अपने-अपने दुःख

सब जानते हैं कि यह संसार दुःख-सुख का संगम है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन की भांति सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख मनुष्य के जीवन में आते रहते हैं। होनी को भी सब मानते हैं। भाग्य, प्रारब्ध और मस्तक की रेखाओं में भी लोग साधारणतया विश्र्वास करते ही हैं। फिर भी दुःख में हम नितांत परेशान, निराश, भयभीत और हताश हो जाते हैं। दुःख की घड़ियॉं बहुत लम्बी हो जाती हैं। हम अपना मानसिक संतुलन, अपना आपा तक खो बैठते हैं। कहा जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी सीता-हरण तथा लक्ष्मण को घातक शक्ति लगने से पीड़ित देखकर कातर और अधीर हो गये थे। फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है!

दुःख सामान्य जीवन का सत्य है। सुख-दुःख के इस चा में हम दुःख से बचकर केवल सुख को ही प्राप्त कर लें, यह संभव नहीं है। दुःख की परिभाषा हर एक की भिन्न हो सकती है और परिणाम भी। दुःख भी सबके अपने-अपने हैं। कोई संतान न होने से दुःखी है तो कोई आर्थिक संताप से त्रस्त है। कोई दो रोटी की जुगाड़ न कर पाने से दुःखी है तो लखपति की खिन्नता करोड़पति न बन पाने के कारण है।

बैठे-बैठे मन में आया कि अपने आसपास ही एक नजर डालें। देखें तो सही कि लोग किस हाल में हैं। बीस घरों का हमारा पड़ोस है। मैंने पहले घर से प्रारंभ करके सभी परिवारों पर बारी-बारी से दृष्टिपात किया।

पहले घर में श्री “क’ रहते हैं। उनका लड़का लुंज-पुंज, मांस का लोथड़ा-सा पैदा हुआ है। न उठ-बैठ सकता है, न देख-सुन सकता है। सब काम मां-बाप को करवाना पड़ता है। चौदह साल का हो गया है। इलाज, दवा-दारू सब करना ही पड़ता है, यह जानते हुए भी कि वह कभी स्वस्थ और सामान्य नहीं हो पाएगा। मां-बाप और परिवार की पीड़ा का अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

बगल वाले दूसरे घर में श्री “ख’ रहते हैं। पति-पत्नी दोनों पोस्ट ग्रेजुएट हैं। धनी परिवारों में से हैं और दोनों बहुत अच्छे पदों पर हैं। विवाहोपरांत बारह-तेरह वर्ष बीत जाने पर भी संतान सुख से वंचित हैं। ऑपरेशन, इलाज, पूजा-पाठ, झाड़-फूंक, मुल्ला-फकीर, मंदिर-मजार सब करके देख लिया। मुराद पूरी नहीं हुई। जैसी कि हमारे समाज की रीत है, उनसे पहला सवाल हर मिलने वाले बच्चे के बारे में ही करता है। वे अपने इस दुःख को भूलना भी चाहते हैं तो लोग भूलने नहीं देते।

तीसरे घर में श्री “ग’ रहते हैं। रिटायरमेंट में केवल दो वर्ष बाकी हैं। घर में छः कन्याएँ हैं। बड़ी तीन विवाह योग्य हो चुकी हैं। सबसे बड़ी के रिश्ते के लिए सुयोग्य वर की तलाश में भटकते-भटकते थक चुके हैं। कोई संयोग नहीं बन पाया। सबसे छोटी बेटी अभी दूसरी कक्षा में पढ़ती है। रात-दिन बेचारे एक ही धुन में व्यस्त रहते हैं।

चौथे घर में श्री “घ’ हैं। इकलौता लड़का पढ़ाई-लिखाई से विमुख होकर बुरी संगत में पड़कर डग्स, शराब सब खाता-पीता है। घर से गायब रहता है। ढूंढ-ढूंढ कर लाते हैं। भाग-भाग जाता हैं। मुहल्ले-पड़ोस वाले, दोस्त-रिश्तेदार पीठ पीछे छींटाकशी करते हैं। बेचारे भलेमानुष किसी को मुंह दिखाने से भी कतराते फिरते हैं।

अगले घर में रहते हैं श्री “च’। उनकी पत्नी कर्कशा है। घर में रात-दिन महाभारत मचा हुआ है। मुहल्ले वाले चटखारे लेते हैं।

श्री “छ’ की पत्नी स्तन कैंसर से पीड़ित है। ऑपरेशन से एक स्तन निकाला जा चुका है, मगर रोग फैल गया है। रात-दिन अस्पताल, इलाज, दवाओं के चक्कर में रहते हैं। मुम्बई के फेरे लगाते रहते हैं। पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। मगर पत्नी धीरे-धीरे मौत के भयानक जबड़े की ओर बढ़ती जा रही है। यह कैसी बेबसी होती है कि एक अपना देखते-देखते हमारे सामने हाथों से जा रहा है और हम कुछ कर भी नहीं पा रहे हैं।

इस भांति एक-एक करके मैंने पड़ोस के उन्नीस घरों में झांक डाला। हर एक अपने-अपने दुःख से दुःखी थे। हर कोई अपने दुःख को सबसे बड़ा मानता था। एक भी ऐसा नहीं मिला, जिस पर दुःख की गहरी काली छाया न हो। गुरुनानक देवजी की वाणी याद हो गई, नानक दुखिया सब संसार।

अपने छोटे-मोटे दुःखों से मन जब अधिक दुःखी हो तो अपने आसपास चहुं ओर दुःखों के लहराते समुद्र को देखकर अपना निजी दुःख बहुत छोटा, बहुत मामूली प्रतीत होने लगता है। मन हल्का हो जाता है। यद्यपि दूसरों के दुःखों से सांत्वना पाना अच्छी बात नहीं है फिर भी अधीर मन तो शांत हो ही जाता है। प्रभु-कृपा के प्रति कृतज्ञता की भावना भी मन में उत्पन्न होती है कि हमारे दुःख तो दूसरों के मुकाबले कुछ भी नहीं हैं। एक नयी आस्था, निष्ठा, समर्पण का भाव उस सर्वशक्तिमान के प्रति स्वयमेव हृदय में जागृत हो जाता है।

– शांति शर्मा “शालिनी’

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