अपराध और राजनीति का रिश्ता एक कड़वा सच

अंततः उत्तर प्रदेश के एक मंत्री जमुना निषाद ने इस्तीफा दे ही दिया और उनका इस्तीफा मुख्यमंत्री मायावती ने स्वीकार भी कर लिया है। मंत्री पर आरोप लगा था कि उन्होंने अपने साथियों के साथ एक पुलिस थाने पर हमला किया था और उनकी पिस्तौल से चली गोली से एक पलिसकर्मी की मौत हो गयी है। सुना है अब इस आरोप में थोड़ा बदलाव किया गया है – अब कहा जा रहा है कि पुलिसकर्मी की मौत मंत्री की कार से चली गोली से हुई है। बहरहाल, तथ्य यह है कि गोली चलने से पुलिस वाला मारा गया और यह गोली मंत्री महोदय के नेतृत्व में थाने गयी भीड़ की तरफ से चली थी। इसलिए मुख्यमंत्री ने मंत्री से इस्तीफा मांगा, इस्तीफा दे दिया गया और मंजूर भी हो गया। निश्र्चित रूप से यह एक अच्छा उदाहरण है और मुख्यमंत्री मायावती की यह घोषणा भी प्रशंसनीय है कि “अपराधी अपराधी है, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो और चाहे वह कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो।’

यह देखना रोचक होगा कि आरोपी मंत्री अपराधी घोषित होते हैं या नहीं। वैसे यह मायावती सरकार से जुड़ा इस तरह का पहला मामला नहीं है। निषाद मायावती सरकार के तीसरे ऐसे मंत्री हैं जो आपराधिक मामले में लिप्त बताये जा रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है यह, लेकिन किसी को आश्र्चर्य नहीं हो रहा, यही स्थिति है – राजनीति और अपराध के रिश्ते इतने गहरे हो गये हैं हमारे यहां कि जनता ने उन्हें एक नियति के रूप में स्वीकार कर लिया है। राजनीति में आपराधिक तत्वों से कहीं ज्यादा गंभीर है यह तथ्य कि जनता ने इसे एक स्वाभाविक स्थिति के रूप में स्वीकार लिया है। यह स्वाभाविक स्थिति नहीं है। नियति भी नहीं है। अपराध और राजनीति का यह गठबंधन हमारी व्यवस्था और हमारी समझ दोनों पर प्रश्र्न्नचिह्न लगाता है।

उत्तर प्रदेश में पिछले चुनावों में 872 ऐसे उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था जिन पर आपराधिक मामले चल रहे थे और आरोप भी छोटे-मोटे नहीं हैं – किसी पर हत्या की कोशिश का आरोप है, किसी पर बलात्कार का, किसी पर दंगे फैलाने का…। और यह उम्मीदवार किसी एक दल के नहीं थे। शायद ही कोई राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाने के लालच से बचा था। यह विडम्बना ही है कि हर राजनीतिक दल के लिए उम्मीदवार की जीत की संभावना ज्यादा महत्वपूर्ण थी, उम्मीदवार का साफ-सुथरा होना नहीं। राजनीतिक दलों की यह विवशता हमारी व्यवस्था पर प्रश्र्न्नचिह्न लगाती है और उत्तर प्रदेश में इन 872 दागी उम्मीदवारों में से 130 उम्मीदवारों का जीतना हमारी अर्थात् मतदाता की समझ को कठघरे में खड़ा करता है।

दुर्भाग्य यह भी है कि यह सच्चाई सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। शायद ही कोई राज्य ऐसा बचा होगा जहॉं आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायक नहीं हैं। यही नहीं, संसद में भी ऐसे व्यक्ति हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और हर दल में हैं ऐसे लोग।

