जातीय समीकरण तय करेंगे नतीजे

राजस्थान विधानसभा में प्रवेश करने के लिए 2,194 उम्मीदवार अपनी किस्मत आ़जमा रहे हैं। इनमें से 10 प्रतिशत पर चोरी से लेकर हत्या तक के आरोप हैं। 18 प्रतिशत कांग्रेस प्रत्याशियों का आपराधिक इतिहास है और 11 प्रतिशत भाजपा प्रत्याशी भी हिस्टीशीटर हैं। इन्हीं आंकड़ों से मिलते-जुलते आंकड़े छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, मिजोरम, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के भी हैं, जहां विधानसभा गठन करने के लिए चुनाव हो रहे हैं। बावजूद इसके इन राज्यों में राजनीति का अपराधीकरण मुद्दा नहीं है। जहां तक प्रति व्यक्ति आय में विकास का प्रश्न है, तो 2007 में छत्तीसगढ़ में यह 8.8 प्रतिशत से, दिल्ली में 6.9 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 2.9 प्रतिशत और राजस्थान में 2.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। ़जाहिर है कि यह पर्याप्त विकास दर नहीं हैं क्योंकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान महंगाई निरंतर दोहरे अंक से बढ़ी है। लेकिन अफसोस है कि इन विधानसभा चुनावों में आर्थिक विकास भी मुद्दा नहीं है। गौरतलब है कि इन राज्यों में चपरासी से लेकर मंत्री तक पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के संगीन आरोप हैं, लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है।

हालांकि आतंकवाद को मुद्दा बनाने की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने कोशिश की है, लेकिन यह भी भावनात्मक रूप से एक-दूसरे को कटघरे में खड़े करने का प्रयास मात्र ही प्रतीत होता है। ध्यान रहे कि जम्मू-कश्मीर में रिकॉर्ड मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग करके यह साबित किया है कि जब बात सड़क, पानी, बिजली, स्थानीय प्रशासन आदि की आती है, तो आतंकवाद पर बहस में कुछ खास दम नहीं रहता।

दरअसल अपने देश में मतदाता की राय टूटी सड़कों, बढ़ते अपराध, भ्रष्ट सब-इंस्पेक्टर, लापरवाह नगरपालिका कर्मचारी, घंटों बिजली का न आना, मोहल्लों की सफाई न होना आदि के आधार पर बनती है, अगर किसी पार्टी की लहर नहीं है तो। अब इन स्थानीय समस्याओं का समाधान मतदाता उसी से करा सकता है जिससे वह परिचित हो। इसलिए चुनाव में वह अपने मिलने वाले बल्कि अपनी जाति के व्यक्ति को प्राथमिकता देता है। यही कुछ 6 विधानसभाओं के वर्तमान चुनावों में देखने को मिल रहा है। इसलिए यह यकीन से कहा जा सकता है कि इन विधानसभा चुनावों के नतीजों को जातीय समीकरण तय करेंगे।

यह बात विभिन्न राज्यों से आ रही खबरों से भी साबित हो रही है। मसलन, मालवा में भील आदिवासियों ने दशकों तक “हाथ’ को थामे रखा और पिछले कुछ वर्षों से वे “कमल’ को पकड़े हुए थे। लेकिन अब अन्य राज्यों के मतदाताओं की तरह वे भी यह सवाल कर रहे हैं कि क्या भाजपा और कांग्रेस में कुछ फर्क है? भील आदिवासियों को विकल्प के रूप में अपनी ही जाति के स्वतंत्र उम्मीदवार दिखायी दे रहे हैं। हालांकि गौंडों की तरह भीलों ने अभी अपनी अलग राजनीतिक पार्टी का गठन नहीं किया है, लेकिन इन चुनावों के बाद भील नेतृत्व उभर सकता है जो भाजपा और कांग्रेस से अलग होगा। ध्यान रहे कि गौंडों की अपनी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी है।

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में मायावती ने बहुजन समाज पार्टी के जरिये सोशल इंजीनियरिंग का सिलसिला शुरू किया था। यही फॉर्मूला मौजूदा विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल रहा है। मसलन, मध्यप्रदेश में दोनों- भाजपा और कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के लिए अपने टॉप नेताओं और स्टार प्रचारकों को जगह-जगह घुमाया लेकिन वहां न कोई लहर ऩजर आ रही है और न ही प्रत्याशियों द्वारा उठाये गए मुद्दों के प्रति उत्साह। लेकिन सोशल इंजीनियरिंग के कारण मायावती की बहुजन समाज पार्टी और उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी ने चुनाव को त्रिकोणीय या बहुकोणीय बना दिया है, जिससे बुंदेलखंड, बघेलखंड, चम्बल, और रीवा-सतना पट्टी में दिलचस्प नतीजे सामने आ सकते हैं। इस पट्टी में लगभग 120 सीटें हैं। अगर, जैसा कि प्रबल अनुमान है, मायावती और उमा भारती इनमें से 25-30 प्रतिशत सीटों पर भी कामयाबी दर्ज कर लेती हैं तो मध्यप्रदेश के इतिहास में पहली बार त्रिशंकु विधानसभा आ सकती है जिससे साझा सरकार बनाने की मजबूरी होगी। यह सब जातीय समीकरणों के कारण ही संभव होगा। जातीय आधार पर मायावती और उमा भारती की बढ़ती शक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा के स्टार प्रचारक नवजोत सिंह सिद्घू ने कांग्रेस की बजाय उमा भारती को अपने अपशब्दों का निशाना बनाया।

हालांकि 6 में से 4 राज्यों – दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में –  कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर है। यह दोनों ही पार्टियां अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग मुद्दों पर फोकस कर रही हैं। मसलन, मध्यप्रदेश में भाजपा का फोकस विकास, सड़क नेटवर्क को बेहतर बनाना, सस्ता अनाज उपलब्ध कराना, किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण दिलाना और लड़कियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाने पर है। जबकि कांग्रेस, सत्तारूढ़ भाजपा पर भ्रष्टाचार, भाजपा कार्यकर्ताओं व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच अनैतिक गठजोड़ और विभिन्न योजनाओं में केन्द्रीय फंडों के प्रयोग में नाकामी पर फोकस किये हुए है। लेकिन मतदाता इन मुद्दों की बजाय जातिगत गठजोड़ को वरीयता देता प्रतीत हो रहा है। इस तरह इन राज्यों में भी सीधी टक्कर की बजाय त्रिकोणीय या बहुकोणीय जंग की संभावनाएं बढ़ रही हैं। अनेक कोणीय चुनावी प्रतिस्पर्धा में नतीजे अक्सर अनुमानों से अलग ही आते हैं। इसलिए फिलहाल यह यकीन से कहना कठिन है कि चुनावी सेमी फाइनल में ऊंट किस करवट बैठेगा।

बहरहाल, अगर सोशल इंजीनियरिंग की वजह से 6 राज्यों के चुनाव प्रभावित होते हैं, तो यह अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है कि अगले साल होने वाले आम चुनाव में भी जातीय समीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। उस स्थिति में मायावती भले ही प्रधानमंत्री बनने की अपनी ख्वाहिश को शायद न पूरा कर पायें, लेकिन किंगमेकर की भूमिका में अवश्य होंगी। कहने का अर्थ यह है कि परमाणु समझौता, आतंकवाद, महंगाई, मंदी, सांप्रदायिकता आदि मुद्दे बेकार की बातें हो जाती हैं, जब चुनावी गणित जाति के आधार पर तैयार हो रहा हो।

 

 

– शाहिद ए. चौधरी

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