कोऊ नृप होय हमें का हानि

badshahबादशाहों में विभिन्न बूटियों और शिलाजीत इत्यादि के सेवन के बावजूद बेऔलाद मरने का काफी चलन था। शक्की मिजाज बादशाहों को पीर-फकीरों के ताबीज और दुआएँ भी संतानसुख नहीं दे पाती थीं। पुरानी पब्लिक को यूँ तो बादशाहों का संग गॅंवारा नहीं था परन्तु उनके बिना भी उसका गुजारा नहीं था। लिहाजा सम्राट के अंतिम संस्कार से पूर्व ही नए सम्राट की ताजपोशी हो जाती थी। राजा मर गया, नया राजा चिरायु हो। किंग इज डेड, लांग लिव द किंग।

निःसंतान राजा के बाद नए राजा के चयन के तरीके काफी प्रगतिशील होते थे। राजधानी के प्रवेशद्वार से दाखिल हुए जिस अजनबी के सिर पर कबूतर बैठ जाता अथवा शाही हाथी जिसके गले में फूलमाला डाल देता था, राजपुरोहित उसका राजतिलक कर देते थे।

आजकल यही तरीका अपनाया जाए तो अरबों रुपये का चुनावी खर्चा बच सकता है। सरकारी कर्मियों को सियाचिन सरीखी सख्त ड्यूटी बजाने से निजात मिल सकती है। चुनाव आयोग को वीआरएस देकर घर बिठाया जा सकता है। रोज-रोज अविश्र्वासियों से विश्र्वास मत मॉंगने के झंझट से सदैव के लिए छुटकारा पाया जा सकता है। जिसके सिर पर लोटन कबूतर बैठ गया, वह पॉंच वर्ष के लिए प्रधानमंत्री। जिसके सिर पर गौरैया बैठ गयी, वह मंत्री। जिनके कलेजे पर सांप लोट गया, वे पॉंच साल के लिए विपक्षी। अमेरिका इत्यादि दूसरे मुल्क भी चाहें तो इस तरकीब को अपना सकते हैं। वहॉं पिछले दिनों ओबामा और मैडम हिलेरी में ऐसा घमासान मचा कि लोग समझे कि यही फाइनल है। जबकि असली फाइनल तो अभी खेला जाना बाकी है। अमेरिका वाले क्योंकि सूचना तकनीक पर ज्यादा यकीन रखते हैं, इसलिए वे बजरिए एमएमएस अपना राष्टपति चुन सकते हैं। इस चुनाव के दौरान अमेरिका बप्पी लहरी से लेकर राखी सावंत सरीखे महान पर्यवेक्षकों को अपने यहॉं बुला सकता है।

भारत में नेताओं की सघन आबादी है। अच्छा नागरिक तो यहां कोई बिरला है, अच्छे नेताओं की मंडी लगी है। यहां गली स्तर का नेता भी जीते जी राजसी ठाठ और मृत्युपरांत राजघाट के बाजू में “अपना घाट’ बनवाने की ख्वाहिश पाले है। चुनावी आहट पाकर असली मुखिया बनने की दौड़ में बैसाखियॉं थामे कई धावक मैदान में हैं। अतीत में यूपी के ज्यादातर धावक मैदान मारते रहे हैं, यह सोच बहनजी ने अपनी पुख्ता दावेदारी ठोंक दी। एक-दूसरे दल के महारथी भी मैदान में हैं। उनके भीष्म पितामह मैदान से हट गए हैं। देश में विभिन्न क्षत्रपों के अपने ख्वाब हैं। वे गठियाग्रस्त हो गए तो युवराजों की पूरी फौज बैकअप को तैयार है। दुल्हन वही जो पाठक जी दिलवाएँ। पीएम वही जो अर्जुन मन भाएँ। क्या करें, आलाकमान को चापलूसी कतई पसंद नहीं। जिनके काम-ाोध, अहंकार नष्ट हो गए वे भी खुशामद से पार नहीं पा सके। महात्माओं को पाद पुजवाने का शौक न होता तो वे गुरु को गोविन्द से बड़ा दर्जा कदापि न देते। आदमी क्योंकि खुद स्तुतिपसंद है, इसलिए ईश्र्वर को भी हाजिरीपसंद माने बैठा है। ऐसे में राजनीतिज्ञों का निंदा-स्तुति को एक समान समझना कुछ हजम नहीं होता।

कहते हैं, लंदन के वैक्स म्यूजियम में एक भारतीय नेता का मोम का पुतला रखा गया। मृत्यु के समय वह खुद उस पुतले के साथ सांस रोककर खड़ा हो गया। यमदूत आये तो चकरा गए। किसे ले जाएँ। तभी एक यमदूत को युक्ति सूझी, बोला, “हैं तो दोनों एक जैसे पर असली में जो एक खूबी थी वह इन पुतलों में कहॉं?’

“कौन-सी?’ पुतले के साथ खड़ा नेता चहका। उसे यमपाश में बांधते हुए यमदूत बोला, “यही मूर्ख कि तू अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर फूल जाता है।’ देश में नाई का बेटा नाई और हलवाई का बेटा हलवाई बनता है। राजनेता की संतान के अलावा लीडरी दूसरों के भाग्य में है ही नहीं। कोई मिरासी पुत्र को भी पूछे।

अरे दो जून की रोटी कमानी है क्या? देश ही तो चलाना है। अतीत में बीसियों हिटलर चला गए। सैकड़ों नीरो चला गए। हजारों तुगलक चला गए। विदूषक भी किसी से कम नहीं। वे तो चला ही लेंगे।

– अशोक खन्ना

You must be logged in to post a comment Login