जन-मानस के कवि तुलसीदास

“रामचरित मानस’ के माध्यम से अजर-अमर हो चुके गोस्वामी तुलसीदास पर लिखते समय यह तय करना कठिन होता है कि उनके व्यक्तित्व के किस पक्ष पर लिखा जाए और किसे विस्मृत किया जाए।

सोलहवीं शताब्दी के रचनाकारों में तुलसी के समकालीन भक्तिरस में डूबे अनेक कवि और महाकवि थे। सूरदास थे, मीरा थीं। इन सबका अपना-अपना रास्ता था, अपनी-अपनी अभिव्यक्ति थी। तुलसीदास इनमें सबसे अलग थे। तुलसीदास के जीवन की कथाएं जन-मानस में इतनी गहरी बैठी हैं कि उनका जिा करना उन प्रसंगों की पुनरावृत्ति के अलावा कुछ और नहीं होगा। इसलिए मैं तुलसीकृत तमाम साहित्य को एक तरफ रखते हुए केवल और केवल रामचरित मानस पर विचार करना चाहता हूं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना स्वयं के सुख और तुष्टि के लिए की थी। उनके जमाने में पुस्तकों के व्यावसायिक प्रकाशन और फिर रायल्टी का भी कोई प्रबंध नहीं था। रामचरित मानस लिखते समय गोस्वामी जी को भी यह अनुमान नहीं होगा कि उनकी यह रचना भारतीय जन-मानस में इतनी रच-बस जाएगी कि उसे भारतीय जन-मानस का अविभाज्य अंग मान लिया जाएगा।

रामचरित मानस मर्यादा पुरुषोत्तम राम के बहुआयामी चरित्र को रेखांकित करने वाली एक ऐसी रचना है, जिसके सतत् प्रवाह के स्पर्श से बचना कठिन ही नहीं असंभव है। आज सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तकों में “हैरी पार्टर’ का नाम लिया जाता है। हैरी पार्टर की बिाी का पूरी दुनिया में एक मजबूत प्रचार-तंत्र है फिर भी यह पुस्तक रामचरित मानस का मुकाबला नहीं कर सकती। मैं जब कक्षा पांच का छात्र था, तभी से रामचरित मानस मेरे संस्कारों में घुट्टी की तरह घोलकर पिला दी गई थी। जनवरी की हाड़ कंपा देने वाली सर्दियों में पिता की घर वापसी पर मुझे नियमित रूप से रामचरित मानस का पाठ करना पड़ता था। थके-हारे पिताजी उनींदे होते थे, इस स्थिति का लाभ लेकर अगर मैं एक-दो चौपाइयां छोड़कर आगे बढ़ने का प्रयास करता, तो वह नींद में भी मुझे टोककर छोड़ी गई चौपाइयां सुनाकर सही तरीके से पढ़ने की हिदायत देते थे।

मैं समझता हूं कि देश के हर हिस्से में टेलीविजन के जन्म लेने से पहले तक हर घर में, हर पिता अपने बच्चों को इसी तरह रामचरित मानस में दीक्षित करता था। गोस्वामी तुलसीदास की रचनाधर्मिता की इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है। भारतीय साहित्य में रामचरित मानस के मुकाबले में कई ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनकी सारगर्भिता और प्रासंगिकता को लेकर कोई भी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता। तथापि रामचरित मानस अपने समकालीन ग्रंथों में सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रभावी ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया गया। दरअसल, रामचरित मानस मात्र एक काव्य ग्रंथ ही नहीं, बल्कि यह एक पूरा का पूरा संस्कार है। जीवन-शैली है। समाज की विद्रुपताओं के विरुद्घ एक दर्पण है। रामचरित मानस का हर पात्र भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करता है। बुराई से अच्छाई के सनातन संघर्ष में लगे लोगों को संघर्षरत रहने की शक्ति रामचरित मानस से ही निर्धारित होती है। रामचरित मानस के मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने न जाने कितने लोगों को मर्यादाओं का उल्लंघन करने से रोका। कितनी कैकेयी जैसी स्त्रियों को सद्मार्ग पर चलने की शक्ति प्रदान की।

आज छः सौ साल बाद भी गोस्वामी तुलसीदास बिना किसी मार्केटिंग एजेंट के जीवित हैं। घर-घर में पढ़े जा रहे हैं। इससे बड़ी उपलब्धि किसी भी रचनाकार के लिए दूसरी कोई हो नहीं सकती। रामचरित मानस के बहाने यह भी कहा जा सकता है कि कागजों को काला करने वाले तो असंख्य लोग हैं, लेकिन सही स्याही उन्हीं लेखकों के पास है, जो गोस्वामी तुलसीदास के वंशज हैं अर्थात समाज में वे ही लेखक सहज स्वीकार्य हैं, जिन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के समाज के हित में कलम चलाई है। दुनिया में गोस्वामी तुलसीदास के छंद शास्त्र का पिछले छः सौ साल में हर युग के कवि ने अनुसरण किया। आज भी निदा फा़जली जैसे कवि “दोहा’ के जरिए ज्यादा मार्मिक और सशक्त अभिव्यक्ति कर पा रहे हैं।

कम्प्यूटर, नेट, मोबाइल और एफ.एम. रेडियो के मकड़जाल में उलझी पीढ़ी को भी रामचरित मानस के जरिए खुद को अपनी जड़ों से जुड़े रहने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा गोस्वामी तुलसीदास तो जैसे छः सौ सालों से जीवित हैं और बने रहेंगे, किंतु हम सब क्षीण हो जाएंगे।

“परहित सरस धरम नहि माई

पर पीड़ा सम नहि अधिमाई’

जैसी खरी-खरी कहने वाले अब समाज में कितने लोग हैं। तुलसीदास ने जिस रामराज्य की कल्पना की थी, उसकी स्थापना आज भी नहीं हो सकी है। जब तक देश में रामराज्य की स्थापना नहीं होती, तब तक रामचरित मानस और गोस्वामी तुलसीदास में से कोई भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता।

– राकेश अचल

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