ई. को पुंछ जिले की तहसील राजौरी के गांव जोरे का गढ़ में पिता रामदेव जी के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था। लक्ष्मण देव के भाग्य में विद्या नहीं थी, लेकिन छोटी-सी आयु में पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक था। वे घुड़सवारी तथा तीर चलाने में बहुत माहिर थे। लक्ष्मण देव अभी 15 वर्ष के ही थे कि एक गर्भवती हिरणी के शिकार की दुःखदायक घटना ने उनके दिल पर गहरा असर किया। वह घर-बार त्याग कर वैरागी बन गये और जानकीदास वैरागी के शिष्य बन गये, जिन्होंने उनका नाम माधोदास रख दिया। माधोदास भ्रमण करते हुए, नासिक पंचवटी पहुंच गये। वहॉं पर उनका मेल ओघड़नाथ योगी के साथ हुआ, जो कि रिद्धियॉं-सिधियॉं व तांत्रिक विद्या के लिए बहुत प्रसिद्ध थे और माधोदास उनके शिष्य बन गये। माधोदास ने ओघड़नाथ बाबा की इतनी सेवा की कि उससे प्रसन्न होकर उन्होंने अपना बहुमूल्य ग्रंथ माधोदास को दे दिया। ये बात 1691 ई. की है। ओघड़नाथ की मृत्यु के बाद माधोदास ने नांदेड़ के नजदीक गोदावरी नदी के किनारे शांत और सुंदर स्थान पर अपना डेरा बना लिया।
इसी समय तत्कालीन मुगल शासक औरंगजेब के बेटों में तख्त के लिए युद्ध छिड़ गया। औरंगजेब के बड़े बेटे शाहजाद मुअजम ने गुरुगोविंद सिंह जी को सहायता के लिए प्रार्थना की। 8 जून, 1701 ई. को आगरा के नजदीक लड़ी गई लड़ाई में गुरु जी ने शहजाद मुअजम की सहायता की, जिससे शहजाद मुअजम विजयी हुआ और बहादुरशाह के नाम पर उसने हिंदुस्तान पर राज्य किया। गुरु जी ने शहजाद मुअजम की सहायता इस शर्त पर की थी कि वह बादशाह बनने के बाद सूबेदार बजीद खान तथा पंथ के दुश्मनों को सख्त सजा देगा या गुरु जी के हवाले कर देगा, लेकिन बादशाह अपने शब्दों से पीछे हट गया और टालने वाली नीति अपनाने लगा। लेकिन गुरु जी ने बादशाह के साथ दक्षिण की तरफ एक मुहिम पर जाते हुए, अचानक नांदेड़ के नजदीक उनका साथ छोड़ दिया।
नांदेड़ पहुंचने से पहले गुरु साहिब माधोदास के कारनामों को जानते थे। 3 सितंबर, 1708 ई. को गुरु जी का माधोदास से मिलाप हुआ। वार्तालाप के दौरान माधोदास ने यह महसूस कर लिया था कि वह गुरु गोविंद सिंह जी ही हैं, जिन्हें मिलने के लिए उनके मन के अंदर तीव्र इच्छा अंगड़ाई ले रही थी तथा गुरु साहिब के सवाल के जवाब में माधोदास ने बड़े चाव व सत्कार के साथ कहा था, “”मैं तो हाजिर हूं हजूर। मैं तो आपका बंदा हूं।” तत्पश्र्चात् गुरु जी ने माधोदास को अमृत छका कर सिख परंपरा में शामिल किया तथा नाम दिया गुरुबक्श सिंह। बहादुरी का खिताब देने के कारण उनका नाम प्रचलित हुआ – बंदा बहादुर। गुरु जी को अपने मिशन की पूर्ति के लिए उनके मुताबिक बंदा मिल गया था। गुरु गोविंद सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब भेजने से पहले मुगल राज्य के साथ मुकाबला करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार किया। जब वह हर तरफ से तैयार हो गया, तो गुरु जी ने खालसे का जत्थेदार नियुक्त कर पंजाब की तरफ भेजा। गुरु जी ने उसको पंजाब के सिखों के नाम हुक्मनामा भी दिया। जिसमें उन्होंने बंदा सिंह बहादुर को अपना नेता मानने के लिए तथा दुष्टों को साधने के लिए खालसा के झंडे के नीचे इकट्ठे होने का आदेश दिया। गुरु जी ने बंदा सिंह बहादुर को एक नारा और झंडा दिया तथा अपने 5 तीर और शस्त्र भी दिये। पांच प्यारों के रूप में बाबा विनोद सिंह, बाबा कहान सिंह, बाबा बाज सिंह, भाई दया सिंह और भाई रण सिंह दिये। इसके अलावा 20 सिख और भी दिये। इस तरह बंदा सिंह बहादुर ने 25 सिखों के साथ अक्तूबर, 1708 को पंजाब की तरफ कूच किया। गुरु गोविंद सिंह जी ने आशीर्वाद लेकर उनके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बंदा सिंह बहादुर नांदेड़ से आंधी की तरह पंजाब की तरफ बढ़ने लगे। गुरु गोविंद सिंह के हुक्मनामों के कारण तथा बंदा सिंह बहादुर के चुम्बकीय व्यक्तित्व के कारण सिख-संगत खालसा झंडे के नीचे इकट्ठी होने लगी। मोहम्मद कासिम और काफी खां के अनुसार जल्द ही उनकी कमान के नीचे एक बड़ी सेना एकत्रित हो गई। डॉ. गोकलचंद के अनुसार पैदल सैनिकों की गिनती 8,900 हो गयी और जो बाद में 40 हजार तक हो गयी। लूटमार के इरादे से कुछ लुटेरे व चोर-डाकू भी बंदा सिंह बहादुर के साथ मिल गये। इन लुटेरों के बारे में डॉ. नारंग लिखते हैं कि वे पेशेवर डाकू-लुटेरे और बड़े हिम्मत वाले थे, शहरों को लूटने के लिए इस लहर में शामिल हुए थे।
