गांधी होने का मतलब

भले ही आज का बौद्घिक समाज गांधी और गांधी के विचार की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करे, लेकिन बहुत गहराई में टटोलने पर लगता है कि जिन सवालों ने आज हमें घेर रखा है, उन सवालों का जवाब अगर किसी एक आदमी के पास है तो वह निश्र्चित रूप से गांधी हैं। पिछली सदी का वह सारा इतिहास जो गांधी के साथ जुड़ा है, आगामी कई सदियों तक विश्र्व मानवता को पुकारता रहेगा। इस अर्थ में गांधी एक पुकार हैं। वह पुकार जिसने मनुष्य की स्वतंत्रता और मानवीय अधिकारों के पक्ष में एक ऐसे संघर्ष की बुनियाद रखी है, जिसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। गांधी की अहिंसा अब तक के मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी जीती गई लड़ाई का नाम है। इस अहिंसा को स्थापित करने के लिए गांधी ने सत्य को प्राथमिक माना है। हमें मौजूदा वक्त में जब चारों तरफ हिंसा का नग्न तांडव दिखाई दे रहा है, तब यह सोचना होगा कि कहीं यह “सत्य’ के रास्ते से भटके जाने की वजह से तो नहीं हो रहा है? अगर किसी भी क्षण को ऐसा लगे कि हमारी बौद्घिकता अतिवाद के व्यामोह में सचमुच उस सत्य की अवहेलना कर रही है, जो नैसर्गिक है और जिसके बिना सारी उपलब्धियॉं नकारात्मक हो जाती हैं, तो यह समझना होगा कि हमने उस पुकार को अंतरिक्ष में भटकने के लिए अकेला छोड़ दिया है जो “सत्य’ के महाविस्फोट का परिणाम है। अब इस स्थिति में तय यह नहीं करना है कि गांधी प्रासंगिक रह गये हैं या नहीं। तय यह करना है कि “सत्य’ प्रासंगिक रह गया है या नहीं और उसके गर्भ से उपजी अहिंसा की उपादेयता है या नहीं।

गांधी होने का मतलब मोहनचंद करमचंद होना नहीं है। गांधी किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। वह इस देश की सनातन सांस्कृतिक चेतना और उसके स्थापित मूल्यों का नाम है। गांधी ने कुछ विशेष किया भी नहीं है। उन्होंेने अपने युग की सामयिकता को समझते हुए इन मूल्यों को अपने हिसाब से तराश कर एक नई शक्ल दे दी है। ये मूल्य स्थापित नहीं किये गये हैं। ये खो गये थे और देश की सैकड़ों साल की दासता ने इन्हें विस्मृत कर दिया था। गांधी ने जमींदो़ज हो गये उन मूल्यों को नई सामाजिकता से जोड़ कर सरोकार बना दिया। इस अर्थ में गांधी एक शोधकर्त्ता हैं जिन्होंेने “स्व’ के विच्छिन्न हो गये “तंत्र’ को एक-दूसरे से जोड़ा और विश्र्व-मानवता को यह संदेश प्रसारित किया कि स्वतंत्रता सभी मूल्यों से बड़ा मूल्य है। इस मूल्य को हासिल करने के लिए सभी मूल्यों को दॉंव पर लगाया जा सकता है।

गांधी ने यह भी माना है कि हम जितनी भी तरह की बेईमानियों की कल्पना कर सकते हैं, उनमें सबसे बड़ी बेईमानी अपने विचारों के प्रति बेईमानी होती है। उनका यह भी मानना है कि यह बेईमानी आदमी की जिन्दगी में छल-छद्म की रचना करती है। इसके चलते आदमी का व्यक्तित्व कई-कई खंडों में विभाजित हो जाता है। वह व्यक्ति नहीं रहता क्योंकि उसके पास व्यक्तित्व ही नहीं बचता। अतएव गांधी का सर्वाधिक जोर अपनी वैचारिक प्रतिबद्घता पर अडिग रहने का है। यह प्रतिबद्घता ही वास्तविक शक्ति है और इसका निर्माण आस्था और विश्र्वास से होता है तथा इसका विस्तार श्रद्घा तक जाता है। लेकिन गांधी इस विषय में भी सचेत हैं और वे नहीं चाहते कि यह आस्था दुराग्रह बन जाय और विश्र्वास अंधविश्र्वास को जन्म दे। इसलिए गांधी वैचारिक सहिष्णुता के साथ-साथ विचारों को भी निरंतर परीक्षणों के दौर से गुजारते रहने की बात करते हैं। खुद उन्होंने अपने ह़क में जो हासिल किया है वह सतत प्रयोगों की ही फलश्रुति है। सत्य तक पहुँचने के लिए उन्होंने अपने जीवन को एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला का रूप दिया और विविध प्रयोगों से गुजरने के बाद जो निष्पत्ति उनके हाथ लगी उसको उन्होंने अपनी आस्था को उपहार रूप में दे दिया। इस अर्थ में गांधी होने का एक मतलब एक ऐसी प्रयोगशाला होना है जो किसी दूसरे के सत्य को अपना सत्य तब तक स्वीकार नहीं करती, जब तक स्वयं उसे परीक्षणों के दौर से गुजार कर न देख ले।