यह सवाल बार-बार उठता रहा है और आज फिर उठ रहा है कि राजनीतिक दल ऐसे तत्वों का समर्थन लेने के लिए मजबूर क्यों हैं? जहॉं तक आपराधिक तत्वों का सवाल है, निश्र्चित रूप से राजनीति से जुड़ना उन्हें एक तरह की स्वीकार्यता देता है और एक सम्मान भी। यही नहीं, राजनीतिक हैसियत आपराधिक तत्वों को अपने स्वार्थों की सिद्घि को नये अवसर भी देती है। आपरेशन दुर्योधन के माध्यम से हमने देखा कि किस तरह हमारे सांसद अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को लिए व्यापक राष्टीय हितों का सौदा कर सकते हैं। वैसे तो यह सौदा वे सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं जो अपनी कथित जीत के लिए समूची व्यवस्था को पराजय की स्थिति में डाल देते हैं। यह सही है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाला उम्मीदवार जब जीतता है तो दल-विशेष की एक सीट बढ़ जाती है, लेकिन यह कथित जीत ही है, वास्तविक जीत नहीं – इस जीत में जनतंत्र की पराजय छिपी है। यह भी एक विडम्बना है कि जनतंत्र की पराजय हमारे राजनीतिक दलों को कहीं भी जरा-सी भी पीड़ा नहीं देती।

हर राजनीतिक दल अपराध और राजनीति के रिश्तों की आलोचना करता है। अपराधियों के महिमा मंडन को सब गलत बताते हैं, लेकिन कोई भी दल यह निर्णय लेने को तैयार नहीं कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार नहीं बनायेगा। हां, दूसरे की चादर ज्यादा मैली है, यह बताने की कोशिश हर दल करता है। यही नहीं, जब भी किसी राजनीतिक दल पर आपराधिक तत्वों को बढ़ावा देने का आरोप लगता है तो अपनी सफाई में वह आरोप को गलत नहीं बताता, यह कहता है कि हमें ही कटघरे में क्यों खड़ा किया जा रहा है? सच तो यह है कि हर राजनीतिक दल ने यह मान लिया है कि आपराधिक तत्वों की शह के बिना राजनीति नहीं हो सकती। कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे हमारे राजनीतिक दल यह कथन प्रमाणित करने पर तुले हैं कि राजनीति शैतानों की अंतिम शरणस्थली है।

जिस जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने स्वीकार किया है, उसकी सफलता का तकाजा है कि अच्छे लोग राजनीति में आयें। यह कहना तो गलत होगा कि हमारी राजनीति में अच्छे लोग हैं ही नहीं, लेकिन यह सही है कि आज हमारी राजनीति में आपराधिक तत्व लगातार हावी हो रहे हैं। उनकी महत्ता बढ़ रही है, उनका वर्चस्व बढ़ रहा है। ऐसे तत्वों को अपना उम्मीदवार बनाना ही राजनीतिक दलों की मजबूरी नहीं है, लगता है, जीतने पर मंत्री पद देना भी एक पूर्व शर्त होती है इस गठबंधन की। तीन मंत्रियों को मायावती ने पदमुक्त किया है, लेकिन क्या वे नहीं जानती थीं कि यह लोग आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं? आज देश के हर राज्य में ऐसे मंत्री मिल जाएंगे जिन पर दर्जनों मुकदमे चल रहे हैं और ऐसों की भी कमी नहीं, जिन पर मुकदमे भले ही न चल रहे हों, पर उनकी कारगुजारियों से सब परिचित होते हैं।

एक सवाल यह भी है कि सीट जीतना राजनीतिक दल की विवशता हो सकती है लेकिन ऐसे तत्वों को वोट देने के लिए मतदाता क्यों विवश है? इसका एक उत्तर धन-बल और बाहुबल हो सकता है, लेकिन यह उत्तर तो हमारी राजनीति के साथ-साथ मतदाता को भी नंगा कर रहा है।

अपराध और राजनीति का रिश्ता एक कड़वा सच है। हो सकता है यह अपवित्र रिश्ता पूरी तरह कभी न मिटाया जा सके, लेकिन इसे मिटाने की अनवरत कोशिश हमारे जनतंत्र की रक्षा की एक शर्त है। यह कोशिश नेतृत्व और नागरिक दोनों के स्तर पर होनी जरूरी है। दागी मंत्रियों का इस्तीफा महत्वपूर्ण है। लेकिन इससे कहीं महत्वपूर्ण है वह जागरूकता जो ऐसे लोगों को मंत्री बनने की नौबत ही न आने दे।

 

– विश्वनाथ सचदेव

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