अहिंसा और स्वर्ग

जे. कृष्णमूर्ति के मुताबिक “”जब तक किसी भी पुरुष में “मैं’ का अस्तित्व है- अत्यन्त स्थूल रूप में या अत्यंत सूक्ष्म रूप में- तब तक हिंसा मौजूद रहेगी।” महान दार्शनिक जॉर्ज बर्नाड शॉ का कहना था – “”जब तक इन्सान के मन में दूसरे जीवों के प्रति मित्रता का भाव पैदा नहीं होता, व्यवहार में हर स्तर पर अहिंसा नहीं होती, तब तक धरती पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित नहीं हो सकता है।” “विश्वा द्वेषांसि प्रभुमग्ध्यस्मत्’ यानी हमारे सभी तरह के द्वेषों को पूरी तरह से छुड़ा दो। मतलब दूसरे से नफरत हिंसा को जन्म देती है। दुनिया में हिंसा की तमाम वजहों में नफरत बहुत बड़ी वजह है और यह नफरत “मैं’ यानी अहंकार से पैदा होती है। इसलिए जब तक इन्सान के मन से अहंकार नहीं खत्म होगा, तब तक हिंसा से पूरी तरह छुटकारा नहीं पाया जा सकता है। अहंकार शांति, प्रेम, सत्य, अहिंसा, न्याय और सदाशयता जैसे मूल्यों का विध्वंसक है। लेकिन यह अहंकार नफरत की जगह निज विकास में लगे तो व्यक्ति तत्वदर्शी भी बन सकता है। जब अहंकार दूसरे पर थोपा जाने लगता है, तब वह विध्वंसकारी बन जाता है। दुनिया में जितनी नरसंहार की घटनाएँ हुई, वे सभी किसी न किसी अहंकार का नतीजा थी।

व्यक्ति तीन तरह से हिंसा का शिकार होता है। पहला मानसिक हिंसा, दूसरा वाचिक- वाणी के जरिए की गई हिंसा और तीसरा कर्म यानि इन्द्रियों के जरिये की गयी हिंसा से। मानसिक हिंसा से बचना सबसे कठिन है। मानसिक हिंसा से छूटने का मतलब उन सभी विकारों से छुटकारा- जिनसे मन में हिंसा के भाव पैदा होते हैं। यह लगातार अभ्यास से ही संभव है। मन, वाणी और कर्म से हिंसक गतिविधियॉं जब तक जारी रहेंगी, अहिंसा का वातावरण ब्रह्माण्ड में नहीं बन सकता है। हिंसा की तरंगें जब तक खत्म नहीं होंगी, हिंसा के भाव मन में आते रहेंगे। यह इससे भी साबित होता है कि योग साधना के लिए योगी ऐसी जगह का चुनाव करते हैं जहॉं हिंसात्मक वातावरण न हो। ़जाहिर है हमारे मन पर सभी अच्छी-बुरी तंरगों का असर हर पल पड़ता है। इसलिए यदि पूर्ण अहिंसक समाज बनाना चाहते हैं तो निज से ही नहीं, पूरे ब्रह्माण्ड से हर स्तर पर हिंसक गतिविधियॉं रोकनी होंगी।

आज इन्सान बौद्घिक और मानसिक विकास तो बहुत कर चुका है, लेकिन चेतना के स्तर पर उसका विकास नहीं हुआ है। चेतना का विकास होते ही सभी तरह की हिंसा से छुटकारा मिल जाएगा, और यह निरन्तर ध्यान की प्रिाया करते रहने से ही हो सकता है। ध्यान की प्रिाया सीखने के लिए योग्य गुरू या प्रशिक्षक का चुनाव बेहतर ढंग से होना चाहिए। इसके अलावा निज की समीक्षा प्रतिदिन करते रहना चाहिए। खुद की समीक्षा से लौकिक और परलौकिक- दोनों का संतुलित विकास होता है। इससे ही जीवन का मकसद पूरा हो सकता है।

प्रसिद्घ स्कॉलर व अनुसंधानक डॉ. प्रज्ञान चंद के मुताबिक- जब तक दुनिया में वचन और कर्म से हर इन्सान अहिंसक नहीं हो जाता, तब तक हर इन्सान के मन में हिंसा की तरंगें उठती रहेंगी। इसलिए हर इन्सान को अहिंसा की तरफ ले जाने के लिए पहल करनी होगी। दरअसल हिंसा को दुनिया से खत्म करने के लिए अहिंसा-विज्ञान को समझना जरूरी है और यह पहले ऊँचे, फिर निचले स्तर पर समझी जानी चाहिए। जिस तरीके से धरती से तमाम बीमारियों को खत्म करने के लिए कोशिशें जारी हैं, वैसा ही कोशिश हिंसा पर काबू पाने के लिए करनी पड़ेगी।

You must be logged in to post a comment Login