वनस्पति पूजन बनाम पर्यावरण संरक्षण

पृथ्वी का पर्यावरण जैविक और अजैविक दो घटकों में विभाजित है। जैविक घटक के अन्तर्गत जीवधारी वनस्पति एवं प्राणी सम्मिलित हैं। हम केवल वनस्पतियों की चर्चा करें तो भारत में 45 ह़जार पेड़-पौंधों की प्रजातियॉं पायी जाती हैं। इनमें से पन्द्रह ह़जार फूल वाले पेड़-पौधों की प्रजातियॉं, पांच ह़जार के शैवाल, सत्ताईस सौ प्रकार के बायोफाइट्स, दो ह़जार कवक प्रजातियॉं, सोलह सौ लाइकेन तथा छः सौ प्रकार की फर्न प्रजातियॉं हैं। इनमें सात ह़जार ऐसी स्थानीय प्रजातियॉं हैं जो दुनिया में अन्यत्र नहीं पायी जातीं। भारत में 2500 प्रकार के ऐसे पौधे उपलब्ध हैं जिनका औषधीय उपयोग किया जाता है।

भारत में पीपल, आँवला, तुलसी, केला, वट-वृक्ष आदि की पूजा प्रचलित है। भारतीय संस्कृति में वनस्पतियों में देवताओं का वास माना गया है। इसलिए पर्व-त्योहारों में उन्हें विशेष स्थान दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण-संरक्षण में कुछ वनस्पतियों का विशेष योगदान है। जैसे-पीपल पर भगवान कृष्ण का वास माना जाता है। इसके अलावा पीपल में पर्यावरण शुद्घि की अद्भुत क्षमता होती है। इसकी पत्तियॉं हाथी-भेड़, ऊँट-बकरी आदि के चरने के काम आती हैं तथा इसकी छाल और दूध औषधि के रूप में उपयोगी हैं। सम्भवतः भारत में वनस्पतियों को पूजने की परम्परा के पीछे यही उद्देश्य रहा होगा कि हमारी प्रकृति और पर्यावरण सुरक्षित रहें। आज जबकि पर्यावरण तीव्र गति से प्रदूषित हो चला है, हरियाली नष्ट होती जा रही है, धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है, हमें अपनी समृद्घ सांस्कृतिक परम्पराओं को स्मरण करने की ही नहीं, अपितु पुनर्जीवित करने की नितान्त आवश्यकता है। धार्मिक पर्व-त्योहारों के बहाने से ही सही, पूजनीय वनस्पतियों सहित जीवनोपयोगी अन्य पेड़-पौधों के संरक्षण का भी उपाय करना आवश्यक है।

यह संयोग की बात है कि भारत में सभी पूजनीय वनस्पतियॉं स्वास्थ्यवर्द्घक होने के साथ ही साथ पर्यावरण संरक्षण में भी सहायक हैं। इसके अतिरिक्त इनका औषधीय उपयोग इनके महत्व को और भी बढ़ा देता है। यही नहीं, व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी ये वनस्पतियां मनुष्य-जीवन के लिए लाभकारी हैं। यहॉं हम कुछ मांगलिक वनस्पतियों की चर्चा करेंगे। गॉंवों-कस्बों में आसानी से उपलब्ध महुए का वृक्ष साठ से सौ फुट तक ऊँचा होता है। इसके सुगंधित फूलों से शराब बनाकर काफी लाभ कमाया जाता है। महुए के पत्तों से दोने-पत्तल बनाये जाते हैं। हलषष्ठी के पूजन में महुआ चढ़ाया जाता है। यह गरीबों के खाने के काम में भी आता है। भारत में नीम के पेड़ बहुत अधिक पाये जाते हैं। मराठी व गुजराती में इसे निम्बा तथा तमिल व मलयालम में बेपा कहते हैं। प्राचीन काल में सड़कों के किनारे नीम के छायादार वृक्ष लगाने की परम्परा थी। चूँकि नीम की पत्तियॉं कीटनाशक होती हैं अतएव अनाज के संरक्षण में इनका उपयोग किया जाता है। गांवों के लोग नीम का दातून करके दॉंतों को स्वस्थ रखते हैं। नीम के फल निम्बोली कहलाते हैं। इनके बीजों से तेल निकाला जाता है। नीम की पत्तियों का अर्क रक्त-विकारों को दूर करने में सहायक होता है। नीम के गुणों के कारण ही उसे “आधा वैद्य’ कहा जाता है।

भारत में सर्वाधिक समय तक जीवित रहने वाला वट-वृक्ष अपनी शीतल छाया के लिए प्रसिद्घ है। महिलाएँ वट-सावित्री के व्रत में इसका पूजन करके परिजनों के दीर्घ जीवन की कामना करती हैं। आँवलों के वृक्ष साधारण ऊँचाई वाले होते हैं। दीपावली के बाद आने वाले छठ-पर्व पर ईख की पूजा होती है और अक्षय नवमी पर आँवले के वृक्ष की पूजा की जाती है तथा उसके निकट बैठ कर भोजन करना शुभ माना जाता है। आँवले का भी औषधीय एवं सौन्दर्य-वर्द्घक उपयोग अनेक रूपों में प्रचलित है। पोषक तत्वों एवं विटामिन से भरपूर आँवलों का सेवन नेत्रों के लिए ज्योतिवर्द्घक होता है। यह उदर-विकार मिटाने में भी उपयोगी है।

