इस रात की सुबह नहीं!

कई सालों बाद लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) नेता वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन गरज रहे हैं। जिंदा होने और मारे जाने की आशंकाओं के बीच प्रभाकरन ऐसे ही रहस्यमयी ढंग से प्रकट होते हैं और ललकार लगाने लगते हैं।

लेकिन क्या पिछली सदी के 70 के दशक से जारी तमिल आंदोलन लिट्टे की इस ललकार से कुछ हासिल कर सका है? नैतिक गर्व और स्वाभिमान के नाम पर तमिलों ने आत्मघात को भले दर्दहीन बना लिया हो, लेकिन राजनीतिक वास्तविकता यही है कि 1973 से जारी इस आंदोलन को अभी तक कोई ठोस राजनीतिक विजय हासिल नहीं हुई है। तमिलों और सिंहलियों के बीच जातीय संघर्ष श्रीलंका की आजादी के बाद से ही शुरू हो गए थे। जिस तरह हिन्दुस्तान में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव और साम्प्रदायिक दुर्भाव पैदा करने में अंग्रेजों ने एक बड़ी भूमिका निभायी थी, उसी तरह अंग्रेज श्रीलंका में भी “फूट डालो और राज करो’ के कूटनीतिक सिद्घांत को अमल में लाते हुए तमिलों और सिंहलियों के बीच जाते-जाते एक स्थायी कटुता पैदा कर गए।

गौरतलब है कि श्रीलंका भी भारत की तरह अंग्रेजों का उपनिवेश था और 1948 में उसे आजादी मिली। श्रीलंका में सिंहलियों और तमिलों की आबादी का अनुपात 80 : 20 है। लेकिन अंग्रेजों ने उपनिवेशवादी कूटनीतियों का सहारा लेते हुए जानबूझकर अपने शासन के आखिरी दौर में तमिलों को ज्यादा महत्व दिया। उन्होंने 20 प्रतिशत होने के बावजूद तमिलों को न सिर्फ प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी अपितु सेना और पुलिस में भी उन्हें उनकी आबादी के अनुपात से कहीं ज्यादा भागीदारी दी। जिस कारण तमिल आबादी में कम होते हुए भी शासन-प्रशासन के स्तर पर बेहद मजबूत रहे। इसी से सिंहलियों में तमिलों के प्रति द्वेष पैदा हुआ। उन्हें लगने लगा कि सिंहल बहुल श्रीलंका में तमिलों का नाजायज वर्चस्व कायम है, जिस कारण सामाजिक और स्थानीय राजनीतिक स्तर पर तमिल बनाम सिंहल का दौर श्रीलंका की आजादी के बाद से ही शुरू हो गया। श्रीलंका की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमाओ भंडारनायके के पति डी.बी. भंडारनायके जब श्रीलंका के पहले प्रधानमंत्री बने, तभी सिंहलियों का तमिलों के विरूद्घ आंदोलन फूट पड़ा था। जिस तरह भारत में एक बड़े समुदाय को हमेशा महात्मा गांधी को लेकर यह शिकायत रही है कि उन्होंने भारत में रहते हुए पाकिस्तान और मुसलमानों के हितों के बारे में सोचा, उसी तरह डी.बी. भंडारनायके पर भी बहुसंख्यक सिंहलियों ने इस प्रकार का दुष्प्रचार किया। जिससे उत्तेजित होकर एक बौद्घ भिक्षु ने 50 के दशक में ही देश के पहले प्रधानमंत्री की हत्या कर दी थी।

तभी तमिलों और सिंहलियों के बीच व्यापक जन-आंदोलन उभर चुका था। लेकिन 1977 में जब तमिलों को श्रीमाओ भंडारनायके ने कुछ रियायतें बरतीं, तमिल भाषा को मान्यता दी, तमिलों को फिर से सेना और प्रशासन में सुनिश्र्चित आनुपातिक जगह प्रदान की, तो लगा कि जैसे अब दशकों का यह आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा और श्रीलंका में भी शांति स्थापित हो सकेगी। लेकिन जल्द ही यह मरहम-पट्टी शांति के लिए नाकाफी साबित हुई। श्रीलंका में एक बार फिर से तमिल आंदोलन फूट पड़ा और यह आंदोलन पहले के गांधीवादी आंदोलन के मुकाबले तीखा और हिंसक आंदोलन था। इस आंदोलन के सूत्रधार कद्दावर राजनीतिक नेता नहीं बल्कि विश्र्वविद्यालय के छात्र थे जो उस जमाने में जाफना विश्र्वविद्यालय के तेज-तर्रार छात्र वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन के नेतृत्व में एकजुट हुए और सरकार व तमिल हितों के विरोधियों के विरूद्घ आत्मघात तक करने के हौसले से आंदोलन शुरू किया।