गांधी के लिए सत्य और अहिंसा सिर्फ विचार नहीं हैं, उनकी आस्था है। इतनी प्रबल आस्था कि इसके विपरीत वह कुछ भी नहीं स्वीकार कर सकते। सही अर्थों में यह आस्था उनकी अस्मिता से जुड़ा हुआ सच है। इस सच के साथ विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके द्वारा संचालित 1921 का ़िखलाफत आंदोलन उनके सभी आंदोलनों में सबसे बड़ा माना जाता है। यह इतना बड़ा आंदोलन था कि इसके चलते ब्रिटिश सत्ता का सिंहासन डगमगा उठा था और कहा यह जा रहा था कि देश की आजादी महज कुछ कदम दूर है। इस आंदोलन को इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन तो स्वीकारा ही गया है, अब तक इसके समानांतर कोई दूसरा आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सका है। लेकिन सबको हैरत में डालते हुए गांधी ने एक बहुत छोटी और सामान्य घटना के चलते अपना यह आंदोलन वापस ले लिया था। बात बस इतनी-सी थी कि आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश में आंदोलनकारी भीड़ ने एक थाने में आग लगा दी थी जिसमें पुलिस के कई सिपाही जल मरे थे। गांधी ने इस घटना के बाद आंदोलन वापसी की घोषणा में कोई विलम्ब नहीं किया था। उनके लगभग सभी सहयोगियों ने इसके लिए उनकी कटु से कटु आलोचना की और बहुत से उनका साथ छोड़ कर चले भी गये। लेकिन गांधी अपनी आस्था पर अडिग रहे। उन्होंने कहा कि मैं हिंसा के किसी भी रूप को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि यह अकेली नहीं होती, इसके साथ असत्य भी संबद्घ होता है। इस दृष्टि से गांधी होने का एक मतलब आत्मबल की दृढ़ता भी है जिसको जन्म आस्था ही देती है।

गांधी उस प्रबल विश्र्वास का भी नाम है, जो उन्होंने स्वयं इस देश के कोटि-कोटि “जन’ को समर्पित किया था और इसे कई-कई गुणा करके देश-जन ने पुनः इसे गांधी की झोली में डाल दिया था। विलक्षण इतिहास समेटे है गांधी के विश्र्वास का यह संकल्पित-चरण। गांधी कहता है कि नमक बनाओ, सारा देश नमक बनाने में जुट जाता है। कहीं से कोई सवाल नहीं उठता कि नमक बनाने से देश को आजादी कैसे मिल जाएगी। लोग नमक बना रहे हैं और इस अभियान में अंग्रेज प्रभुओं का कोप झेलते सहर्ष जेल यात्रायें कर रहे हैं, तो इसका कारण बस इतना है कि गांधी ने कहा है तो इसे करना है। गांधी के कहने पर देश ने विदेशी वस्त्रों की होली जलायी। लोगों ने गांधी के एक आवाहन पर सरकारी नौकरियों को लात मार कर “सुराजी’ बाना धारण कर लिया। गऱज यह कि गांधी ने जब-जब जो भी देश से करने के लिए कहा, लोगों ने “भारत माता’ और “गांधी बाबा’ की जय बोलते हुए और तमाम यातनायें झेलते हुए किया। अचरज की बात यह कि किसी ने पलट कर गांधी से यह नहीं पूछा कि यह सब करने का औचित्य आ़िखर क्या है?

ऐसा करने के पीछे कारण सिर्फ यह विश्र्वास ही हो सकता है कि गांधी जो करेगा वह देश के कोटि-कोटि जन के हित में करेगा। साथ ही यह भी कि देश की अस्मिता गांधी के हाथों में सुरक्षित है। किसी कीमत पर वह देश की अस्मिता का सौदा किसी के साथ नहीं करेगा। इस अर्थ में गांधी होने का अर्थ देश के कोटि-कोटि जन की अस्मिता भी है। आज उस गांधी की प्रासंगिकता की विवेचनायें की जा रही हैं जो इस धरती पर कभी व्यक्ति बन कर जिया ही नहीं। गांधी तो इस देश की समग्र आस्था का एक संकल्पवान चरित्र है। अतएव बहस तो इस बात की होनी चाहिए कि इस देश को किसी संकल्पवान चरित्र की जरूरत है या नहीं। अथवा इस देश को किसी राष्टीय अस्मिता की जरूरत है या नहीं। अगर जरूरत है और देश को भारत बने रहना है तो गांधी से अधिक प्रासंगिक और क्या हो सकता है। वैसे भी हमें इस विषय में दो कदम आगे बढ़ कर सोचना होगा कि सिर्फ भारत ही नहीं विश्र्व मानवता को अगर अपने को प्रासंगिक बनाये रखना है तो गांधी को प्रासंगिक बनाना ही होगा। गांधी होने का एक मतलब वह भी है जो उनके बारे में पिछली सदी के सबसे बड़े वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा था। उन्होंने कहा था कि सदियों बाद गांधी को पढ़ कर लोगों को हैरत होगी कि हाड़-मांस का यह आदमी क्या कभी इसी धरती पर था?

 

– रामजी सिंह “उदयन’

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