आसान सफर

बाबूजी, आखिर आप भी चले ही गये। इस चुस्त-दुरुस्त देह से लड़ते हुए आप भी हार गये। नहीं-नहीं! आप हारे नहीं बाबूजी, आप तो जीत गये। इस देह को तो आपने स्वयं ही छोड़ा होगा। अगर बात हारने वाली होती तो अम्मा के जाते ही आप भी कहीं टूट जाते। सोचा तो सभी ने यही था कि अम्मा के बाद आप स्वयं को कैसे संभाल पायेंगे? लेकिन आपने ही कहा था, इलाज करवाने में भला हमने कोई कसर छोड़ी क्या? अब ऊपर वाले की जो मर्जी हो, उसमें इनसान क्या कर सकता है?

आपने तो दूसरों को भी ढांढस दिया था। सबसे हैरानी वाली बात तो यह थी कि चौथा होते ही आपने दुकान पर जाना शुरू कर दिया था। सबने रोका था, बाबूजी, आप कुछ दिन आराम कर लेते।

आपने सभी को लगभग डपट लगाते हुए कहा था, तुम्हारी अम्मा ने भला कभी आराम करने दिया था मुझे? अब अगर इस तरह से तुम लोगों ने मुझे घर पर बिठा लिया तो देखना, वह मुझसे जरूर कहेगी, क्यों जी, मैं आपकी आंखों से ओझल क्या हुई, आप तो अपनी मनमर्जी करने लगे। यूं दुकान पर जाने से कतराने लगोगे तो गुजारा कैसे होगा? बेटों के मोहताज बनकर मत रहना जी। और फिर घर पर बैठे रहोगे तो ज़ंग लग जाएगा।

आपने उस रोज सच में हद कर दी थी बाबूजी। अम्मा के अंदाज में यह भाषण दोहरा कर सभी को लोटपोट कर दिया था। हम सभी देर तक हंसते रहे थे, लेकिन अजीब बात हुई, उस बेतहाशा हंसी के बाद जब सभी चुप हो आये तो सभी को आँखें नम थीं। कहीं अम्मा की याद सभी को रुला गई थी।

उस रोज के बाद किसी ने आपको नहीं रोका था। आप पुनः अपनी पहले वाली दिनचर्या में व्यस्त हो गये थे। सबको अच्छा ही लगा था और फिर बेटे को अपने व्यवसाय में किसी एक की जरूरत तो थी ही, जो आप पहले से निबाह रहे थे।

सच तो यह है बाबूजी, यह बिजनेस आपके बेटे राज का नहीं, बल्कि आपका था। आपने बेटे को साथ लगा दिया था। दरअसल, राज की पढ़ाई में जरा रुचि न थी, मैट्रिक में ही दो बार फेल हो गया था। यही सब देखते हुए आपने सोचा था, एक तो राज सेटल हो जाएगा, दूसरे आपको भी काम में थोड़ी मदद मिल जाएगी। कोई भी बाप शायद ऐसा ही सोच सकता है, लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। यह बदलाव जैसे अपने आप होता चला गया। राज आपकी कुर्सी पर आ बैठा था और आप राज की कुर्सी पर। यह सब कैसे हुआ, पता ही न चला।

एक बात पूछूं बाबूजी, सच-सच बताना! क्या राज का आपकी कुर्सी पर आने से आपको कुछ भी महसूस नहीं हुआ? जहां लोग आपको सलाम करते थे, वहां राज को सलाम होने लगे। आपको राज से जरा भी ईर्ष्या नहीं हुई? आप जरा भी किसी हीन भावना के शिकार नहीं हुए? आपको राज पर जरा भी क्रोध नहीं आया? थोड़ा-बहुत गुस्सा या झल्लाहट… कुछ भी नहीं।

लेकिन याद है बाबूजी, एक रोज राज आप पर किस कदर आग-बबूला हो आया था? उस रोज राव साहब इंस्पेक्शन करने आ गये तो आप राज की कुर्सी पर बैठे हुए थे। राव साहब की अब तक राज से फोन पर ही बातचीत हो पायी थी। पहली बार सामने आते ही वे आपको राज समझ बैठे थे। बिना किसी परिचय के उन्होंने कुछ दो नंबर के धंधे की बात शुरू कर दी तो आप जैसे फट ही पड़े थे।

कमाल है। फोन पर तो आप खुद ही रिरिया रहे थे। राव साहब ने भी तीर फेंका।

आप चौंके थे, लेकिन यह भी आपको समझते देर न लगी थी कि राज स्वयं ही इस काम को हाथ में लेना चाहता है।

राज के आने पर बजाय इसके कि आप उसे कुछ कहते, वह आप पर बरस पड़ा था – आखिर आपसे किसने कहा था कि आप मेरी कुर्सी पर बैठें? हो गया न कम से कम ढाई लाख का नुकसान। मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया बाबूजी कि आप कौन-सी आदर्शवादिता अपने साथ चिपकाए बैठे हैं।

