अंतर्मन

कल शाम हरीतिमा अपने सास-ससुर सहित मेरे घर पधारी तो मैं चौंक गयी। हम दोनों एक-दूसरे के यहॉं आते-जाते रहते हैं, पर अंकल-आंटी तो कभी नहीं आये। डाइवर ने मिठाई का डिब्बा और फलों का टोकरा कोने में रखा और वे दोनों बेतकल्लुफी से सोफे पर बैठ गये।

“”रजनी बेटे, ज्योति को बनाने में तुम्हारा भी बड़ा योगदान है। कल हमारे घर में एक प्रीतिभोज है। पैंतीस साल से चल रहे उस रावगढ़ वाले मुकदमे का आज फैसला हो गया। जो काम प्रकाश नहीं कर पाया, वो हमारी पोती ने कर दिया। तुम्हारी लाड़ली की दलीलों के सामने विपक्ष के वकील ने घुटने टेक दिये। अब उस जमीन पर प्रकाश का मनचाहा अस्पताल खुलेगा और उसका सर्वेसर्वा होगा, हमारा पोता अभिलाष।” अंकल की बात सुन कर मैं चौंक गयी। अभिलाष तो मेरा बेटा है। एम्स से एमएस करके अभी तो आया है।

“”क्यों बेटा? तुम्हें कोई आपत्ति है?”

“”नहीं अंकल, मुझे क्या आपत्ति? और क्यों? आपका पोता है। मैं क्यों मना करूंगी भला।”

“”तो ठीक है, तुम लोग गप्पे मारो, मैं चला।” अंकल एक बर्फी मुंह में डालकर उठ गये और मैं सकते में बैठी रही। कितनी होनहार निकली ये लड़की? मन भी क्या चीज है। इसके कोटरों में पता नहीं कहां-कहां यादें दुबकी रह जाती हैं। मेरी आंखों के सामने रील दर रील पिछले अट्ठाईस सालों का अतीत खुलता गया। क्या कभी उन निर्मम क्षणों को दिन-महीने-सालों को भूल सकती हूं?

कहां तो मैं इतनी प्रसन्न! मेरी बचपन की अभिन्न सहेली हरीतिमा मेरे ही शहर में बहू बनकर आ गयी थी। क्या जोड़ी सजी थी, प्रकाश के साथ। ऐसा हंसता-खेलता परस्पर लीन जोड़ा कम ही देखने को मिलता है। ऐसा लगता, जैसे ये दोनों अजनबी नहीं वरन सालों साथ बिताये हों। और फिर नियंता का वो विधान। दो ही साल तो हुए थे अभी। जाने की हिम्मत कहां से जुटा पाई थी मैं! प्रकाश के शव के पास बुत बैठी हरीतिमा का सामना करना बेहद मुश्किल था। उधर आंटी बार-बार आग्रह किये जा रही थी।

“”बेटा, तुम ही करो कुछ। पथराई बैठी है। एक बूंद आंसू नहीं। मेरी तो अकेली संतान चली गयी। अब इसे कुछ हो गया तो? क्या मुंह दिखाऊंगी ऊपर जाकर प्रकाश को?”

बड़ा साहस बटोर कर उसे कंधे से पकड़ा तो वो सीदी फर्श पर कटे पेड़-सी गिर पड़ी और फिर जो उसका बांध टूटा तो टंडन आंटी फिर परेशान।

शाम को अंत्येष्टि के दौरान मैं हरीतिमा से नजरें चुरा रही थी, पर वही आकर मेरे पास बैठ गयी।

“”रजनी, सब कहते थे न मैंने बहुत अच्छी किस्मत पाई है! लेकिन देख, मम्मी-पापा, मां-डैडी सबकी किस्मत फूट गयी मुझसे जुड़कर। पता है तुझे, मम्मी कह रही है रो-रो कर, “”हे भगवान, विधवा बेटी का दुःख देखने से तो अच्छा था कि भगवान उसे ही उठा लेते।” “”रजनी, यमराज प्रकाश की बजाय मुझे ले जाते तो क्या बिगाड़ लेती मैं उसका?” मैं उसे ढांढस देती तो क्या कहकर? पंद्रह दिन बीते होंगे कि टंडन आंटी का फोन आ गया।

“”रजनी बेटा, आकर इसे समझाओ एक बार।”

मेरी रूह कांप जाती थी उसका सामना करने में। फिर भी जाना पड़ा।

“”देखो बेटा, ये प्रकाश की निशानी मिटाने पर तुली है। क्या हो गया मेरी इतनी समझदार बहू को।” कहते हुए आंटी जार-जार रोती जा रही थीं। उसे समझाने की मेरी सारी कोशिशें बेकार गयीं। मैंने तीखा वार किया, उस पर “”हरीतिमा, क्या तू प्रकाश के जाने के बाद इतनी निष्ठुर हो गयी कि उसकी एकमात्र याद को भी मिटा देना चाहती है? ऐसा भी क्या मुंह मोड़ना? कितना प्यार किया प्रकाश ने तुझे और तू एक ही झटके में उसके अस्तित्व का लवलेश मिटा देना चाहती है।”

