एक भीगी शाम

“”महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज में । सर! पूरे तीन घंटे इंतजार किया, पर वह बूढ़ा खडूस डायरेक्टर ही नहीं आया, जो पैनल का खुदा था। काहे का खुदा, सर! मेरे लिए तो जल्लाद बन गया वह। अथॉरिटी ने मोबाइल पर बार-बार नंबर मिलाए तो हर बार स्विच ऑफ। लैंड-लाइन पर किया तो घंटियां बजती रहीं दनादन, पर किसी ने फोन नहीं उठाया। मैं तो कहती हूं सर, क्या फायदा मोबाइल रखने का जब वक्त-बेवक्त स्विच ऑफ कर दिया जाये और आप ही बताइए भाई जान, अगर उसकी जगह मैं या कोई और कैंडीडेट घड़ी भर भी लेट हो जाता तो क्या वो साहब रियायत करते?”

“”उनकी कोई बड़ी मजबूरी रही होगी नाजनीन, और हां कभी आप मुझे सर कह रही हैं, कभी भाई जान। पहले तय करिए ना कि मैं आपका सर हूं या भाई?” पर नाजनीन ने उसकी दूसरी बात को नजरअंदाज कर पहली बात को पकड़ा।

“”कोई मजबूरी नहीं रही होगी भाई जान। इन बड़े लोगों की आदत होती है हम मजबूर लोगों को सताने की… हॉं, मजबूरियॉं तो हमारी हैं सर, बुनियादी जरूरतों तक के लिए भी तरसते हैं हम। वो डायरेक्टर का बच्चा क्या जाने कि घर में बीमार शौहर और छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर गयी थी मैं! दो-चालीस का वक्त दिया गया था मुझे और अब … क्या वक्त हो रहा है, सर?”

पर नाजनीन की बात पर ध्यान दिये बिना उसने निहायत संजीदगी से कहा, “”कुछ भी हो सकता है नाजनीन, कभी भी किसी के भी साथ। जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, हमारा वायवा था और इक्जामिनर साहिब बाहर से आने वाले थे। दो घंटे लेट हो गये तो वायवा पोस्टपोन हो गया। अगले दिन पता चला कि वह हमारे कॉलेज की तरफ ही आ रहे थे कि उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया और वह ऑन द स्पॉट ही चल बसे। अब बताइए?”

“”ओह!” एक ठंडी सांस ली नाजनीन ने। बारिश जिस तेजी से आयी थी, उसी तेजी से उसकी रफ्तार भी कम होती जा रही थी और नाजनीन के मन में डर का अहसास भी मिट चला था, बल्कि उसे तो यकीन हो चला था कि यह इन्सान खुदा का भेजा हुआ कोई फरिश्ता है, जो इस बरसाती शाम में उसे बुरी बलाओं से बचाने के लिए आया है।

“”लीजिए, छावनी-चौराहा आ गया। अब बताइये किधर मुड़ना है?”

“”बस-बस-बस भाई जान! यहीं उतार दें मुझे। दो कदम ही दूर है मेरा घर। मैं चली जाऊँगी, आपका सौ बार शुिाया, सर।” “”अरे, सड़कें पानी से भरी हैं। बारिश भी पूरी तरह नहीं रुकी। कहां जाएँगी आप? मैं घर के सामने उतार देता हूँ।”

“”नहीं-नहीं आप तकलीफ न करें सर, मैं चली जाऊँगी।”

“”तकलीफ! मुझे नहीं शायद आपको होगी?”

“”मतलब?”

“”मतलब कि यह अजनबी कहीं चाय या कॉफी की मांग न कर बैठे आपसे?” कहते हुए वह मुस्कुराया।

हां, चाहती तो वह भी थी और उसकी तहजीब-तमीज भी यही कहती थी, पर क्या करे? मिडिल क्लास मुहल्ले में रहती है। किसी ने उसे कार से उतरते देख लिया तो नाहक बदनाम हो जाएगी वह। नावेद भी लाख प्यार करते हैं उससे, पर शक्की तो एक नंबर के हैं। सवालों की झड़ी लगाकर उसका जीना हराम कर देंगे।

“”मैडम! किस सोच में गुम हैं? जल्दी तय कीजिए कि यहीं उतरेंगी या घर के सामने। एक बार गाड़ी रुक गई तो राम जाने फिर स्टार्ट हो न हो।”

“”ओह सॉरी!” गाड़ी का दरवाजा खोलने को हुई तो जैसे कोई भूली बात याद आ गयी उसे।

“”भाई जान! आपका नाम? आपने बताया तो था, लेकिन शायद उस वैन के शोर में खो गया।”

