खुद के लिए जीते लोग

living-for-own-selfइंग्लैंड में सफर के दौरान मेरी कोशिश रही कि वहॉं की जीवन शैली और भारत में जीने के तरीकों में तेजी से बदलाव के बीच के सूत्रों को समझ सकूं। इसलिए वहॉं रह रहे भारतीय परिवारों से खूब मिला। उनसे बेबात लंबी बहस छेड़ी, उनके अंदर झांकने के लिए उनके अन्तर्मन को झकझोरा और निकट रिश्तों के प्रति दायित्व की याद दिलाई। कुछ बातें सर्वत्र समान रूप से दिखाई दीं। कोई भी व्यक्ति भावनात्मक रूप से अपने परिवार की चर्चा नहीं करता। बातें घूम-फिर कर वही होती हैं- वीक एण्ड में कहॉं घूमने जा रहे हो? तुम भी चलो, मजा आएगा। कहॉं “सेल’ लगी है? कौन-सी पिक्चर देखी? कैसी लगी? डिनर लेने कहॉं गए? कैसा था? अच्छा! इतना सस्ता और लाजवाब खाना! हमें तो पता ही नहीं था। हम भी जाएंगे बर्थ-डे या मैरिज एनिवर्सरी पर, पार्टी कहॉं करें? इस बार भारत नहीं जा रहे। मॉं-बाप या सास-श्र्वसुर आ रहे हैं। भारत में कैसा रहा? क्या खरीदारी की? बच्चे टॉप नहीं रहे तो अच्छे सरकारी स्कूल में प्रवेश नहीं मिल सकेगा। प्राइवेट में प़ढ़ा नहीं सकते। बच्चे बड़े होने लगे हैं। माहौल खराब है। उनसे सहपाठी गंदी बातें करते हैं। कितने भी संस्कार और नियंत्रण दे दो, चिन्ता हमेशा रहती है। ज्यादा समय यहॉं नहीं रहेंगे। अच्छी नौकरी वहॉं मिली तो लौट जाएंगे। फिर देखो, समय आने पर ही पता लगेगा। एक और मुद्दा होता है। कैसे भी किराए के मकान की जगह खुद का घर खरीद लें या खुद का मकान है, तो उसको किराए पर उठा, उसके मोरगेज पर दूसरा मकान खरीद लें। पहले के किराए से पुराने मकान का ऋण चुका देंगे। लोग मूल ऋण नहीं चुका, ब्याज चुकाते हैं, जो भारत में आवास ऋण के ब्याज का आधा भी नहीं है। इसमें मकान का बढ़ा मूल्य प्रॉफिट होता है। बीच में ऐसी अंधी दौड़ हुई कि आय नहीं होने पर भी बैंकों ने भरपूर कर्जे यूरोप-अमेरिका में दिए। इसका बुरा असर यू.के. में भी पड़ा। कर्जे डूबे। बैंकों को कर्ज वसूली के लिए मकानों पर कब्जा कर, उन्हें बेचने की प्रिाया में शक्ति झोंकनी पड़ी।

हमारी कोशिश रही कि मॉं-बाप, भाई-बहन, ससुराल और दोस्तों की भी चर्चा हो। अपने इन दायित्वों को फौरी अन्दाज में लेने के कारण कोई खुलकर नहीं बोला। पति-पत्नी, मॉं-बाप को 4-5 वर्षों में एक बार कुछ माह के लिए बुला लेते हैं। खास तौर पर तब, जब बच्चा होने वाला हो या कि छोटा हो और नौकरी पर जाना मॉं के लिए कठिन हो रहा हो। वहॉं नौकर बहुत महॅंगे हैं। पूरी अवधि के लिए रखना असंभव है। ऐसे में निकट रिश्तेदारों को बुलाने से उनके प्रति दायित्व की भी पूर्ति हो गई और बिना वेतन घर और बच्चों की सार-संभाल भी। हमने पूछा कि कभी चिट्ठी भी लिखते हैं? एक ही जवाब था- इंटरनेट और मोबाइल के जमाने में चिट्ठी लिखना और पढ़ना दुर्लभ होता है। हर संडे टाइम फिक्स है, फोन पर बात कर लेते हैं। कोशिश करते हैं कि एक या दो वर्ष में इंडिया हो आएं। कौन-सा दोस्त कहॉं है? क्या नौकरी कर रहा है? कैसा है? इन पर चर्चाएं पारिवारिक रिश्तों से कई गुना ज्यादा होती हैं। शायद इसलिए कि ये संबंध समय बिताने या लंच और डिनर पर मिलने जैसे हैं। सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियां इन रिश्तों में नहीं हैं। हॉं, यह अवश्य देखा कि पुरुषों से अधिक महिलाएं अपने मॉं-बाप को याद करती हैं।

