अनोखा प्रेम

(19वीं शताब्दी के प्रसिद्घ क्रोंच कहानीकार मोपासां की कहानी “द चेयरमेंडर’ का स्वच्छंद अनुवाद)

प्रेम की परिभाषा कई लोगों ने कई प्रकार से की है और अपनी-अपनी परिभाषा के समर्थन में विद्वानों के उद्घरण देकर प्रमाणित करने का प्रयास किया है। मार्क्स के घर पर प्रीतिभोज के बाद प्रेम पर चर्चा शुरू हुई। इस चर्चा में जितने मुँह उतनी बातें होने लगीं। चर्चा बहस में बदल गई। बहस दो दलों में बॅंट गई – स्त्री और पुरुष। पुरुषों का मानना था कि प्रेम एक रोग है, जो मनुष्य पर बार-बार आामण करता है और कभी-कभी प्राण-घातक भी हो जाता है।

महिलाओं ने पुरुषों की इस दलील को नहीं नकारा, परन्तु उनका कहना था कि प्रेम केवल एक बार होता है और इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने कई कवियों के उद्घरण दिये। उनका मानना था कि प्रेम एक बिजली की तरह है, जिसके दिल पर गिरती है, वह व्यक्ति उसी में डूब जाता है और फिर उसे किसी की सुध नहीं रहती।

मार्क्स ने, जिसके कई प्रेम-प्रसंग सर्वविदित थे, मुस्कुरा कर कहा कि “”प्रेम तो समय-समय पर किसी से भी किया जाता है। यदि एक प्रेम असफल रहा, तो समय इस घाव पर मरहम का काम करता है और वह व्यक्ति पुनः किसी और के प्रेम में डूब जाता है। आप लोग उन प्रेमियों के उदाहरण दे सकते हैं, जिन्होंने अपने प्रेम के लिए प्राण दिये होंगे, परन्तु यह उनकी नादानी थी। यदि वे आत्महत्या नहीं करते और जीवित रहते तो कुछ समय बाद वे किसी अन्य के प्रेम में डूब सकते थे। प्रेमी उस शराबी की तरह होता है, जिसका नशा यदि उतर गया तो वह फिर पीता है।”

इस बहस को एक वयोवृद्घ डॉक्टर शांति से सुन रहे थे। पेरिस में अपनी प्रैक्टिस बंद करके वे यहॉं अपना शेष जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करने के लिए आ गये थे। जब उनसे अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा, “”मार्क्स के विचार अपनी जगह सही हो सकते हैं, परन्तु मेरी प्रैक्टिस के जीवन-काल में एक ऐसा अनोखा प्रेम-प्रसंग आया, जो पचपन वर्ष जारी रहा और मृत्यु के साथ ही उसका अंत हुआ।”

यह सुनकर श्रीमती मार्क्स ने ताली बजाते हुए कहा, “”कितना सुंदर! यह है प्रेम का अंदा़ज! कितना प्यारा होगा उसका जीवन, जिसने पचपन वर्ष तक अपने प्रेम को संजोये रखा। कितना प्रसन्नचित्त और संतुष्ट होगा उस पुरुष का जीवन, जिसे ऐसी स्त्री की प्रेरणा मिली, जो निश्र्चय ही वंदनीय है।”

डॉक्टर ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहना प्रारंभ किया, “”आप लोग भी शायद उनसे परिचित होंगे। वह पुरुष है केमिस्ट मोंसियर शौके और वह स्त्री है, कुर्सी बुनने वाली वह बुढ़िया, जो हर वर्ष इस स्थान का चक्कर लगाती रही।”

कुर्सी बुनने वाली बुढ़िया की बात सुनते ही वहॉं बैठी महिलाएँ निराश हो गईं। वे तो यह समझती थीं कि प्रेम केवल सम्पन्न घरानों में ही होता है और उन्हें ही सच्चे प्रेम की जानकारी होती है। रो़जी-रोटी के लिए जूझ रहे लोगों में प्रेम!!!

डॉक्टर ने अपना कथन जारी रखा..तीन माह पूर्व मुझे उस बुढ़िया के पास बुलाया गया था। हर वर्ष की तरह वह अपने घोड़े लगी वैन में यहॉं कुर्सियॉं बुनने आई हुई थी। वह अपना डेरा भी नहीं लगा पाई थी कि बीमार हो गई। जब मैं वहॉं पहुँचा तो वह अंतिम सॉंसें गिन रही थी। मुझे बुलाने का अभिप्राय बताते हुए उसने अपनी आत्मकथा सुनाई- “”ग्यारह वर्ष की आयु से वह अपने मॉं-बाप के साथ यहॉं आती रही है। तब वह सारे मुहल्ले में घूम-घूम कर हांक लगाती थी, ताकि लोगों को पता चले कि कुर्सी बुनने वाले यहॉं डेरा लगा चुके हैं। एक रोज उसने सड़क के किनारे बैठे एक लड़के को रोते देखा। लड़के ने बताया कि एक बड़ा लड़का उसके पैसे छीनकर भाग गया है। उस लड़के ने अपना नाम शौके बताया। शौके के हाथ में उसने अपने जमा पैसे रखते हुए उसे रोना बंद करने के लिए कहा और आलिंगन में भींच लिया। इससे उसे एक अपार सुख का अनुभव हुआ। यह उसके जीवन का प्रथम सुखद अनुभव था, जिसे उसने अपनी स्मृति में संजो कर रखा।

