आधार-निराधार

बच्चे को स्कूल और इनको दफ्तर भेज, मैंने बाल्टी उठाई और बाहर लॉन में आ गई, गीले कपड़े सुखाने के लिए। अनायास मेरी निगाह दो नंबर की तरफ उठी। हम एक नंबर में, वीरेन्द्र बाबू दो नंबर में रहते हैं। बीच में अनार की झाड़ियों की ऊंची फेंसिंग है। शायद इससे भी ऊंची एक फेंसिंग है, हम दोनों के बीच। वह क्लास टू सरकारी कर्मचारी और हम सीनियर क्लास वन अधिकारी। नयी वर्ण व्यवस्था के प्रतीक।

सच्चाई तो यह है कि हम दोनों परिवारों के बीच पर्याप्त घनिष्ठता है। मैं वीरेन्द्र बाबू की जिंदगी से जुड़ी हर विभीषिका की प्रत्यक्षदर्शी रही हूं। वह इस बात के साक्षी हैं कि जब मुसीबतों का “टिड्डी दल’ आामण करता है, जिंदगी जब विश्र्वासघात पर उतारू हो जाती है, जतन से बनाये खुशियों के ताजमहल जब तहस-नहस होने लगते हैं, तब इंसान कितना अकेला और असहाय हो जाता है- अशक्त, टूटा हुआ दर्शक मात्र।

जब भी मैं वीरेन्द्र बाबू को सुबह-सुबह घर के सारे काम खत्म कर, अपनी मटमैले कपड़े वाली डेक चेयर निकालकर, आम के पेड़ के नीचे, घंटों अकेले बैठे शून्य में ताकते हुए देखती हूं तो मेरा अंतर कसक जाता है।

कपड़े सुखाकर मैं अंदर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि सुदीप को साथ ले, वह हमारे लॉन में आ गये। मुख पर विषाद की रेखाएं थीं और आंखों में पीड़ा की काली परछाइयां।

याचक से बने खड़े थे, मेरे सामने।

मैंने उनका स्वागत किया। बैठने को कहा तो बोले, “”नहीं, सिर्फ दो मिनट लूंगा। सुदीप का नेपाल टांसफर हो रहा है…।”

“”यह तो बहुत खुशी की बात है।” अनायास मेरे मुंह से निकल गया।

“”हां, वह गया, तो अपनी तो नैया ही डूब जाएगी।” कहते-कहते वह जैसे सारे के सारे पिघल गये।

तत्काल मुझे सुदीप के टांसफर से जुड़ी वीरेन्द्र बाबू की जिंदगी की त्रासदी का आभास हो गया। भाभी जी बिस्तर पर पड़ी हैं। सुदीप गया तो यह फ्लैट छोड़ना पड़ेगा। अभी तो सुदीप के वेतन और अपनी पेंशन से मिलाकर काम चल जाता है। बाद में वह नितांत निराश्रित और शरणार्थी हो जाएंगे। “”मुझे पता है, पुष्प जी इस टांसफर को कैंसिल करा सकते हैं। दो-चार साल की मोहलत और मिल जाती तो मामला इस पार या उस पार हो लेता।” वीरेन्द्र बाबू का एक-एक शब्द अंतर की पीड़ा से नहाया हुआ था। शायद जिंदगी में पहली बार उन्होंने मेरे सामने अपनी झोली फैलाई थी। आश्र्वासन से पूर्व मैंने अपनी प्रश्नसूचक निगाहें सुदीप पर टिका दीं। मेरी निगाहों में टंके प्रश्न को समझ वह बोला, “”हां आंटी जी। यह टांसफर आर्डर कैंसिल करा दीजिए। यूं पहली फॉरेन पोस्ंिटग पर एक्साइटमेंट तो होता है पर मैं इस स्टेज पर नहीं जा सकता। मम्मी-पापा को न मैं अपने साथ ले जा सकता हूं और न ही यहां छोड़ना संभव है। मेरा पहला उत्तरदायित्व अपने वृद्घ और अशक्त मम्मी-पापा के प्रति है।” सुदीप मेरी निगाहों में चढ़ गया। वीरेन्द्र बाबू की आंखों में खुशियों की कंदीलें जल गईं। गर्व से गर्दन ऊंची हो गई। पालने-पोसने के सारे कष्ट सार्थक हो गए। मैंने आश्र्वासन का फूल वीरेन्द्र बाबू की झोली में डाल दिया।

नाश्ता करके मैं आराम करने के लिए लेटी तो वीरेन्द्र बाबू की विपत्तियों का एक लंबा यातनामय इतिहास मेरे सामने साकार हो गया। मैं इसकी प्रत्यक्षदर्शी थी।

सबसे पहली और गहरी चोट पहुंचायी थी सुभाष ने।

एम.ए. करके न जाने कौन-कौन से कांपीटीशन में नहीं बैठा। रोजगार समाचार का वह रामायण की तरह रोज पाठ करता। पैसे बचा-बचाकर वह अर्जियों के साथ नत्थी करता। कुछ नहीं बना। जिस दिन गवर्नमेंट सर्विस के लिए वह ओवर ऐज हुआ, एक अंतहीन उदासी के अंधे कुंए से बुरी तरह चीख पड़ा था, यहां ईमानदारी से जिंदा रहना मुश्किल है।

