एकमात्र विकल्प गांधी

संयुक्त राष्ट महासभा ने गांधी के जन्मदिन दो अक्तूबर को वैश्र्विक स्तर पर अहिंसा-दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा की है। क्या इसका सीधा मतलब यह नहीं हुआ कि गांधी को उसने आज के हिंसात्मक परिवेश में अपरिहार्य तो माना ही, अंतिम विकल्प भी माना है? क्या इसका यह भी मतलब नहीं हुआ कि बारूद की ढेर पर बैठी दुनिया को अगर कोई बचा सकता है तो वह एकमात्र गांधी की अहिंसा बचा सकती है? आतंकवाद की ़खूनी तहरीर, विभिन्न जाति-समुदायों का आपसी संघर्ष और बा़जारवाद की शोषणवादी प्रवृत्तियों ने हिंसा का जो अभिनव आलेख लिखना शुरू किया है, उसने पूरी पृथ्वी के भविष्य के सामने एक सवालिया निशान टॉंग दिया है। सांप्रदायिकता राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं की धधकती ज्वाला में घी डाल रही है। विकास और प्रगति के नाम पर जिस अंधी दौड़ का सृजन किया गया है, उसका अंतिम बिन्दु महाविनाश की गहरी खाई से झांक रहा है। स्थापित मूल्यों को अर्थहीन बना दिया गया है और वैश्र्विक स्तर पर सामाजिक संरचना विघटन को अब अपना यथार्थ मानने लगी है।

सारी नकारात्मक परिस्थितियों ने मिलकर जिस वातावरण की सृष्टि की है, उसमें हर तरफ सड़ांध है और बदबू है तथा ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे आदमी की जिन्दगी के लिए उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक कहा जा सकता है। हिंसा सिर्फ वही नहीं है जिसमें एक आदमी दूसरे आदमी का खून कर रहा है। हिंसा वह सब कुछ है जिसे आदमी ने अपनी जीवनशैली का रचनात्मक आधार बना लिया है। सहानुभूति, सहिष्णुता और सहयोग के विपरीत घृणा, विद्वेष और वर्चस्व इस बुनियाद पर खड़ी की जाने वाली उस इमारत के नाम हैं जिसके भीतर आज का आदमी अपने लिए सुरक्षात्मक उपाय तलाश कर रहा है। ऐसे में बचते सिर्फ दो ही विकल्प हैं। एक तो यह कि दौड़ते जायें और दौड़ते जायें तथा अंतिम परिणति के रूप में किसी अंधी खाई में गिरकर आत्मघात को वरण कर लें। दूसरा यह कि ठहरें और समझें कि यह अंधी दौड़ आ़िखर हमें किस दिशा की ओर लिए जा रही है और यह भी कि हम सिर्फ दौड़ते ही जाएंगे अथवा कुछ हासिल भी कर सकेंगे? अगर हासिल वही कुछ होना है जो मनुष्यता के महाविनाश का प्रसाद है तो हमें रुकना होगा, सोचना होगा और रास्ता भी बदलना होगा। निश्र्चित रूप से गांधी जिस रास्ते की ओर इशारा कर रहे हैं, हमारा गंतव्य-पथ वही है।

इसलिए यह स्वीकार करने में कोई गुरे़ज नहीं होना चाहिए कि विश्र्व-मानवता के लिए अंतिम विकल्प गांधी ही हैं। गांधी की अहिंसा सिर्फ हिंसा का विकल्प नहीं है, वह उन सारी नकारात्मक स्थितियों, परिस्थितियों और विचारों का भी विकल्प है जिसके गर्भ से हिंसा का यह दावानल प्रज्वलित हुआ है। गांधी भूख के लिए रोटी का विकल्प हैं, प्यास के लिए पानी का विकल्प हैं और हथियारवादी सोच के खिलाफ एक प्राणवान आंदोलन का विकल्प हैं। गांधी की दुनिया में “डॉलर’ की चकाचौंध भले न हो लेकिन वहॉं आत्मतुष्टि की सार्थकता तो अवश्य ही मिलेगी। वहॉं जीवन का बोध खंड-खंड न होकर समग्रता में होगा। सही अर्थों में यह समग्रता ही विकल्प है और यह समग्रता ही गांधी की भविष्य-दृष्टि है। संयुक्त राष्ट महासभा ने गांधी को सिर्फ हिंसा का विकल्प मान कर और उनकी अहिंसा को प्रतिष्ठा देकर एक गंभीर भूल यह की है कि उसने गांधी के यथार्थ को खंड-खंड देखा है। जबकि गांधी अगर हैं और उनकी कोई स्वीकृति संभव है तो वह समग्रता में ही संभव है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि आप गांधी के एक पक्ष को अपनी सुविधा के अनुसार स्वीकार करें और बाकी सब छोड़ दें। गांधी को मुकम्मल तौर पर स्वीकार करना होगा।

गांधी को स्वीकार करने का अर्थ है भारत को स्वीकार करना, भारतीय संस्कृति को स्वीकार करना और इस संस्कृति की निर्माणकर्त्ता उस ऋषि-परंपरा को स्वीकार करना जिसने एक विशिष्ट संस्कृति का निर्माण शुभ और मंगल को केन्द्र में रख कर किया है। जिसने अपनी संकल्पना में विश्र्व मानवता को “वसुधैव कुटम्बकम्’ का अभिनव संदेश दिया है। यह संस्कृति वैश्र्वीकरण की बाजारवादी और कतिपय समर्थ राष्टों की शोषणवादी व्यवस्था से अलग आदमी के लिए उस विश्र्व की संकल्पना है जहॉं वह वैचारिक मतभेदों के बावजूद एक-दूसरे के साथ सद्भाव, सहकार और सहिष्णुता की भावभूमि पर जी सकता है। पृथ्वी का जीवन, जिसमें सिर्फ मनुष्य ही नहीं है, अन्य प्राणी भी हैं और प्रकृति का संपूर्ण विस्तार भी समाहित है, एक संगति और एक तारतम्यता में एक साथ जीता है, इस संस्कृति का सबसे बड़ा सच यही है। गांधी इस सार्वभौमिक और सर्वकालिक सच के साथ खड़े हैं। उनके लिए सत्य और अहिंसा समानार्थी हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि सत्य का आधार न हो तो अहिंसा का राजमहालय नहीं खड़ा किया जा सकता। दोनों एक-दूसरे के संपूरक है। अतएव वैश्र्विक स्तर पर अगर गांधी के लिए कोई स्वीकृति बनती है तो वह सिर्फ उनकी “अहिंसा’ की नहीं हो सकती। उन्हें उनके हर पक्ष के साथ स्वीकारना होगा। हिंसा का व़जूद उत्पाद नहीं है, सहउत्पाद है। वह मानवीय इतिहास की गलत व्याख्याओं से उपजा है। हमें परिस्थितियों का विश्र्लेषण उसकी वास्तविकताओं में करना होगा। तब जो परिणाम हाथ में आएगा उसका नाम होगा गांधी!

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