करवाचौथ के बदलते मायने

karwa-chouthकरवाचौथ यानी पति की लम्बी उम्र के लिए रखे जाने वाले व्रत का दिन। नारीवादी लेखिकाओं, एक्टिविस्टों और प्रगतिशील महिलाओं ने जितना उपहास इस दिन का उड़ाया है, शायद ही किसी और दिन या अवसर का उड़ाया होगा।

लेकिन इस सबके बावजूद इसे चाहें तो मध्य वर्ग का नॉस्टेलेजिया कहें या विजुअल कल्चर का असर। करवाचौथ दिनों-दिन एक मजबूत सांस्कृतिक पहचान हासिल कर रहा है। महानगरों में तो वैसे भी तमाम तरह के तिथि-त्योहारों और धार्मिक कर्मकाण्डों का मानो पुनर्रूत्थान हुआ है, लेकिन करवाचौथ महज एक धार्मिक/सांस्कृतिक कर्मकाण्ड का पुनर्रूत्थान भर नहीं है बल्कि यह हमें रिश्तों के इस छीजते दौर में इस बात की याद दिलाता है कि कोई भी समाज बिना स्त्री-पुरुष के समर्पण के संवेदनशील रिश्तों का वाहक नहीं बन सकता।

हाल के सालों में जिस तेजी से महिलाओं ने आर्थिक तरक्की की है, लगभग उससे भी ज्यादा तेजी से स्त्री-पुरुष संबंधों में अविश्र्वास का बोलबाला बढ़ा है। इसका सबूत है बहुत तेजी से बढ़ते तलाक या डाइवोर्स। राजधानी दिल्ली में हर साल लगभग 10,000 तलाक हो रहे हैं जो मुंबई और बंगलुरू के ामशः 4000 और 5000 तलाक के मामलों के साझे से भी ज्यादा हैं। लेकिन आखिर दिल्ली में ही तलाक बहुत तेजी से बढ़ रहे हों, ऐसा नहीं है। हाल के 10 सालों में केरल में तलाक के मामलों में 350 फीसदी की वृद्घि हुई है। चेन्नई में 200 फीसदी की वृद्घि हुई है। कोलकाता में 250 फीसदी की वृद्घि हुई है और पंजाब व हरियाणा में तलाक की दरों में पिछले एक दशक में 150 फीसदी का इजाफा हुआ है।

तलाक के मामलों में हो रही अंधाधुंध बढ़ोत्तरी का आलम यह है कि पारिवारिक अदालतों में मुकदमों की तादाद हाल के सालों में फौजदारी और आर्थिक अपराधों से भी ज्यादा बढ़ गई है। देश में कोई 27 लाख तलाक के मामले लंबित हैं। पारिवारिक अदालतों में तलाक के मामलों में इतनी तेजी से वृद्घि हो रही है कि गुजरात में मोबाइल अदालतों का गठन करना पड़ा है तो मध्य प्रदेश में शाम पांच बजे के बाद भी अदालतों की नई पारी लगने का सिलसिला शुरू हुआ है। केरल, तमिलनाडु और पश्र्चिम बंगाल में भी बढ़ रहे तलाक के मामलों से निपटने के वैकल्पिक न्यायिक/प्रशासनिक तरीके ढूंढे जा रहे हैं। लेकिन क्या तलाक के मामलों के जल्दी निपटारे से तलाक की समस्या का समाधान हो जाएगा? नहीं।

शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने एक फैसले में कहना पड़ा कि हिन्दू पर्सनल लॉ तलाक के मामलों को सुलझाता कम बढ़ाता ज्यादा है। दरअसल, तलाक अगर जल्दी होने लगे तो भी यह समाज में औरत और आदमी के रिश्तों में बढ़ रही दूरी से निपटने का कोई कारगर हल नहीं है। बल्कि यह तो अप्रत्यक्ष तौर पर तलाक की प्रिाया को और ज्यादा तेज बनाने का उपाम मात्र है। शायद यही वजह है कि आजकल तलाक के मामलों की सुनवाई कर रहे जज तलाक चाहने वाले पति-पत्नी को काउंसलर के पास जाने की सलाह देते हैं या इस मामले में अदालत से अंतिम फैसला हासिल करने से पहले सामाजिक व्यवस्थाओं के जरिए अपनी समस्या का हल खोजने का सुझाव देते हैं।

