जहॉं चाह वहॉं राह

एक बार की बात है, एक नगर में दो दोस्त रहते थे। एक अंधा था तो दूसरा गूंगा। दोनों में बहुत गहरी मित्रता थी। दोनों हमेशा साथ-साथ रहते और एक-दूसरे का सहारा बनते थे। यह कह सकते हैं कि दोनों का जीवन एक-दूसरे के सहारे ही चल रहा था। हर सुख-दुःख, परेशानी व संकट की स्थिति में वे दोनों आपस में पूरा सहयोग करते थे।

एक बार की बात है, दोनों कहीं जा रहे थे। गूंगा अपने नेत्रहीन मित्र के हाथ को अपने कंधे पर रखकर उसका मार्गदर्शन करता चला जा रहा था। सख्त गर्मी के दिन थे, चिलचिलाती हुई धूप चारों ओर फैली थी। दोनों का गर्मी के मारे बुरा हाल था, कंठ प्यास से सूखे हुए थे। अंधे व्यक्ति ने गूंगे से कहा, “”प्यारे दोस्त, बड़ी जोर की प्यास लगी है।” उस गूंगे व्यक्ति को भी ़जोर की प्यास लगी थी, उसने चारों ओर ऩजर दौड़ाकर देखा, दूर-दूर तक कहीं भी किसी मनुष्य का नामोनिशान तक नहीं दिख रहा था। बस्ती से दूर वे दोनों एक बड़े मैदान से होकर गुजर रहे थे। गूंगे व्यक्ति ने समझ लिया कि यहां कहीं जल्दी ही पानी मिल पाना असंभव है। परंतु उसके आगे अब एक नयी समस्या और उत्पन्न हो गई थी कि वह अपने नेत्रहीन मित्र को पानी न मिल पाने के बारे में बताए कैसे, क्योंकि वह बोल नहीं सकता था और उसका नेत्रहीन मित्र उसके इशारों को देख-समझ नहीं सकता था। उसे अपनी विवशता तथा असमर्थता पर बड़ा ही दुःख व ाोध आया। उसने सोचा कि काश! मेरा मित्र नेत्रहीन न होता तो कितना अच्छा होता। सो, पानी जल्द से जल्द मिल पाने के उद्देश्य से उसने अपनी चलने की गति तेज कर दी। थोड़ी देर बाद उसके नेत्रहीन मित्र ने पुनः कहा, “”भाई, क्या यहां पानी नहीं मिल सकता, मुझे बड़ी ़जोर की प्यास लगी है।” गूंगा व्यक्ति बड़ी असमंजस की स्थिति में हो गया था कि करे तो क्या करे, “”क्या विडंबना है… हम दोनों लाचार और प्यासे, हे ईश्र्वर! हम दोनों के साथ यह कैसा म़जाक है…?” उसने अपने नेत्रहीन मित्र की ओर देखा, प्यास की व्याकुलता उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप से दिख रही थी। गूंगे व्यक्ति ने अपने नेत्रहीन मित्र की पीठ को थपथपाते हुए यह समझाने का प्रयास किया कि पानी की व्यवस्था का वह पूरा प्रयास कर रहा है। सौभाग्य से वह नेत्रहीन उसके संकेत को समझ गया और बोला, “”ठीक है मित्र, कोशिश करो कि पानी की व्यवस्था जल्द से जल्द हो सके।” गूंगे व्यक्ति को बड़ी राहत मिली यह सोचकर कि उसके मित्र ने उसकी बात को समझ लिया था। उसका हौसला बढ़ा और वह तेजी से आगे बढ़ने लगा। थोड़ी ही दूर पर उसे आबादी के आसार दिखाई देने लगे। वहां लोग आते-जाते दिखाई दे रहे थे। तभी उस गूंगे व्यक्ति को अपने सामने थोड़ी ही दूरी पर एक मकान दिखाई दिया। उसकी आंखों में चमक आ गई कि अब हम दोनों की प्यास बुझ जाएगी। मकान के करीब पहुंचकर वह गूंगा व्यक्ति रुक गया और उसने द्वार पर दस्तक दी। एक बूढ़ा व्यक्ति द्वार खोलकर बाहर आया और उनके आने का कारण पूछा। वह नेत्रहीन समझ गया कि उसे अब क्या करना है, सो उसने उस बूढ़े व्यक्ति को अपनी प्यास के बारे में बताया। गूंगे मित्र ने भी सिर हिलाकर उसकी बात की हामी भरी। वह बूढ़ा सज्जन तथा नेकदिल इनसान था। वह उनकी ़जरूरत को समझ गया। वह उन दोनों को अंदर ले गया तथा कुछ मिष्ठान्न के साथ स्वच्छ शीतल जल पीने को दिया। पानी का कंठ से नीचे उतरना था कि दोनों को जैसे नवजीवन मिल गया हो। जल की शीतलता ने उनको भीतर तक तृप्त कर दिया था। वह नेत्रहीन व्यक्ति बोला, “”हमारी प्यास बुझाने वाले आप कौन सज्जन व्यक्ति हैं, मैं देख नहीं सकता, पर आपके इस उपकार का मैं जीवन भर ऋणी रहूंगा।” उस गूंगे व्यक्ति ने भी अपना प्रसन्न व संतुष्ट चेहरा दिखाते हुए बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया। बूढ़े ने मुस्कुरा कर उनके इस आभार को स्वीकार किया। थोड़ा विश्राम कर वे दोनों उस बूढ़े व्यक्ति से विदा लेकर आगे बढ़ गए।

उस गूंगे व्यक्ति ने अपने नेत्रहीन मित्र का हाथ पकड़ा और दोनों अपनी मंजिल की ओर चल दिये। वह गूंगा व्यक्ति मन में सोचने लगा कि मैं भी कितना मूर्ख हूं कि अपनी शारीरिक असमर्थता को सब कुछ समझ इससे हार मानने लगा था। मन की मजबूती और चाह की शक्ति पर मैंने भरोसा नहीं किया। जहां चाह हो, वहां राह तो निकलती ही निकलती है। यदि मैंने संकट के समय बुद्घि व धैर्य का प्रयोग नहीं किया होता तो फिर समस्या से कैसे निबटता। सच है, यदि ईश्र्वर किसी चीज से विमुख रखता है तो साथ ही साथ उसका कहीं न कहीं से कोई समाधान भी देता है।

संयोग से उसके नेत्रहीन मित्र के मन में भी वही बात घूम रही थी। वह बोला, “”मित्र, देखा तुम्हारे धैर्य व कोशिश का नतीजा। यदि हम लोगों ने अपनी शारीरिक कमी के सामने समर्पण कर दिया होता तो कैसे काम चलता? हम विकलांगों को प्रभु ने कुछ ऐसी मन की शक्तियां दी हैं, जिन्हें पहचानना हमारे लिए बहुत ़जरूरी है और इसी में हमारे – तुम्हारे जैसे व्यक्तियों के जीवन की परेशानियों का हल है। क्यों ठीक कहा न मैंने दोस्त…?”

उसके गूंगे मित्र ने मुस्कुरा कर सिर हिलाते हुए उसकी पीठ थपथपाई और अपनी सहमति व्यक्त की। दोनों के चेहरे पर अब संतुष्टि व संतोष के भाव थे और प्रसन्न मन से दोनों अपनी मंजिल की ओर सफलतापूर्वक कदम बढ़ा रहे थे। और ऐसा आखिर होता भी क्यों न, जीने की चाहत की शक्ति ने उनके अंदर विश्र्वास व उत्साह का जोश जो भर दिया था।

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