तिरंगा : राष्टीय एकता का प्रतीक

1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम से भारतवासियों की राष्टीय-भावना में तीव्रता आई। यह युद्घ अलग-अलग झंडों के नीचे लड़ा गया था, परंतु सबने एक गीत को झंडा-गीत के रूप में अपनाया था। यह गीत था-

हिन्दू, मुसलमान, सिख हमारा,

भाई-भाई प्यारा,

यह है झंडा आजादी का,

इसे सलाम हमारा।

यद्यपि हमारी क्रांति को कुचल दिया गया, परंतु एकजुटता के प्रतीक के रूप में एक राष्टीय झंडे की जरूरत महसूस की जाने लगी और राष्टीय झंडे की खोज शुरू की गई।

समस्त भारत के लिए एक राष्टीय-ध्वज की परिकल्पना सबसे पहले स्वामी विवेकानंद की आयरलैंडवासी शिष्या सिस्टर निवेदिता ने की। उन्होंने 1905 में एक झंडा बनाया, जिस पर इंद्र देवता के शस्त्र “वा’ का चिह्न अंकित था। हालांकि सर जगदीशचंद्र बोस सहित अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने इस झंडे को अपनी स्वीकृति दे दी, परंतु यह लोकप्रिय नहीं हो सका। 7 अगस्त, 1906 को कोलकाता के पारसी बागान स्क्वेयर ग्रीवर पार्क में एक विशाल रैली आयोजित की गई, जहां पहली बार एक तिरंगा झंडा फहराया गया। 26 दिसम्बर, 1906 की कोलकाता कांग्रेस में भी यह झंडा फहराया गया। इस अधिवेशन में भाग लेने वाले 1600 से अधिक प्रतिनिधियों के लिए बैज भी तिरंगे रंग के बनाए गए थे। इस कॉनेंस में सिस्टर निवेदिता के झंडे को भी प्रदर्शित किया गया था।

सारे देश का एक ही राष्टीय ध्वज हो, इस पर विचार न केवल देश में रहने वाले भारतीयों, बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों के मन में भी पनप रहे थे। भारत के राष्टीय-झंडे के इतिहास में मैडम कामा का नाम उल्लेखनीय है। जर्मनी के स्टुटगार्ट में आयोजित द्वितीय अंतर्राष्टीय सोशलिस्ट कान्फ्रेंस में विभिन्न देशों के एकत्र हजारों प्रतिनिधियों के समक्ष 22 अगस्त, 1907 को मैडम भिकाजी रुस्तम के.आर. कामा ने अपने जोशीले और भावपूर्ण भाषण से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया और भाषण के अंत में उन्होंने हरा, सुनहरा और लाल रंग वाला एक तिरंगा झंडा फहराया। वे किसी अंतर्राष्टीय संगठन में भारत का झंडा फहराने वाली प्रथम भारतीय थीं। इस झंडे में तीन चौड़ी पट्टियां थीं। सबसे ऊपर हरे रंग की, जिसे मुसलमान पवित्र मानते हैं, बीच की पट्टी सुनहरे भगवा रंग की, जिसे बौद्घ और सिख पवित्र मानते हैं और नीचे की तीसरी पट्टी लाल रंग की थी, जिसे हिन्दू पवित्र मानते हैं। ब्रिटिश इंडिया के आठ प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते हुए, एक कतार में झंडे की हरी पट्टी में आठ कमल थे। बीच की सुनहरी पीली पट्टी पर देवनागरी लिपि में “वंदे मातरम्’ अंकित था। नीचे की लाल पट्टी पर एक तरफ एक “सूर्य’ और डंडे के पास “अर्द्घ चंद्र’ अंकित था।

24 नवम्बर, 1908 को लंदन के इंडिया हाउस की एक रविवारीय सभा को संबोधित करते हुए, उन्होंने सिल्क और सुनहरे गोटे से बना हुआ एक झंडा प्रदर्शित किया। प्रथम विश्र्व युद्घ आरंभ होने के बाद भारतीय ाांतिकारियों ने बर्लिन में जो भारतीय स्वतंत्रता समिति बनाई, उसमें मैडम कामा के झंडे में थोड़ा परिवर्तन करके अपने झंडे का निर्माण किया। अमेरिका में स्थापित गदर पार्टी ने भी तिरंगे को अपने राष्टीय-झंडे के रूप में मान्यता दी। इसमें ऊपर से नीचे हरी, पीली और लाल धारियां थीं और इसके बीच में प्रतीक के रूप में एक-दूसरे पर तिरछी-आड़ी दो तलवारें बनी थीं। स्वतंत्रता-संघर्ष के प्रारंभिक वर्षों में भारतीय ाांतिकारियों ने अमेरिका, जर्मनी और मेसोपोटामिया में व्यापक रूप से इस तिरंगे का उपयोग किया था।