तीन दिन खाने-पीने की हड़ताल रही, चौथे दिन वह गायब हो गया। सात-आठ साल हो गये, उसको गये। कितना खोजा, अखबारों, टी.वी. और अन्य माध्यमों पर गुमशुदा की तलाश के विज्ञापन दिये, पर सब बेकार। पके हुए वीरेन्द्र बाबू इस आघात के विष को शिव की भांति पचा गये थे, पर साधना भाभी लगभग विक्षिप्त-सी हो गईं। एक हफ्ते के अंदर ही उनकी मांग की दाहिनी ओर के सारे बाल सफेद हो गये।

घटाटोप अंधेरे में रोशनी की फीकी किरण चमकी थी। छोटे ने बी.ए. कर लिया था। अब वह भी रामलीला ग्राउण्ड में लगे रावण के पुतले जैसा एक विशालकाय प्रश्न बनकर उनके सामने खड़ा था और पूछ रहा था, “”बाबूजी, अब मैं क्या करूं?”

“”शादी” साधना भाभी ने बहुत सोचकर, संजीदगी से यह बात कही थी।

सुदीप ने कहा कुछ नहीं, सिर्फ एक हल्का-सा ठहाका लगाया, अपने लंगड़े अनिश्र्चय को रेखांकित करने के लिए। इस पर वीरेन्द्र बाबू ने मम्मी की बीमारी की दुहाई दी तो वह सुनकर बोला, “”उसे खिलाऊंगा क्या?”

“”नौकरी मिल जाएगी” मम्मी बोलीं। उनके लिए आशावाद और निराशावाद के फासले कभी के खत्म हो चुके थे।

“”ऐसे ही जैसे भैया को मिली थी।” यह कहकर सुदीप ने जैसे घर को हिरोशिमा और नागासाकी बना दिया था। वह संभल गया और बोला, “”मैं नौकरी नहीं, बिजनेस करना चाहता हूं।”

“”तेरे बाबूजी के पास तो सिर्फ ईमानदारी की पूंजी है, मम्मी ने कहा था।”

“”उससे व्यापार नहीं किया जा सकता, सिर्फ स्वर्ग के लिए टिकट कटाई जा सकती है,” सुदीप के स्वर में बेहद तल्खी और वितृष्णा थी।

मैंने भी उसे समझाया। मां का पूरे दिन बिस्तर से चिपका रहना, बाबूजी का हर दिन रिटायरमेंट की तरफ खिसकते जाना, इन दोनों नंगी सच्चाइयों के संदर्भ में उसका विरोध उतरती बाढ़ की मानिंद ढीला पड़ गया। इसी दौरान रश्मि उसकी जिंदगी में आई और मॉं के कहने पर उसने उससे शादी कर ली। रश्मि प्राथमिक स्कूल में पढ़ाती थी और उसकी सरकारी नौकरी थी। वह महीने में पांच हजार कमाकर लाती थी।

घर में एक कमाऊं लड़की के आगमन की यह खुशी अल्पजीवी ही थी। इकलौते बेटे को सुखी देखकर, जो थोड़ा-बहुत सुख मिलता था, वही आधार बन जाता था, निराश्रित होने की अनुभूति से बचने के लिए।

थोड़ी खुशी ज्यादा गम शायद इनका नसीब था। वीरेन्द्र बाबू की तबियत बिगड़ी और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। करीब दस दिन बाद जब वीरेन्द्र बाबू डिस्चार्ज हुए तो दवाओं का पर्चा पकड़ा कर परहेज करने की विस्तृत हिदायतें देकर डॉक्टर ने बताया “”माइनर अटैक था।”

“”अब आपको अपनी सेहत का ख्याल रखना होगा।”

इन दस दिनों में वीरेन्द्र बाबू ने सुदीप की जानलेवा समस्या उसकी बेराजगारी का हल खोज लिया था। डिस्चार्ज सर्टिफिकेट को जेब में रखकर, उन्होंने डॉक्टर से प्रार्थना की कि वह उन्हें एक मेडिकल सर्टिफिकेट दें कि अब वह स्थायी रूप से सरकारी सेवा के लिए अक्षम हो गये हैं।

डॉक्टर विस्मित हो गया। कैसे देता वह ऐसा सर्टिफिकेट! वह तो अभी ठीक-ठाक थे। इस पर वीरेन्द्र बाबू ने डॉक्टर को समझाया, “”डॉक्टर साहब, मेरे रिटायरमेंट में दो साल रह गये हैं। यदि आप मुझे यह सर्टिफिकेट दे देंगे तो मैं मेडिकल ग्राउंड पर रिटायर कर दिया जाऊंगा और मेरे बेटे सुदीप को कंपनशेट ग्राउंड पर बिना कंपटीशन या एंप्लायमेंट के झंझट के सीधी नौकरी मिल जाएगी।”

