हमारा विचारमंडल

मूल में सब कुछ एक है, कुछ भी भिन्न नहीं है। भिन्नता तो बाहर दिखायी देती है, परिधि में दृष्टिगोचर होती है। इसी कारण वेदांत कहता है- अयमात्मा ब्रह्म अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ। एक ब्रह्म के अलावा कुछ भी सत्य नहीं है और शेष सब कुछ इसकी अभिव्यक्ति ही है। इसी कारण हमारी संस्कृति में उस परम परमात्मा को सर्वत्र कण-कण में व्याप्त देखा जाता है और सभी जड़-जंगम और जीव-वनस्पति को इसी परमात्मा की प्रतिकृति माना जाता है। अतः धरती एक है, जल एक है, वायु अभिन्न है, अग्नि एक है और सबमें व्याप्त आकाश भी एक है। इन सबमें भासमान परमात्मा ही मूल है। यही हमारी संस्कृति की मूल मान्यता है।

आज संस्कृति का यह स्वरूप धूमिल हो चुका है। इन्सान ने अपनी क्षुद्र स्वार्थपरता एवं अहंकार के कारण संस्कृति के मूल पर कुठाराघात करने का षड्यंत्र किया है। इस षड्यंत्र से क्षति अवश्य हुई है, पर शाश्र्वत अर्थात् सदियों से विनिर्मित इस संस्कृति का मूल इतना भी कमजोर नहीं है कि इससे कट जाएँ, पर इसे काटने के प्रयास में मनुष्य का स्वार्थ एवं अहंकार सर्वोपरि है। यह स्वार्थ किसी रूप में भी हो सकता है और अहंकार भी किसी भी प्रकार से जुड़ा हो सकता है। यही आसुरी-भाव है, जो दैवी-भाव को सदा विनष्ट करने पर तुला है।

आज संस्कृति का दैवी-भाव कमजोर एवं दुर्बल हो गया है और इसके विपरीत अलगाव, विभाजन एवं विनाशकारी आसुरी-भाव प्रबल हो गया है। चिंतन का विषय है कि ऐसा हुआ क्यों और इस होने में हमारी कितनी भूमिका रही है? इसका यदि विश्र्लेषण किया जाये तो हम स्वयं को कभी माफ नहीं कर सकते, क्योंकि हमारी करतूतें आसुरी पक्ष की ओर झुकी हुई हैं। नियति का नियम है कि जिस ओर जितना झुकाव होगा, वह अधिक शक्तिशाली होगा। हमारे विचार एवं व्यवहार इसी ओर चल पड़े हैं। विचारों की आवृत्तियों को मापें तो लगता है नकारात्मकता के घटाटोप में सकारात्मकता छटपटा रही है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखें तो हमारे कर्म हमारी अंतरात्मा के विरुद्घ होते हैं और हमें ही बॉंधते चले जा रहे हैं, जिसकी दासता के कारण ही तो हमें इस कालचा के पहिए में लेकर चक्की पीसनी पड़ती है।

विचारों की नकारात्मकता के दुष्प्रभाव से सारा विचारमंडल प्रदूषित हो चुका है, विश्र्वास ही नहीं होता कि सद्विचार कैसे इस प्रदूषित क्षेत्र में ़िंजदा हैं। आज वैचारिक मूल्यों के गिरते मानदंडों पर ध्यान दें तो लगता है प्राचीनकाल का आसुरी समाज शायद इससे बेहतर हो। अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए हम अपनी ही जड़ को काटने हेतु उद्यत हैं। इस प्रयास में आज राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि बाह्य तत्त्व तथा निष्ठुरता, निर्लज्जता, हिंसक मानसिकता, अश्र्लीलता आदि आंतरिक तत्त्वों के मूल्यों में भारी गिरावट आयी है।