अब भारतीय महानगरों या बड़े शहरों की ओर लौटें। इंग्लैंड जैसे देशों में रहने वाले भारतीयों की जीवन शैली वहॉं आंधी की तरह आ रही है। मॉं-बाप सब कुछ झोंक कर उन्हें खुशहाल स्थिति में पहुँचाते हैं और वे सब कुछ पाने की छलांग में अपनी जड़ों से कट जाते हैं। जिम्मेदारियों की याद दिलाने पर कहा जाता है कि निकट परिवारजन किस काम के? उनसे तो दोस्त भले। अच्छी नौकरी लगते ही लेटेस्ट कार, मोबाइल। घर का साजो-सामान। पति-पत्नी दोनों नौकरी करें। एक के वेतन से फ्लैट की किस्तें। मॉं-बाप किराए के मकान में रहते हों, बसों में धक्के खाते हों, भाई-बहन फटेहाल जिंदगी जीते हों, बहन पैसे के अभाव में बिन ब्याही बैठी हो लेकिन पहले ये सब। नहीं तो इन्कम टैक्स लग जाएगा। इसलिए घरवालों को सलाह कि इन्वेस्टमेंट के लिए जमीन-फ्लैट देखो। ऐसे में मॉं-बाप कैसे कहें कि विपन्नता के कारण जीना भी दूभर हो रहा है। हॉं, मॉं-बाप के पास मकान या बचत हो, तो सब कुछ को “स्वाहा’ कर साथ आने का सन्देश। वहीं फ्लैट खरीद लेंगे। चुन्नू और मुन्नू आपको बहुत याद करते हैं। वहीं आ कर रह जाओ। फ्लैट खरीदने के लिए माल मिल गया और मुफ्त का नौकर। समाज में संदेश- मॉं-बाप का श्रवण कुमार है। सब कुछ ठीक है तो संदेश-वहीं रहो, यहॉं मन नहीं लगेगा। यहॉं इतनी महॅंगाई है कि इतने लोगों का रहना कठिन है। जरूरत हो तो मांग लिया करो। यों हाथ बहुत “टाइट’ है। रिश्तेदारों पर खर्चे कम करो। इतना कहॉं खर्च करते हैं? कहीं बचपन, किशोरावस्था और युवावस्था में मॉं-बाप का संघर्ष याद नहीं। यह सोच नहीं कि फटेहाल, सब कुछ होम कर इन पर दुःखों की छाया नहीं आऩे दी। हर इच्छा पूरी करने की कोशिश की। हॉं, कभी-कभी मॉं-बाप को बुलाया जाता है।

सपनों को बुनते वहॉं पहुँचते हैं तो पता लगता है कि घर और बच्चों की सार-संभाल के लिए अपनापे का स्वांग होता है या कि उन्हें बेघर कर घर खरीदने की सा़िजश। रही विवाह की बात। हर माह भारी-भरकम वेतन लाने वाली साथी चाहिए। जाति बंधन टूट रहे हैं। इंग्लैंड में रहने वालों में बिना विवाह साथ रहने की प्रवृत्ति अब भारतीय महानगरों में भी पांव पसारने लगी है। हॉं, इंग्लैंड में “पार्टनर’ के छोड़ने पर संकटकाल में जीवनयापन की जिम्मेदारी सरकार की है। मॉं-बाप द्वारा ठुकराने पर बच्चों की भी। भारत में ऐसा न होने और समाज द्वारा इसे घृणित नजर से देखे जाने के कारण ऐसी औरतों और बच्चों की स्थिति भारत में दयनीय हो जाती है। फिर भी फैशन बदलने की तरह “पार्टनर’ बदलने की प्रवृत्ति थम नहीं रही। मनुष्य और पशु में अन्तर के लिए कुछ मर्यादाएं, नियम-कानून और सामाजिक दबाव बनाए गए, पर मौका मिलते ही पशुओं-सा जीव व्यवहार उसे खींचता है, आनन्दित करता है। बचाव में वह विश्र्वगॉंव जीवन शैली की याद दिला कर कहता है कि तुम तुम्हारी तरह जिओ, मैं मेरी तरह। दूसरे की जिन्दगी में झांकना और बेबात सलाह अशिष्टता ही नहीं, आधुनिक जीवन शैली में मर्यादा उल्लंघन भी है।

– डॉ. महेन्द्र मधुप

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