काम गलत था। पर वीरेन्द्र बाबू के अतीत की कड़वी सच्चाई और उनकी उत्सर्ग की भावना ने डॉक्टर को पिघला दिया। उसने सर्टिफिकेट दे दिया। वीरेन्द्र बाबू रिटायर हो गये। बेटा नौकरी पा गया और सरकारी मकान भी उसके नाम ऐलाट हो गया। फिलहाल जिंदगी में एक स्थायित्व-सा आ गया था, यातनामय नाटक के मध्यांतर जैसा।

पर जिसने जिंदगी भर कष्टों के सहारे जीवन-यापन का ठेका ले रखा हो, उसे क्षणिक सुख भी कैसे रास आ सकता है, अंदर से खोखली हुई साधना भाभी एक दिन पक्षाघात के कारण ढह गईं। अस्पताल, डॉक्टर और दवाएं। इनके बीच घिरे वीरेन्द्र बाबू महसूस करते, जैसे वह फिर से नौकरी पर बहाल हो गये हैं, अवैतनिक। और इन तमाम आपदाओं के बीच सुदीप का तबादला, एक जबरदस्त तमाचा था उनके गाल पर, जिसे वह कुछ देर पहले मेरे सामने सहला रहे थे।

शाम को “यह’ दफ्तर से आये। मैंने बाहर लॉन में शाम की चाय लगा दी। चाय पीते हुए, मैंने उनसे वीरेन्द्र बाबू की समस्या का जिा कर दिया। वह मुस्कुराकर बोले, “”देवी जी, आजकल सरकारी नौकरी में दो काम बहुत मुश्किल हो गये हैं। नौकरी दिलवाना और टांसफर कैंसिल करवाना।”

“”हमने तो सुना है कि आप असंभव को भी संभव कर देते हैं।”

इनका अहं गुब्बारे की तरह फूल गया और यह गर्व से बोले, “”थ्रू प्रोपर चैनल सिफारिश आई है तो यह काम करना ही पड़ेगा।”

चाय पीने के बाद, यह अपने मित्र एन.के. सिंह के यहां चले गये, इसी काम के सिलसिले में। मैं लॉन में अकेली रह गई। मैंने अपनी कुर्सी हरसिंगार के वृक्ष के नीचे खिसका ली। हल्की खुनक भरी हवा बहने लगी थी।

शाम के धुंधलके पंख फैलाये चमगादड़ जैसे नीचे उतरने लगे थे। मैंने दो नंबर की तरफ देखा। अनार की झाड़ियों के पार आम के पेड़ के नीचे डेक चेयर सूनी पड़ी थी। वीरेन्द्र बाबू साधना भाभी का चैकअप करवाने के लिए डॉक्टर को बुलाने डिस्पेंसरी गये हुये थे।

तभी खट् की आवाज हुई। मेरे लॉन का गेट खुला। कुछ सकपकाया हुआ-सा सुदीप मेरे पास आ खड़ा हुआ। मैं बोली, “”रिमाइंड कराने की जरूरत नहीं है, सुदीप। अभी कुछ देर पहले…।”

“”आंटी जी, मैं यह…।”

“”काम मुश्किल है, पर उम्मीद है कि हो जाएगा।”

“”नहीं… मैं यह….” कहते-कहते वह ठिठका। वह काफी चिंतित और परेशान लग रहा था।

“”बात क्या है, सुदीप?”

“”आंटी जी, फॉरेन पोस्ंिटग बड़ी किस्मत से मिलती है। फिर नेपाल तो फ्री-पोर्ट है। विदेशी माल बड़ा सस्ता मिलता है। रश्मि कह रही थी, एक बार यह ऑर्डर कैंसिल हुआ, तो तीन साल के लिए “डिवार’ कर दिया जाऊंगा,” सुदीप ने सकुचाते हुए कहा।

“”तो..?” मैंने आश्र्चर्य से पूछा।

“”आप पापा के सुझाव पर कोई एक्शन न लें।”

मैं हत्बुद्घि, संज्ञाशून्य-सी बैठी सुदीप को बस देखती रह गई। बड़ी लिजलिजी-सी अनुभूति हुई मुझे। जिन सांपों को दूध पिलाया, वे ही डंसने चले आ रहे थे।

“”पर सुबह तो..?” उत्तेजना और निराशा की मिली-जुली अनुभूति ने मेरी अभिव्यक्ति को पंगु बना दिया था।

“”पापा के सामने और क्या कहता?”

“”तुम चले जाओगे, तो बाबूजी और मम्मी का..?”

“”आंटी जी, वही होगा जो भगवान की मर्जी होगी।”

उसका ठंडा, तटस्थ उत्तर सुनकर मैं सोचने लगी, कितने कच्चे, निराधार आधारों पर टिकी है इंसान की जिंदगी!

– पुष्पेश कुमार “पुष्प’

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