हर वर्ष जब भी वह यहॉं आती, “”शौके को ढूँढ निकालती और उसे अपनी जमा पूँजी सौंप कर आलिंगन में समेट लेती। यह प्रिाया चार वर्ष तक चलती रही। अगले वर्ष भी वह शौके को ढूँढती रही, पर उसका कहीं पता नहीं चला। अंततः उसे पता चला कि शौके स्कूल में मिलेगा। वह सीधे स्कूल गई। शौके को ढूँढ निकाली और वर्ष भर की जमा पूंजी उसके हाथ में थमा दी। हाथ में सिक्के लिए शौके उसे देखता रहा और वह उससे लिपट कर चुम्बन लेने लगी। शौके ने पैसे मिलने के कारण आपत्ति नहीं की, परन्तु निर्विकार खड़ा रहा।……….

एक लम्बे अंतराल तक उसे शौके की खबर नहीं मिली। हर वर्ष वह तलाश करती रही, परन्तु उसे शौके कहीं दिखाई नहीं दिया। कुछ वर्षों बाद अचानक शौके उसे केमिस्ट की दुकान से बाहर निकलता हुआ दिखाई दिया। उसकी बॉंह पकड़े एक लड़की साथ चल रही थी। वह शौके की पत्नी थी।

बुढ़िया की सांस फूल रही थी। कुछ देर रुक कर उसने मुझसे कहा, “”डॉक्टर, यह एक व्यक्ति है, जो मेरे जीवन में आया। मैं किसी और पुरुष को नहीं जानती।” उसने सारा जीवन उस व्यक्ति के नाम पर दिया, जो उसके प्रेम को समझ भी नहीं पाया था। मृत्यु शैया पर पड़ी यह बुढ़िया चाहती थी कि मैं यह जिम्मेदारी लूँ कि उसके जीवन की जमा पूँजी शौके तक पहुँचाऊँ। उसने बताया कि वह यह जिम्मा मुझे इसलिए सौंप रही है, क्योंकि उसे मेरी ईमानदारी पर पूरा भरोसा है।

यह कहकर उसने अपने कांपते हाथों से मुझे दो हजार तीन सौ ौंक की गठरी सौंप दी। उसकी सॉंसें तेज होने लगीं। मैं जान गया कि वह उस दीये की तरह है, जो बुझने के पहले भभकता है। उसकी अंत्येष्टि के बाद दूसरे दिन मैं शौके के घर पहुँचा। डॉक्टर और केमिस्ट का तो चोली-दामन का साथ होता ही है। शौके और उसकी पत्नी ने मेरा स्वागत किया। मैंने उन्हें बुढ़िया की प्रेम-कहानी सुनाई। शौके ने उस बुढ़िया को पहचानने से भी इन्कार कर दिया। उसकी पत्नी के स्वर में ाोध था, “”ये भिखारिनें हम जैसों को बदनाम करने के लिए हथकंडे अपनाती हैं।”

मैंने जब यह कहा कि वह बुढ़िया शौके के लिए अपनी जमापूँजी के 2,300 ोंक की रकम छोड़ गई है, तो दोनों के तेवर बदल गये। और कहने लगे जब उस बुढ़िया की अंतिम इच्छा थी तो यह पैसे स्वीकार कर ही लेते हैं। दोनों के चेहरों पर हल्की-सी मुस्कान थी।

दूसरे दिन शौके मेरे पास आया और कहने लगा, “”सुना है, उसके पास एक वैन भी थी। यदि वह मुझे मिल जाय…।” मैंने उसे वैन ले जाने की आज्ञा दे दी। बिना किसी संकोच के वह वैन भी लेकर चला गया। यही एक अनोखी प्रेम-कहानी है, जिसे मैं जानता हूँ।”

सारा वृत्तांत सुनने के बाद श्रीमती मार्क्स ने कहा, “”इससे प्रमाणित होता है कि केवल महिलाएँ ही जानती हैं कि सच्चा प्रेम कैसे किया जाता है।” उनकी आँखों में आँसू तैर रहे थे।

– चंद्रमौलेश्र्वर प्रसाद

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