कहानी – प्रायश्चित

कविता करने का नशा किसी भी मादक द्रव्य के नशे से कम नहीं होता है। यह जिस पर छा जाये, उसकी घर-गृहस्थी भी रामभरोसे रहती है। जीवनलाल भी अक्सर कवि-सम्मेलनों में जाते। उनकी कविताएँ भी खूब जमतीं। जब वे श्रृंगार-रस के मधुर गीत सुर में सुनाते, तो सैकड़ों की भीड़ में सन्नाटा पसर जाता और अचानक वंस मोर, वंस मोर का स्वर गूंजने लगता। भेंट, विदाई, पुरस्कार और लोगों की चाह सब कुछ मिलता था जीवनलाल को। भोर होते ही थैला लटकायेे कवि महोदय घर में आ जाते और आते ही खाट पर जी भर कर सोते।

जीवनलाल की आय के तीन जरिये थे- एक उनकी सरकारी अध्यापकी, थोड़ी-सी खेती और कवि सम्मेलनों में मिलने वाली विदाई। कवियों का जमघट लगा रहना, काव्य-पाठ होना, जलपान का दौर चलना और कवियित्रियों से रसभरी बातें करना उन्हें खूब भाता। बच्चे भी जलपान का मजा लूटते और कविता की कोई पंक्ति दोहरा कर वाह-वाह करते। अध्यापक होते हुए भी जीवन को अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई देखने की न तो फुर्सत ही मिलती और न ही उन्होंने उसे कभी तवज्जो दी। पत्नी कभी-कभार उनसे कहती भी कि- रीता के पापा, तुम कम से कम एक घण्टा तो इनकी पढ़ाई-लिखाई देख लिया करो। ये लोग कुछ पढ़ते भी हैं या नहीं।

जीवनलाल पत्नी की बातों को हवा में उड़ाते हुए कहते, देखो शकुन्तला, मुझे किसने देखा! मेरे पिता तो किसान थे और मैं आज यहॉं हूँ। कवि के लिए कविता से प्यार किसी पत्नी से कम नहीं होता। कविता के लिए वह रात-रात भर जागता है, उसी को अपने मन में बसाये कब सो जाता है, वह खुद ही नहीं जानता। उसे पत्नी के सौंदर्य प्रसाधन की कभी चिन्ता नहीं रहती, पर कविता-कामिनी के लिए विभिन्न अलंकरणों की खोज करने में चाहे घण्टों गुजर जायें, तो भी कोई परेशानी नहीं होती।

कवियों की सन्तानों को स्वस्थ और सुसंस्कारित वातावरण मिल जाये, तो समझो या तो पत्नी की कठिन साधना का परिणाम है या पूर्वजन्म के पुण्यों का प्रभाव! सो जीवनलाल की पत्नी न तो पढ़ी-लिखी समझ रखने वाली थी और न ही पूर्वजन्म के ही पुण्य उनके खाते में थे। बेटी तो जैसे-तैसे ससुराल में ठीक जगह पा गयी, पर रामू में राम का एक अंश भी न था। हर काम के लिए मॉं से जिद करता और दिन-दिन घर से गायब रहता। जैसे-तैसे कृपांक पाकर हाईस्कूल में उत्तीर्ण हुआ था वह। पन्द्रह की उम्र पार करते-करते रामू के भी पर उग आये थे। यद्यपि रामू का दाखिला ग्यारहवीं कक्षा में हुआ था, पर वह पढ़ाई के कारण नहीं, अपनी शरारतों के कारण अधिक जाना जाता था। वह स्वयं दादागीरी नहीं करता, पर अपने से बड़ी कक्षा के दादाओं के साथ शर्ट की कॉलर उठाकर जेब में हाथ डालकर चलना या बिना तेल लगे बालों को झटकते हुए चलने में वह खुद को सुपर समझता था। धीरे-धीरे रामू की सोसायटी अपराध की दुनिया के पहले पायदान पर पहुंच गयी, जिसे नशा कहते हैं। यूं तो नशा जीवनलाल को भी था, कविता करने का, किन्तु इसमें और उसमें जमीन-आसमान का अन्तर था। किसी स्वजन ने जीवन को एक दिन टोकते हुए कहा भी था, भाई साहब, जरा रामू की ओर भी ध्यान दे लिया करिए, कुछ गड़बड़ लगती है। पर जीवन को इतनी कहॉं फुर्सत थी कि वे इस बात को गम्भीरता से लेते।

आये दिन देर से आना, सवेरे से आवारागर्दी के लिए निकल जाना, मित्रों के साथ गुटखा-सिगरेट का चस्का करना और बात-बात में गालियों का प्रयोग करना उसकी आदत बन गयी थी। इसके अतिरिक्त अपने खर्च के लिए वह मॉं से रुपये ऐंठकर ले जाता और उन्हें धुएं में उड़ा देता। इस दिनचर्या का परिणाम यह निकला कि उसने पढ़ाई बन्द कर दी और मॉं से बोला, पापा से कहना मैं बिजनेस करूँगा, पढूँगा नहीं।