सन् 80 के दशक में तमिल आंदोलन हर गुजरते दिन के साथ खतरनाक होता गया। जिसके चलते श्रीलंका सरकार ने उन पर जबरदस्त ताकत का इस्तेमाल किया। 1981-82 में तमिलों के विरूद्घ श्रीलंका में ऐतिहासिक मारकाट मची। 10 हजार से ज्यादा तमिल मारे गए। तमिल बाहुल्य इलाकों की आर्थिक नाकेबंदी कर दी गयी। जिस कारण लाखों तमिलों के सामने तिल-तिल कर मरने की स्थिति बन गयी। जाफना प्रायद्वीप में सेना ने तमिल इलाकों को चारों तरफ से घेर कर कॉरपेट बॉम्ंिबग की। इन सबके चलते श्रीलंका में उथल-पुथल मचना और उससे भारत के तमिलनाडु में तथा दूसरे तमिल बाहुल्य इलाकों में जनााोश पैदा होना स्वाभाविक था। मद्रास श्रीलंकाई तमिलों का अस्थायी युद्घ राहत कैंप बन गया। लाखों की तादाद में तमिलों ने भागकर तमिलनाडु के विभिन्न तटवर्ती इलाकों में शरण ली और मद्रास, श्रीलंकाई तमिलों का, श्रीलंका के बाहर आंदोलन का केन्द्र बन गया।

इससे भारत सरकार का इस मामले में दखल देना रणनीतिक ही नहीं, राष्टीय राजनीति के लिए भी मजबूरी का सबब बन गया। 1986 में “ऑपरेशन फूलमाला’ के चलते नाकेबंदी से घिरे तमिलों को भारतीय वायुसेना के हवाई जहाजों ने खाद्य सामग्री के पैकेट गिराए और भारत ने श्रीलंका पर दबाव डालकर तमिलों और श्रीलंका की सरकार के बीच एक समझौता कराया। इस समझौते का सही तरीके से अमल हो, इसके लिए भारत ने अपनी सेना श्रीलंका भेजी। लेकिन कुछ ऐसी स्थितियां बनीं कि भारत की शांति सेना और तमिलों के बीच गलतफहमियां पैदा हो गयीं। जिस कारण जो भारतीय शांति सेना तमिलों की हिफाजत के लिए गई थी, वह उल्टे उन्हीं से भिड़ गयी। नतीजा यह निकला कि शांति सेना और तमिल लड़ाके आमने-सामने हो गए। श्रीलंका की सरकार ने इस रणनीतिक दांव के उल्टे पड़ने का खूब जश्न मनाया। भारतीय शांति सेना और तमिल लड़ाकों के बीच बनी युद्घ की स्थितियों ने 1100 से ज्यादा भारतीय शांति सैनिकों की जान ले ली और 3000 से ज्यादा लिट्टे के लड़ाका मारे गए। फिर भी न तो समझौते के मुताबिक भारतीय शांति सेना तमिलों को निरस्त कर सकी और न ही तमिल भारतीय शांति सेना के काबू में आए। हां, इस रणनीतिक गलती का फायदा श्रीलंका की सरकार ने जमकर उठाया। उस समय के श्रीलंकाई राष्टपति प्रेमदास ने खूब मजे लिए और तमिल लड़ाकों और भारतीय सेना को किनारे पर खड़े होकर गुत्थम-गुत्था होते देखते रहे। अंततः 1989 में भारतीय शांति सेना बहुत कुछ लुटाकर वापस लौटी और तमिल ईलम का मसला वहीं का वहीं बना रहा।

गौरतलब है कि प्रभाकरन या कोई भी तमिल विद्रोही नेता कभी भी श्रीलंका सरकार से अलग तमिल देश की मांग नहीं करता बल्कि एक अधिकतम स्वायत्त तमिल प्रांत की बात करता है। इसलिए श्रीलंका को दुनिया के दूसरे संघीय गणराज्यों को देखते हुए इस मांग से भावनाओं की हद तक व्यथित या विचलित नहीं होना चाहिए। श्रीलंका में तमिलों और सरकार के बीच तनाव की बड़ी वजह अलगाव या पृथकतावाद से कहीं ज्यादा नाक की बाल का सवाल बन गया है। इसीलिए न तो सरकार तमिलों से सहानुभूति रखते हुए स्वायत्त प्रांत का अधिकार देना चाहती है और न ही तमिल लड़ाके सरकार के समक्ष किसी भी स्तर पर झुकना चाहते हैं। यही एकमात्र कारण है जिसके चलते पिछले 4 दशकों से श्रीलंका जल रहा है और उसकी यह आग अभी भी बुझती नहीं दिखती।

 

– डॉ. एम.सी. छाबड़ा

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