“”कहीं नहीं खोया, मेरे पास ही है। मैंने अपना नाम बताया ही नहीं था नाजनीन, क्योंकि अगर मैं अपना नाम बता देता तो या तो आप मेरी पिटाई कर देतीं या चलती गाड़ी से कूद जातीं।”

“”क्यों?” हैरानी से पूछा नाजनीन ने।

“”क्योंकि…. क्योंकि मैं वही हूं, जिसे आप सौ-सौ गालियां दे रही थीं, जी भर कर कोस रही थीं। मैं ही हूं बूढ़ा खडूस डायरेक्टर शरद श्रीवास्तव….”

“”क्या… आ?” इस बरसते ठंडे मौसम में जैसे घड़ों पानी पड़ गया नाजनीन पर। शर्म से पानी-पानी होना मुहावरा पूरी तरह लागू हो गया था, इस वक्त उस पर। जी चाह रहा था झट गाड़ी का दरवाजा खोल कर खूंटा तुड़ा कर छूटे बछड़े की तरह भाग जाये। मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे उसके।

“”नाजनीन साहिबा! मैं वक्त का बहुत पाबंद हूँ… सारी दुनिया जानती है। कॉलेज जाते हुए मैं रास्ते में ही था कि घर से फोन आया कि मेरी सात साल की इकलौती बच्ची सीढ़ियों से गिर गयी है। होश में भी नहीं है। मैंने गाड़ी मोड़कर घर की ओर दौड़ाई। बच्ची और उसकी मॉं को लेकर अस्पताल पहुंचा। आप तो जानती होंगी कि शहर की हद से बाहर है यह अस्पताल। घंटे भर में उसे होश आया तो मेरी जान में जान आयी। दो ौक्चर भी हुए उसके एक हाथ में और एक पांव में। उसे तसल्ली दे कर सीधा कॉलेज की ओर दौड़ा। आप ही बताइये कैसे मोबाइल का स्चिव ऑफ न रखता। मेरा मानना है कि दुनिया की कोई भी चीज… कोई भी पाबंदी जान से ज्यादा कीमती नहीं होती। खैर! कॉलेज पहुँच कर पता चला ज्यादातर कैंडीडेट्स जा चुके थे, इसलिए इंटरव्यू हुए ही नहीं। अब नयी तारीख दी जाएगी। आप तक भी पहुंचेगी। आप इंटरव्यू के लिए पहुंच जाइएगा।”

“”मैंने तो अपने हाथों अपना स्कोप खत्म कर लिया। अब आने का कोई फायदा नहीं, सर।”

“”ऐसी बात नहीं नाजनीन, आप आएंगी इंटरव्यू के लिए… जरूर आएँगी। हो सकता है नसीब आपकी राहों में बिछा हो।”

हैरानी हुई नाजनीन को कि ऐसे ही अलफा़ज तो नावेद ने भी कहे थे, जब वह उन्हें बीमारी की हालत में छोड़कर नहीं आना चाहती थी।

“”भाई जान! सॉसी सर! मैं किन लफ्जों में माफी मांगूं आपसे? क्या-क्या वाहियात बातें नहीं कहीं मैंने।” “”वो सब तो आपने उस अनदेखे बूढ़े खूसट खडूस के लिए कहा था, इस खासे हैंडसम डाइवर के लिए नहीं”,

“”मत दोहराए उन फिजूल की बातों को। मुझे माफ कर दें, सर”, कहते हुए नाजनीन एक तरह से गिड़गिड़ाने लगी।

“”चलो माफ किया, पर दो शर्तों पर। एक तो आप इंटरव्यू के लिए फिर… फिर मतलब जो तारीख दी जाएगी, उस दिन जरूर आएंगी और दूसरी शर्त है कि आप मुझे सर नहीं भाई जान कहेंगी। बहुत मीठा लगता है आपकी जुबान से यह लफ्ज।”

एक बरसात बरस उठी नाजनीन की आँखों से। हाथ हिलाते हुए और शबनमी मुस्कान बिखेरते हुए शरद श्रीवास्तव चले गये, और उसी भीगी सांवली शाम के साये तले नाजनीन तब तक खड़ी रही, जब तक वह लाल गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हो गयी। “भाई जान’ उसके होंठों पर यह प्यारा-सा लफ्ज फूल की तरह खिल गया। कितनी कीमती सौगात दे गयी थी आज की यह भीगी शाम उसे।

– कमल कपूर

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