पैतृक जमीन बेचकर जीवन ने पुत्र के लिए जैसे-तैसे करके किराणे की दुकान खुलवा दी। गल्ले का व्यवसाय शुरु करा दिया, किन्तु जिसके पॉंव एक बार कुमार्ग पर बढ़ गये हों, उन्हें सुमार्ग बड़ी मुश्किल से दिखता है। सो रामू ने अधिक आवक के लोभ से लोगों को अग्रिम धन बांट दिया। धन प्राप्तकर्त्ताओं में कुछ चालाक व्यक्ति भी थे, उन्होंने रामू की आढ़त की ओर रुख ही नहीं किया। रामू कोई गुण्डा-मवाली तो था नहीं, वह तो नकल भर करता था, अतः धन जबरन वसूल करने में भी उसे अपने आकाओं को धन एवं दावत देनी पड़ी। उन्होंने किसानों से धन तो वसूल लिया, पर रामू को धेला भी नहीं मिला। अधिक कहने पर गालियां एवं घुड़की मिली, सो अलग। धीरे-धीरे आढ़त बैठ चुकी थी। रामू की पिता से धन मांगने की आदत अमरबेल की तरह फैलती जा रही थी। जीवनलाल जितना हो सका, भरसक पुत्र की मॉंग की पूर्ति करता रहा, पर जिस घड़े में सैकड़ों छेद हों, उसमें पानी कहॉं ठहरता। जीवनलाल का जीवन कर्ज के तले दबता चला गया। सारा वेतन अग्रिम कर्ज चुकाने में बैंक में ही मुजरा हो जाता।

जीवनलाल की आँखें बैठ चली थीं, उन्हें अब अपनी ही लिखावट धुंधली नजर आने लगी थी। नातिन भी ब्याह लायक हो चली थी। सोचा, फण्ड के पैसे से उसके हाथ पीले कर दूंगा, तभी मोटर साइकिल की एजेन्सी खोलने के लिए बेटे ने पिता से फण्ड में से धन देने की जिद की। पिता के मना करने पर रामू आपा खो बैठा और उसने जीवनलाल को धकियाते हुए कहा,क्या फण्ड के धन को कवियित्री-गोपियों को लुटाने के लिए रखा है आपने, या मरघट पर संग ले जाओगे, बेटे की कोई चिन्ता नहीं है। आज जीवनलाल को जीवन के कटु-सत्य की अनुभूति हो चुकी थी। वे सोचने लगे, मैंने बचपन से राम की शिक्षा-दीक्षा पर ठीक से ध्यान नहीं दिया, अन्यथा आज यह ऐसा न होता, पर अब तो तीर प्रत्यंचा से छूट चुका था। आज उन्हें अपने वे सभी कविमित्र एवं कवियित्रियां याद आने लगीं, जो अपनी सन्तानों को ध्यान से पढ़ाने-लिखाने में भी जी-जान लगाते थे। जिनके बच्चे आज पढ़-लिखकर होनहार इंसान बन गये थे।

रामू के व्यवहार ने जीवन की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक नातिन के लिए वर तलाश कर उसके हाथ पीले कर दिये तथा फण्ड की शेष राशि पुत्र की हथेली पर रखकर बोले, लो बेटा, इस तुच्छ धन के लिए तुमने मुझ पर हाथ उठाया, यह मैं तुम्हें देकर सदा-सदा के लिए घर से चला जाता हूँ। कहते-कहते जीवनलाल के हाथ पुत्र को आशीष देने हेतु सिर पर चले गये। आँखों ने जीवनलाल के चश्मे के लैंसों को भिगो दिया। जीवनलाल ने घर छोड़ दिया। घर कुछ ही दिनों में गरीबी में घिर गया। रामू की पत्नी भी अपने बेटे को लेकर मायके चली गयी।

कुछ दिनों तो जीवनलाल को अपना जीवन मूल्यहीन लगता रहा, पर अपने पाप का प्रायश्र्चित करने के लिए उन्होंने अपने नाती को पढ़ाने-लिखाने का व्रत ले लिया। अपनी पेंशन के धन से जीवनलाल ने नाती मोहन को सींचना शुरू कर दिया। समय के साथ मोहन होनहार बनकर एक श्रेष्ठ इंसान बना, पर आधा पेट खाकर जीते जीवन की सांसें थकने लगीं। मोहन अब मल्टीनेशनल कम्पनी में इंजीनियर था। जीवनलाल का जीवन मन्दिर में भगवान की सेवा में कट रहा था। मोहन ने बाबा से खर्च लेना बन्द कर दिया। समय के साथ पता लगाते रामू भी पिता से मिलने उसी मन्दिर पर आ गया, जहां उसके पिता अन्तिम सांस ले रहे थे। पुत्र को देखकर जीवनलाल ने कहा, बेटा, मैं तुझे तो ध्यान से न पढ़ा सका, पर तेरे बिट्टू को इंजीनियर बनाकर जा रहा हूं। फिर थैले में से पेंशन का चेक रामू की हथेली पर रख दिया, जिसमें दो वर्ष की पेंशन के एक लाख रुपये थे। इससे पहले कि रामू कुछ प्रायश्र्चित कर सके, जीवनलाल की सांसें हमेशा-हमेशा के लिए थम चुकी थीं।

– अखिल कुमार सिंह

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