देहली को पार करते ही जीत का सिलसिला शुरू हो गया। सोनीपत, कैथल, साना, घुडाम, ठस्का, साहाबाद, मुस्तफाबाद, कपुरी, सढ़ोरा तथा छत बनूड को जीत कर सिख अपना असली निशाना सरहिंद पर जोरदार हमला करने के लिए उत्तेजित दिखायी देने लगे। आखिर वह समय भी आ गया, जिसका बेसब्री से सिखों को इंतजार था। सूबेदार वजीद खां को सबक सिखाने के लिए सिख चपड़चिड़ी के मैदान में इकट्ठे होने लगे। 12 मई, 1710 को वजीद खां मारा गया और सरहिन्द सिखों के अधिकार में आ गया। 1710 में सिख सरहिन्द में दाखिल हुए। बंदा सिंह बहादुर ने सरहिन्द को ईंटों के ढेर में बदल दिया। शाही अमीरों को लूटा गया और दोषियों को चुन-चुन कर मारा गया। बंदा सिंह बहादुर ने रादौर और नाहन के बीच में मुखलसगढ़ को अपनी राजधानी बनाया और उसे लोहगढ़ का नाम दिया और वहां पर नानक गुरु गोविंद सिंह के नाम का सिक्का और मोहरा जारी किया।
राजधानी की स्थापना करने के पश्र्चात् बंदा सिंह बहादुर ने सहारनपुर, जलालाबाद और ननौत को विजय किया। सिखों की लगातार विजय ने बादशाह बहादुरशाह को भयभीत कर दिया। इसलिए बादशाह खुद बड़ी फौज लेकर पंजाब में दाखिल हुआ और हालात को देखते हुए सिखों को पीछे हटना पड़ा। बंदा सिंह बहादुर के साथ सिख लोहगढ़ में दाखिल हो गये। शाही सेना ने किले को घेर लिया। इसी दौरान बंदा सिंह बहादुर और बाबा विनोद सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गये और बाबा विनोद सिंह अपने साथियों को लेकर गढ़ी छोड़कर चला गया। इस कारण सिखों की हार निश्र्चित हो गयी। आखिर 7 दिसंबर, 1715 को शाही फौजों ने गढ़ी पर कब्जा कर लिया। बंदा सिंह बहादुर और लगभग 800 सिखों को कैद करके जुलूस की शक्ल में लाहौर लाया गया। 5 मार्च, 1716 ई. को सिख कैदियों का कत्लेआम शुरू हुआ और हर रोज 100 सिखों का कत्ल कर दिया जाता था। सिख उत्तेजित भावना के साथ मौत को भी स्वीकार करते थे और मुस्कुराते हुए अपना सिर जल्लाद को भेंट कर देते थे। सात दिन तक यह कत्लेआम जारी रहा। इन कत्लों के बाद तीन महीनों तक खामोशी रही। 9 जून, 1716 ई. को बाबा बंदा सिंह बहादुर और उनके साथियों को किले से बाहर लाया गया। बंदा सिंह बहादुर के साथियों में भाई फतेह सिंह, भाई अली सिंह, भाई गुलाब सिंह विशेष तौर पर शामिल थे। बाबा जी का चार साल का बेटा अजय सिंह भी साथ था। इन सबको इब्राहिम-उद-दीन खान, मीर आतिश और सरबराह खान की निगरानी में एक जुलूस की शक्ल में दिल्ली कुतुब मीनार के नजदीक ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्त्यार की दरगाह के पास पहुंचाया गया। बाबा जी को शहीद करने से पहले उनके पुत्र अजय सिंह का कत्ल करके उसका धड़कता दिल बाबा जी के मुंह में ठूंसा गया। फिर जल्लाद ने सबसे पहले बाबा जी की आंखें निकालीं। हाथ-पांव काटने के बाद गर्म किये हुए लाल जमूरों के साथ शरीर से मांस को नोचा गया और आखिर में सिर को धड़ से अलग कर दिया गया। खाफी खां, जिसने बंदा सिंह बहादुर की शहादत का नजारा अपनी आंखों से देखा था, उल लबाब में लिखते हैं – बहुत कुछ ऐसा हुआ, जिस पर चश्मदीद गवाह के अतिरिक्त कोई शायद यकीन न करे।
इस तरह बंदा सिंह बहादुर ने गुरु गोविंद सिंह के मिशन की पूर्ति के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। 10 पातशाहियों के पश्र्चात् बाबा जी के समान कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता। उनका जीवन सह-आयामी था। वह न केवल योद्धा, तपस्वी, सिख राज्य के संस्थापक थे बल्कि समाज के निम्न वर्ग के हमदर्द तथा किसानों एवं कमेरों के मसीहा भी थे। बाबा बंदा बहादुर के दसवें वंशज व बंदई संप्रदाय के प्रमुख बाबा जतिंद्रपाल सिंह सोढ़ी वर्तमान गद्दीनशीन डेरा बाबा बहादुर रियासी की सरपरस्ती में देश के विभिन्न नगरों व गांवों में अनेक सामाजिक कार्य चल रहे हैं।
– हरीश भारद्वाज
5 Responses to "बंदा सिंह बहादुर – बलिदान की अनूठी मिसाल"
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