आंतरिक मूल्यों में बड़ी विभीषिका एवं आपा-धापी मची प्रतीत होती है। दूषित चिंतन से हमारे विचार खोखले हो गये हैं। कहीं कोई आदर्श नजर नहीं आता है। औरों की सेवा, दयाभाव, संवेदनशीलता, क्षमा, उदारता आदि भाव तो लगता है, किंवदंती बन गये हैं। स्वार्थ और अहंकार का नग्न नर्तन प्रलयकारी स्थिति का परिचायक हो गया है। स्वार्थ अर्थात् स्व के अर्थों में सब कुछ का सिमट जाना अर्थात् हम नहीं मैं, और इस मैं के लिए जितना भी साधन, सुविधा और संपदा बटोरी जा सके, बटोर ली जाये। सर्वे भवंतु सुखिनः का सांस्कृतिक स्वर नहीं, वरन स्वयं की खुशी और मस्ती में सब कुछ केंद्रित हो गया है, फिर चाहे इसके लिए औरों को कितनी भी पीड़ा या कष्ट क्यों न झेलना पड़े।

अहंकार का मतलब है “मैं’ और “मेरा’ का सतत विस्तार। यह “मैं’ रूपी अहंकार ऐसा उद्दंड तत्त्व है, जो “मैं’ के अलावा किसी और को स्वीकारता ही नहीं है और स्वयं को पुष्ट, सबल तथा विकसित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। यही अंधी मानसिकता का नंगा नाच आंतरिक और बाह्य मूल्यों को क्षत-विक्षत किये हुए है। इन सारे तत्त्वों से हमारा जीवन घिरा हुआ है और इसी कारण हम आसुरी तत्त्वों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भागीदार हो चुके हैं। ऐसी विपन्न एवं दुरावस्था में दैवी तत्त्वों का भला कैसे विकास हो और सांस्कृतिक मूल्य किस प्रकार स्थापित हों।

उपलब्ध तथ्यों के विश्र्लेषण से धरती के पतन की आशंका की पुष्टि होती है, परंतु हम यह क्यों भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति एक दैवी योजना है और यह आध्यात्मिकता से अभिसिंचित है। इसके पतन का तात्पर्य है, सृष्टि का पतन। यह किंचिन मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है। यह संस्कृति अपरोक्ष रूप से ऋषियों की तपस्या से पोषित होती है और परोक्ष रूप से हम सबके श्रेष्ठ विचारों एवं भावों से पुष्पित होती है। आज चूंकि परोक्ष का योगदान कमजोर एवं दुर्बल हो गया है, इसलिए यह जितनी सुगंधित एवं सुरभित होनी चाहिए, नहीं हो पा रही है, परंतु इसे आंतरिक पोषण अपने उसी रूप में प्राप्त एवं उपलब्ध है इसलिए इसके मुरझाने और मिटने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः इस संस्कृति के लिए इकबाल की यह उक्ति शत-प्रतिशत सच है – कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

संस्कृति के मूल में दैवी चेतना का निरंतर निर्झर बहता रहा है। ठीक उसी प्रकार हमारी अंतरात्मा में भी इस परमात्म चेतना की दिव्य सरिता बहती रहे और हम बाहरी विरोधाभासों के बावजूद मूल में उस आनंद का आस्वाद प्राप्त करते रहें, इसके लिए हमें सांस्कृतिक दृष्टि का विकास करना चाहिए, ताकि हम सबमें एक उसी को और एक में सभी को देखने एवं बोध करने का भाव प्राप्त कर सकें।

योग-दृष्टि कहती है कि इसके विकास के लिए दर्पण-साधना का अभ्यास करना चाहिए। दर्पण के सामने खड़े होकर अयमात्मा ब्रह्म अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ। तत्त्वमसि, जो तुम हो वही मैं हूँ, आदि भाव को ामशः अंतस पटल में सुदृढ़ करना चाहिए, क्योंकि मूल में हम वही हैं। हम ही परमात्मा के अंशावतार हैं। अतः उस मूल के अंश को जानने के लिए यह उपयुक्त एवं कारगर साधना है। जैसे-जैसे यह साधना सधती जाएगी, हमारी भेदबुद्घि कम होती जाएगी और सबमें उसी को और उसी में सबको देखने की दृष्टि धीरे-धीरे पैदा होती जाएगी। फिर हमें कीट, पतंग, जड़, जीव सभी में वही एक चेतन ाीड़ा कल्लोल करती नजर आएगी। इससे हमारे वैचारिक एवं व्यावहारिक मूल्यों में उत्तरोत्तर श्रेष्ठता की वृद्घि होती जाएगी और तभी हमारी दैवी संस्कृति-भारतीय संस्कृति विश्र्व संस्कृति के रूप में पुनः प्रतिष्ठित हो जाएगी।

You must be logged in to post a comment Login