यह अकारण नहीं है कि काउंसलरों के पास आजकल फिजिसियनों और सर्जनों के मुकाबले काम का बोझ कहीं ज्यादा हो गया है, जैसे पहले कभी कुछ खास बीमारियों के विशेषज्ञ डॉक्टरों के क्लिनिक में लम्बी लाईन लगा करती थी, आजकल कुछ वैसे ही लम्बी लाईनें मनोचिकित्सकों और काउंसलरों के क्लिनिक में लगने लगी हैं। भले यह लाईन दिखती न हो, पर हकीकत यह है कि इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर द्वारा राजधानी दिल्ली के संबंध मामलों के काउंसलरों के बीच किए गए एक संक्षिप्त सर्वे में पाया गया है कि आजकल संबंधों की इमारत में आनेवाली दरारों को भरने वाले काउंसलरों के यहां सामान्य सिटिंग के लिए तीन-तीन महीने बाद का समय मिल रहा है। हां, इमरजेंसी की बात अलग है। आज ऐसे काउंसलरों के पास 80 और 90 दशक के मुकाबले 400 से 500 फीसदी ज्यादा काम है।

आखिर यह सब किस बात का सबूत है? यह उस कथाकथित प्रगतिशीलता और आपा-धापी की हासिल आर्थिक प्रगति का नतीजा है। कॉस्मोपॉलिटिन जैसी पत्रिकाओं द्वारा कराये जाने वाले सालाना सेक्स और सामान्य संबंधों के सर्वेक्षणों को देखकर पता चलता है कि किस तरह दिन पर दिन बिस्तर में औरत और आदमी के बीच वह पारंपरिक रिश्ता खत्म होता जा रहा है जो उन्हें एक-दूसरे के प्रति समर्पित बनाता था और अगाध प्रेम से सराबोर रखता था। ऐसे दौर में क्या पारंपरिक रिश्तों की अहमियत दर्शाने वाले प्रतीकों का कोई महत्व बचा है? विशेषज्ञों का मानना है कि न सिर्फ करवाचौथ जैसे रिश्तों में प्रगाढ़ता बढ़ाने वाले प्रतीकों का महत्व बचा है बल्कि पहले से ज्यादा बढ़ गया है। यही वजह है कि काउंसलर खुद आजकल इस तरह की गतिविधियों में हिस्सेदारी करने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों की विशेषज्ञ काउंसलर शकुन्तला आर्य कहती हैं- आज तलाक के लिए बेहद अनुकूल माहौल बन गया है। इस माहौल में करवाचौथ जैसी गतिविधियां रिश्तों में फिर से संवेदनाओं के बीज बोते हैं। इसलिए महिलाओं को करवाचौथ जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति संवेदना बचाए रखनी चाहिए। भले वह इसके पारंपरिक कर्मकाण्ड से दूर रहें। कुछ ऐसा ही मानना मुंबई के मशहूर काउंसलर रोनित बेरवाला का है उनके मुताबिक, इंडिया तेजी से बदल रहा है। जीवनशैली, खान-पान, आचार-व्यवहार ही नहीं, रिश्तों के प्रति संवेदना और आस्था भी तेजी से बदल रही है। यही वजह है कि खाओ-पीओ और ऐश करो कि जो संस्कृति रोजमर्रा की जीवनशैली का हिस्सा बन गई है, वही नजरिया रिश्तों के मामले में भी बनता जा रहा है। बढ़ते तलाक इसका सबूत हैं। पहले तलाक जैसी बीमारी सिर्फ बड़े शहरों को परेशान करती थी; लेकिन अब छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में तलाक की दर में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी हो रही है। इस तलाक के प्रति अनुकूल माहौल में करवाचौथ जैसे सांस्कृतिक पड़ाव रिश्तों के प्रति ठहरकर फिर से सोचने का मौका देते हैं। ये पड़ाव पारंपरिक रिश्तों में एक स्थायी आकर्षण व लगाव पैदा करने की पुनर्शुरूआत का जरिया भी बन सकते हैं इसलिए ऐसे पड़ावों का भरपूर लुत्फ उठाना चाहिए। बिना प्रगतिशीलता और आधुनिकता के किसी दवाब के।”

संबंध विशेषज्ञों, जजों, वकीलों और बड़े पैमाने पर तलाक के भुक्त-भोगियों द्वारा रिश्तों के प्रति समर्पण और लगाव की पहचानी गई यह कीमत करवाचौथ जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों का महत्व स्थापित करती है। हां, इस डाइवोर्स फ्रेंडली दौर में करवाचौथ के मायने जरूर बदल गए हैं। आज पति-पत्नी में आपसी विश्र्वास बना रहना, एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी का भाव, समर्पण की यही पराकाष्ठा है। इसलिए बदले हुए माहौल, बदले हुए संदर्भों के साथ करवाचौथ अब भी प्रासंगिक है।

(लेखिका स्त्री और बच्चों के मामलों की विशेषज्ञ हैं)

-वीना सुखीजा

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