बाबूजी, यह बात सबको बहुत देर बाद पता चली। आपसे तो यह बात कभी पता ही नहीं चलनी थी। एक रोज शराब के नशे में धुत्त राज ने यह बात श्रुति से कह दी थी और श्रुति के पेट में कोई बात हजम होनी आसान नहीं थी। उस रोज से आपके चेहरे पर एक थकान देखी थी मैंने। उस थकान ने आपके चेहरे पर कई आढ़ी-तिरछी लकीरें खींच दी थीं। दिन पर दिन वे लकीरें गहरी होती नजर आने लगीं थीं।

श्रुति भाभी की जुबान से लेकर जाने किस-किस की जुबान पर अब एक वाक्या रोज छूटने लगा था। बाबूजी हैं बड़े हिम्मती। इतनी उम्र होने को आई, अभी भी सुबह-सवेरे चार-पांच मील की सैर जरूर करके आते हैं। और अब तक डाइट भी पूरी है। घी-मक्खन और नॉन वेज…। यह सब बाबूजी की तारीफ में कहा जाता था या उनकी इस सारी ताकत को बर्दाश्त न कर पाने के कारण…।

हाय राम! अपने को तो सिम्पल रोटी भी हजम नहीं होती।

तुम तो धन्य हो श्रुति! दिन-रात ससुर जी की सेवा करती हो। इन नकारे लोगों की सेवा करना, भई मैं तो कभी न कर पाऊँ। जाने कितने हंसी-ठठे और तीखे नश्तर बाबूजी को सामने ही छोड़े जाने लगे थे। उम्र अपंगता तो दिलाएगी, जब उस बोझ का हम स्वांग रचने लगेंगे।

उस रोज आप दुकान पर नहीं जा सके थे। सुबह उठते ही आपने श्रुति से कहा था। बहू, रात भर नींद नहीं आयी। बेचैनी-सी बनी रही। आज दुकान पर नहीं जा पाऊँगा। डॉक्टर शुक्ला से फोन पर बात की है, तो उन्होंने कहा, शूगर और बीपी चैक करा लूँ।

कुछ काम-वाम नहीं करोगे, तो यह सब होगा ही। अब तो सैर के लिए भी नहीं निकलते। निकलते हैं तो पन्द्रह मिनट में वापस। कहीं कोई वहम की बीमारी तो नहीं हो गयी आपको कि आपके पीछे से इस घर का कुछ छूट न जाये!

हॉं बहू! लगता तो कुछ ऐसा ही है। छुटता लगता नहीं है, बल्कि छुटता देख रहा हूँ। बुढ़ापे में असहाय हो जाना, लगता है जीवन की यही एक सबसे बड़ी जलालत है। देख रहा हूँ… कोई है जो मेरे भीतर से निकल कर इस घर के एक कोने से भागता हुआ दूसरे कोने तक जा टकराता है। दीवारों से अपना सिर फोड़ता है।… बस मैं ही उसे लहूलुहान होते देख रहा हूँ।

हाय राम! जाने क्या-क्या बोले जा रहे हैं। कहीं कोई ऊपरी कसर तो नहीं हो गई इन्हें। श्रुति भाभी चिल्लाई थी।

अरी उम्र है, सठिया गये हैं। अब बर्दाश्त तो करना पड़ेगा। कहते हुए राज ने उसे समझाया था।

बाबूजी ने सब सुना था। फिर हंस पड़े थे, मन ही मन।

एक चित्रकार कोई चित्र बनाता है तो कितना सहेज कर रखता है। बरसों-बरसों तक उस चित्र से मोह बना रहता है और जब उस चित्र के पन्ने पीले पड़ने लगते हैं, रंग फीके होने लगते हैं, उस चित्र के प्रति मोह अपने आप टूटने लगता है। और एक रोज उसे फाड़ कर, तोड़-मरोड़ कर फेंक दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है। फिर एक नये चित्र की कल्पना की जाती है। यही तो जीवन की परिभाषा है।

बाबूजी आप इस जीवन का सार जान गये थे।

बिल्कुल उस पीले कागज की तरह आपको भी अग्नि के हवाले करने के लिए ले जाया जाने लगा। सभी रो रहे थे। आंसू बहा रहे थे। रूदन करने वालों में बहुओं का स्वर सबसे ऊँचा था।

गली से बाहर आने तक चार कंधे आपको सहारा दिये हुए थे। सड़क पर आते ही एक स्वर उभरा था, रुक जाइये! फ्यूनरल वैन आ रही है। इतनी गर्मी में पैदल जाएंगे क्या?

सबके चेहरों पर एक ताजगी उभर आयी। डेड-बॉडी फ्यूनरल वैन में रखते ही कुछ मर्द लोग उसमें उचक कर चढ़ गये।

फ्यूनरल वैन भाग रही थी। कुछ लोग अपनी कारों में फयूनरल वैन के पीछे भाग रहे थे। कुछ लोग स्कूटरों पर भी गये थे। शेष लोग वहीं से वापस होने का निर्णय ले बैठे थे।

बाबूजी, आप एक गाना सुना करते थे, सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है, न घोड़ा, वहॉं पैदल ही जाना है … लेकिन अब तो लगता है बाबूजी, वहां पैदल नहीं, घोड़े या गाड़ी पर ही जाना है। कितना आसान हो गया है न, अब वहॉं का सफर।

 

– विकेश निझावन

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