तड़प कर चीखी वो, “”इतने नुकीले बाण तो मत चुभो। मेरे पास बचा ही क्या है उनकी यादों के सिवा? उन्हीं की यादों के सहारे तो ये जीवन ढो रही हूं।”

“”तो फिर ये तेरे पेट में जो उसका अंश है, इसी में तो लौट रहे हैं न प्रकाश? क्यों मिटाना चाहती है? उन्हें आने दे। फिर देखना तेरा ये एकाकीपन कैसे टूटता है।”

“”यही तो मैं कह रही हूं बेटा। मेरे पोते के रूप में प्रकाश ही तो वापस आयेगा। उसे मत मिटा। पति की कमी बेटा पूरी करेगा।”

“”लेकिन रजनी, तुझे तो पता है कि एकल अभिभावक संरक्षित बच्चे का सामान्य विकास नहीं हो पाता। याद है, मालविका की कहानी या भूल गयी? कितनी परेशानी से पाला उसने बेटे को। बड़ा होकर उसकी उद्दंडता ने जीवन हराम कर दिया उसका। उसे हमेशा अपना फैसला दंश देता रहा कि गर्भपात का निर्णय उसने क्यों बदला। मैं वही भूल नहीं दोहराना चाहती। काट लूंगी अकेला जीवन।”

“”कमाल है। मालविका से मिला रही है? तू कब अकेली है उसकी तरह? सिर्फ प्रकाश ही तो गये हैं न, पूरा परिवार तो है तेरे साथ। दिल्ली में सब लोग हैं।”

टंडन आंटी ने खींच कर उसे छाती से चिपटाया, “”बेटा, कोई फर्क नहीं आ गया प्रकाश के जाने से। हम भला तुझे अकेली छोड़ेंगे? तू तो हमारा बेटा वापस लायेगी। पूरे घर को दोबारा प्रकाशित करेगा वो।”

आखिर वो मान गयी। सूखे खेत को जैसे इंद्र का वरदान मिल गया। टंडन अंकल ने ऐलान कर दिया “”अब घर में मातम एकदम नहीं, सिर्फ आने वाले के स्वागत की तैयारियां और कुछ नहीं।”

हरीतिमा भी सहज हो चली। आंटी को तो बहू का ध्यान रखने के अलावा और कोई काम ही नहीं। पता नहीं कहां-कहां से रोज नये-नये नुस्खे उपलब्ध करती रहतीं। कभी गर्भवती के लिए तो कभी जच्चा के लिए तो कभी नये जन्मे शिशु के लिये। लेकिन जबलपुर वाली मौसी क्या आयी, घर की शांति में आग लग गयी। चार पोतों की दादी, बड़ी सयानी, पढ़ी-लिखी मामूली, पर दिमाग के तरकश से ऐसे अचूक तीर निकलते कि सामने वाला चारों खाने चित्त। वैसे भी उनकी बात काटने का अर्थ था पूरी तरह संग्रामरत होना। आसपड़ोस क्या दूर-दराज के नाते-रिशातों के अंदरूनी से अंदरूनी समाचारों के अस्त्र-शस्त्र से पूरी तरह लैस उसकी मारक शक्ति का सभी लोहा मानते थे। आते ही उन्होंने सीधा वार किया, “”मदालसा, बहू को रोक दिया तो टेस्ट तो करा ही लिया होगा।”

“”अरे नहीं जीजी। नाम भी मत लो। एकदम गैर-कानूनी है।”

उन्होंने आंखें तरेरी “”तो फिर तुम्हें कैसे पता कि पोता आयेगा?” “”मेरा मन कहता है।” टंडन आंटी की आवाज जैसे गहरे कुएं से निकली। “”वाह, तुम्हारा मन न हुआ, पेट में मशीन हुई। पूरे नौ महीने खुटर-पुटर लगी रहेगी। कहीं बेटी हुई तो? इससे तो अच्छा है एक बार पता चल जाये। क्यों बहुरिया?”

हरीतिमा ने नजर उठाकर उन्हें देखा फिर आंटी को देखा। झुकी आंखों की भाषा उसने एकदम पढ़ ली। कार की चाबी उतारी और शांत स्वर में बोली, “”चलिए मौसीजी।” मौसी सामने की मिष्ठान्नों से भरी प्लेट एक ओर सरका कर किला फतह करने निकल पड़ी। जिस बात का खटका था, वही हुआ। बहू ने सास को बताया, “”मां, मेरे अंदर प्रकाश नहीं, बल्कि मेरा ही प्रतिरूप पल रहा है। अब?” “”क्या?” वे चौंकी। फिर बुझा स्वर निकला, “”अब क्या? कुछ नहीं।” और वे उठ कर बालकनी में चली गयीं।

(ामशः)

– डॉ. उषा अग्रवाल

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