इतिहास और मिथक का लोकोत्सव काहिका

kahika-festivalविचित्र इतिहास, रोचक परंपराओं, जनश्रुतिओं और मिथकीय घटनाओं से भरपूर कल्लू जनपद का लोक-जीवन अपने आपमें अध्ययन व शोध का विषय है। यहॉं मनाये जाने वाले मेलों के पीछे देवी-देवता का ही कोई न कोई प्रसंग जुड़ा रहता है।

कुल्लू के एक गांव शिरढ़ में प्रतिवर्ष एक मेला लगता है, जिसे काहिका के नाम से जाना जाता है। इसे प्राचीन काल के नरमेध यज्ञ के रूप में मनाया जाता है। नरमेध यज्ञ की घटनाएँ पौराणिक युग में वर्णित मिलती हैं। उसी का जीता-जागता स्वरूप काहिका है। यह प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से लेकर शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक अर्थात् पूरे सात दिनों तक मनाया जाता है। इस समारोह में आज भी प्रतीक रूप से नरमेध यज्ञ का आयोजन किया जाता है।

काहिका उत्सव के पीछे बड़ा इतिहास है। कुल्लू जनपद के हलाण नामक गांव में वासुकी नाग का आश्रम था। इसे स्थानीय लोग बासु नाग के नाम से जानते हैं। एक दिन स्वच्छंद प्रकृति का वासुकी नाग सुन्दर युवक का भेष धारण कर मनाली के पास ही ब्यास नदी के उस पार स्थित गांव गोशाल की ओर आया। उसने वहां एक अति रूपवती युवती को देखा और उसे अपना दिल दे बैठा। युवती के अनिर्वचनीय सौंदर्य ने नागराज वासुकी को विचलित कर दिया। अंततः उसने युवती का अपहरण कर लिया और अपने आश्रम ले गया। इस घटना की सूचना युवती के परिवारजनों को भी दे दी। दोनों पति-पत्नी के रूप में रहने लगे। दिन बीतते गये। एक दिन युवती ने अपने मायके जाने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन पत्नी के प्रति तीव्र आसक्ति के कारण वह बिछोह कैसे सहता। पत्नी भी पितृगृह जाने के लिए आतुर थी। अंततः वासुकी ने गर्भवती पत्नी को आशीर्वचन देकर विदाई दी और कहा कि जाओ, तुम्हारी कोख से अठारह पुत्र होंगे। तुम मुझे यह वचन दो कि उन सभी की सेवा के साथ-साथ उनकी नित्य पूजा भी करोगी। पत्नी ने सहर्ष इस बात को स्वीकार कर पति से विदा ली।

नियत समय पर वासुकी की पत्नी ने अठारह नागपुत्रों को जन्म दिया। लोकलाज व समाज की दृष्टि से दूर रखने के लिए उसने सभी पुत्रों को मिट्टी के एक बड़े मटके, जिसे स्थानीय बोली में भान्दल कहते हैं, में बंद कर दिया। वह प्रतिदिन बच्चों को दूध पिलाती और धूपदान में पवित्र सुगंधियां जलाकर उस भान्दल की पूजा करती थी। उसने अपने मायके के लोगों को उस स्थान पर जाने से मना कर रखा था। यह ाम चलता रहा। नाग अब बड़े होने लगे। परिवारजनों को यह सारा रहस्य जानने का कौतूहल था कि आखिर इस मिट्टी के पात्र में क्या हो सकता है? आखिर क्यों इसकी पूजा होती है?

एक दिन नागों की मां किसी कारणवश बाहर गयी हुई थी, तो उसकी भावज का कई दिनों से सुप्त कौतूहल जाग उठा। उसे रहस्य जानने का स्वर्णिम अवसर मिला। भावज ने ननद के ही समान धूपदान में अग्नि डालकर अनेक प्रकार की कर्पूरादि सुगंधियॉं डालीं और साथ ही एक पात्र में दूध लेकर भान्दल के पास गयी। भूखे नागपुत्रों ने अपनी मां जानकर जैसे ही पात्र के बिल से अपने-अपने फन उठाये तो उसके हाथ से धूपदान व दूध का पात्र भय के मारे छूट गया और वह स्वयं भाग खड़ी हुई। जैसे ही आग नागों पर पड़ी तो नाग घबरा कर बाहर इधर-उधर भागे। भान्दल के अंदर उथल-पुथल मच गयी, जिसका जिधर जोर लगा वह उधर ही भागा। एक नाग सबसे पहले बिल फोड़कर बाहर निकला तो बिल उसकी गर्दन में ही लटका रहा, वह शिरघ्न कहलाया। जो नाग धुएं से बिल्कुल काला हो गया, वह काली नाग कहलाया। एक और नाग भी धुएं से धूम्रमय हो गया। यह नाग धूमल कहलाया। एक नाग की इस सारे कांड में आँख फूट गयी। अतः वह काना नाग कहलाया। काली नामक नाग, (इस नाग का संबंध संभवतः उस नाग से नहीं है, जिसका भगवान श्रीकृष्ण ने मर्दन किया था) भागते-भागते शिरढ़ नामक गांव में जा पहुँचा, जहां पर जीव नारायण का शासन था। भूखे-प्यासे काली नाग ने शिरढ़वासियों से कुछ खाने-पीने के लिए देने प्रार्थना की, लेकिन लोगों ने यह सब अपने राजा को बताना उचित समझा। जीव नारायण भांप गया कि हो न हो, यह मेरा शासन छीनने का षड्यंत्र करेगा। अतः जीव नारायण छलावे से काली नाग को गांव से कहीं दूर ले गया। काली नाग को जब वास्तविकता का पता चला तो वह ाोधित हो उठा। दोनों में भारी युद्ध हुआ। अंततः काली नाग की जीत हुई और काली नाग का इस क्षेत्र में आधिपत्य हो गया।

एक अन्य जनश्रुति के अनुसार वासुकी नाग की गोशाल गांव की उस युवती पर मात्र छाया पड़ी थी। कामेच्छा की कल्पना मात्र से युवती गर्भवती हुई और उसके अठारह नागपुत्र हुए। सभी वासुकी के मानस पुत्र थे। मानस पुत्रों की कल्पना पुराणों में भी अनेक स्थानों पर हुई है। इसी प्रसंग में काली नाग आग के शोलों से जलता-भागता विपाशा (ब्यास) नदी में गिर पड़ा और बहते-बहते ब्यास के उस ओर जाणा नामक गांव में जा पहुंचा, जहां उसकी देवता जीव नारायण से भिडंत हुई। वहीं पास के गांव अरछण्डी में उनमें द्वंद्व हुआ, जिसमें जीवनारायण मारा गया। इसी युद्ध की स्मृति संजोए वहां आज भी काली ओढ़ी नामक एक लंबा-सीधा पत्थर गड़ा हुआ है। प्राचीन कुल्लू में ओढ़ी नामक यह पत्थर किसी की स्मृति अथवा सीमा के रूप में गाड़ा जाता था।

– टेकचंद ठाकुर

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