तुलसी का पौधा तो घर-घर में पाया जाता है। इसे पुराणों में वृन्दा कहा गया है। कहते हैं, जहॉं तुलसी होती है वहॉं रोग नहीं फटकते। शायद इसीलिए हिन्दू घरों में “तुलसी वृन्दावन’ अवश्य होता है। तुलसी-दल पूजा के काम तो आते ही हैं, इसके बीज, मूल और पत्ते चिकित्सोपयोगी भी हैं। इसी प्रकार बिल्व (बेल) का वृक्ष भी बड़ा महत्वपूर्ण है। इसके पत्ते तीन पर्णकों में बॅंटे होते हैं। शंकरजी की पूजा में बेल-पत्र आवश्यक होते हैं क्योंकि इसे उनका आहार माना जाता है। बिल्व का फल गूदेदार तथा स्वादिष्ट होता है। इसके फलों का रस आँतों की बीमारी में लाभदायक होता है। इसके अलावा आम और केले के वृक्ष भी पूजनोपयोगी होते हैं। आम तो सदैव हरीतिमा से सम्पन्न रहने वाला वृक्ष है। यह सब फलों का राजा कहलाता है। इसके पत्ते और मंजरियॉं पूजा के काम आते हैं और सूखे डण्ठल का उपयोग हवन में किया जाता है। हमारे यहॉं आम की अनेक किस्में पायी जाती हैं और विदेशों में इसका निर्यात भी किया जाता है। केले भी अनेक प्रकार के होते हैं। इसके पत्ते और फल मांगलिक कार्यों में काम आते हैं, फूल की तरकारी बनायी जाती है। केला अत्यन्त लोकप्रिय और स्वास्थ्यवर्द्घक फल है। इसी तरह शुभ प्रसंगों में नारियल भी बहुत उपयोगी है, पर इसका वृक्ष हर घर में नहीं लगाया जा सकता क्योंकि इसके लिए विशेष जलवायु की आवश्यकता होती है। नारियल का पानी गुर्दे की बीमारी में लाभप्रद होता है। नारियल से तेल भी निकाला जाता है और इसका व्यवसाय व्यापक पैमाने पर होता है। वस्तुतः पर्यावरण संरक्षण भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो ज्ञात होगा कि वनस्पति-पूजन में प्रकारान्तर से पर्यावरण की रक्षा का सन्देश निहित है। जब ग्रीष्म ऋतु आरम्भ होने के पूर्व होली पर्व मनाया जाता है, तब इसी बहाने सारा कूड़ा-कर्कट जलाकर कृषि हेतु उपयुक्त भूमि निर्माण की प्रिाया सम्पन्न कर दी जाती है। फिर वर्षाकाल अर्थात् चौमासे में फसल के पोषणोपरान्त दशहरा-दीपावली का पर्व आता है और इस अवसर पर प्रत्येक गांव-शहर, गली-मुहल्ले और हर घर का कोना-कोना स्वच्छ, साफ-सुथरा करने के पीछे भी पर्यावरण की रक्षा का ही भाव निहित है। प्राचीन ग्रंथों में पर्व-त्योहार एवं शुभ अवसरों पर गृह, नगर एवं राज्यों को सुशोभित करने का जो विवरण मिलता है, वह तत्कालीन पर्यावरण चेतना का ही परिचायक है। दुर्भाग्यवश आज इसे भुला दिया गया है। आवश्यकता इस बात की है कि पुनः सृष्टि की रक्षा एवं मानव कल्याण हेतु घर-घर में स्वास्थ्यवर्द्घक, औषधीय, पूजनोपयोगी एवं दीर्घजीवी पौधे लगाने की परम्परा विकसित की जाए। गौरतलब है कि आज अनेक अवसरों पर बाकायदा पौधारोपण कार्याम आयोजित किये जाते हैं। अक्सर कई नेता, मंत्री, अफसर, पौधारोपण कर अखबार की सुर्खियां बन जाते हैं परन्तु कितनों को अपने द्वारा रोपे गये पौधों की दोबारा याद आती है अथवा वे उनकी खोज-खबर लेने जाते हैं? स्मरण रहे कि पौधारोपण एक गम्भीर जिम्मेदारी है, औपचारिकता मात्र नहीं। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी अपने-अपने परिसर में, अधिकारी-कर्मचारी अपने-अपने कार्यालयों में पौधारोपण कर उसके पोषण की जिम्मेदारी स्वयं लें तभी पर्यावरण के प्रति सच्चा दायित्व-निर्वाह सम्भव होगा। हम धरती को तभी हरी-भरी बना सकेंगे जब सचमुच अपने बच्चों की तरह पौधों की परवरिश का ईमानदारीपूर्वक संकल्प लें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि स्वस्थ पर्यावरण ही स्वस्थ जीवन का आधार है। इसलिए पर्यावरण की रक्षा हमारा नैतिक कर्त्तव्य है।

 

– डॉ. गीता गुप्त

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