नवम्बर, 1909 में सिस्टर निवेदिता ने “मार्डन रिव्यू’ में अपने एक लेख में भारत के राष्टीय-ध्वज की एक और रूपरेखा प्रस्तुत की। इसमें भारत की आध्यात्मिक शक्ति के प्रतीक के रूप में वा और एक कमल पुष्प अंकित था। वर्ष 1912 से 1917 तक देश के राजनीतिक क्षेत्र में किसी भी झंडे का आस्तत्व नहीं रह गया था। प्रथम विश्र्व युद्घ के बाद एक झंडे की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।

डॉ. एनी बेसेंट के नेतृत्व में 1916 में स्थापित होमरूल लीग ने एक झंडे की रूपरेखा तय की। इसमें पांच लाल और चार हरी समतल पट्टियां थीं। इसमें सप्तऋषियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सात तारे बने थे। इसकी बायीं ओर ऊपर के चौथाई हिस्से में “यूनियन जैक’ तथा दाहिनी तरफ के ऊपरी चौथाई हिस्से में “अर्द्घ चंद्र’ तथा “सूर्य’ की आकृति थी। जुलाई, 1917 में कोयम्बटूर के आलेकॉट कॉलेज में अपनी नजरबंदी के दौरान डॉ. एनी बेसेंट ने 48 फुट ऊंचे डंडे पर अपना लाल और हरा झंडा फहराया और भारत की आजादी का प्रतीक मानकर उसको सलामी दी।

गांधी जी ने अप्रैल, 1921 में बेजवाड़ा (विजयवाड़ा) में होने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में वेंकय्या को बुलाया और उनसे एक ऐसा झंडा बनाने का अनुरोध किया, जिसमें लाल (हिन्दुओं का प्रतीक) और हरे (मुसलमानों का) रंग पर एक चरखा अंकित हो। गांधीजी ने देश की तत्कालीन राजनीति को ध्यान में रखते हुए भारत के राष्टीय झंडे के लिए सफेद, हरा और लाल तीन रंगों का चुनाव किया। सन् 1921 की अहमदाबाद कांग्रेस में पहली बार यह झंडा फहराया गया। धीरे-धीरे यह कांग्रेस का प्रतीक बन गया और स्वराज झंडे, गांधी झंडे, चरखा झंडे व कांग्रेस झंडे आदि के नाम से प्रसिद्घ हो गया। असहयोग आंदोलन में चरखा झंडे को धीरे-धीरे लोकप्रियता प्राप्त हुई। वर्ष 1924 में उत्तर प्रदेश के स्वाधीनता सेनानी, श्री श्यामलाल गुप्त ने “विजयी विश्र्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’ नामक झंडा-गीत की रचना की और इसे कानपुर कांफ्रेंस में पहली बार गाया गया। इस गीत को ध्वज-वंदना की मान्यता प्राप्त हुई।

कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 31 दिसम्बर, 1929 को रावी के तट पर इसी झंडे को फहराया गया था। इसी झंडे के नीचे 26 जनवरी, 1930 को हजारों भारतवासियों ने यह प्रतीज्ञा की कि ब्रिटिश शासन की अधीनता स्वीकार करना मनुष्य और ईश्र्वर के प्रति अपराध है। 2 अप्रैल, 1931 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की करांची बैठक में एक “झंडा समिति’ गठित की गई। इस समिति ने जिस नये डिजाइन की सिफारिश की, उसके आधार पर भारतीय राष्टीय कांग्रेस के झंडे का जन्म हुआ। इसका रंग विधान था- ऊपर भगवा, बीच में सफेद और सफेद के नीचे हरा। बीच की पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग का चरखा अंकित था। इसके बाद 30 अगस्त, 1931 में देश भर में नया झंडा फहराकर झंडा-दिवस मनाया गया।

सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में इंडियन नेशनल आर्मी ने जो झंडा अपनाया था, वह चरखे को छोड़कर हू-ब-हू ऐसा ही था। 1942 में “अंग्रेजों भारत छोड़ो’ तथा “करो या मरो’ का नारा बुलंद था। अरुणा आसफ अली ने गोवलिया टैंक मैदान (अगस्त ाांति मैदान) में झंडा फहराया। अंग्रेज पुलिस ने लाठियां और गोलियां चलाईं, लेकिन सत्याग्रहियों ने झंडे को झुकने नहीं दिया। 23 जून, 1947 को स्वतंत्र भारत के राष्टीय-ध्वज के विषय में सुझाव देने के लिए एक अस्थायी समिति गठित की गई। 22 जुलाई को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत के राष्टीय- ध्वज के दो नमूने प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत का राष्टीय-ध्वज समतल तिरंगा होगा। इसमें केसरिया, सफेद तथा हरा रंग बराबर के अनुपात में रहेंगे। सफेद पट्टी के मध्य में चरखे का प्रतिनिधित्व करने के लिए गहरे नीले रंग में एक चा अंकित रहेगा। इसका डिजाइन सारनाथ के सिंह वाले अशोक स्तम्भ के चा का होगा। चा का व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर रहेगा। झंडे की लंबाई से चौड़ाई का अनुपात सामान्य दो तिहाई होगा। 15 अगस्त, 1947 को प्रातःकाल 10.30 बजे वायसराय भवन (26 जनवरी, 1950 को राष्टपति भवन नामकरण किया गया) में शपथ-ग्रहण समारोह संपन्न हुआ। काउंसिल हाउस पर स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया गया। उसी समय ग्रेट प्ले (विजय चौक) पर फहर रहे चारों यूनियन जैक (दो नार्थ ब्लॉक पर से और दो साउथ ब्लॉक पर से) उतार दिए गए और उनकी जगह पर तिरंगे फहरा दिए गए। 15 अगस्त, 1947 की दोपहर को देश का सबसे पहला ध्वजारोहण-समारोह इंडिया गेट के पास बार मेमोरियल पिं्रसिस पार्क में आयोजित किया गया था। उस दिन सारे देश में जगह-जगह ध्वजारोहण समारोह आयोजित किए गए थे। कई भूतपूर्व राजा-महाराजाओं ने भी अपनी-अपनी रियासतों में तिरंगा फहराया था। इतना ही नहीं, विदेशों में भी तिरंगा फहराया गया।

15 अगस्त के दिन राष्टीय नेता दूसरे अन्य राष्टीय समारोहों में व्यस्त थे। इस कारण लाल किले की प्राचीर पर पहली बार तिरंगा 16 अगस्त को 8 बजकर 30 मिनट पर ही फहराया जा सका। इस दिन लाल किले की प्राचीर से भाषण देते समय पं. जवाहरलाल नेहरू ने सुभाषचंद्र बोस को याद करते हुए कहा था कि आज नेताजी का सपना साकार हुआ। राष्टीय-ध्वज के उपयोग को लेकर 22 सितम्बर, 1995 को दिल्ली हाईकोर्ट ने श्री नवीन जिन्दल बनाम भारत सरकार के केस पर एक ऐतिहासिक निर्णय दिया था, इसके अनुसार राष्टीय ध्वज अब हम सबका है और इसे देश का कोई भी नागरिक, नियमानुसार सम्मान सहित अपने घर, मकान, दुकान या फैक्टी पर फहरा सकता है। इससे पूर्व भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा प्रकाशित ध्वज संहिता के अनुसार केवल कुछ सरकारी व राजकीय व्यक्ति ही इसे अपने राजकीय कार्यालय व निवास स्थान पर फहरा सकते थे।

भारतीय ध्वज संहिता 2002, सभी संबंधित लोगों के मार्गदर्शन और लाभ के लिए इस प्रकार के सभी कानूनों, परंपराओं, प्रथाओं और दिशा-निर्देशों को साथ लाने का एक प्रयास है। ध्वज संहिता-भारत का स्थान 26 जनवरी, 2002 से भारतीय ध्वज संहिता, 2002 ने ले लिया है। भारतीय ध्वज संहिता में दी गई व्यवस्था के अनुसार आम नागरिकों, निजी संस्थाओं, शिक्षण संस्थाओं द्वारा राष्टीय-ध्वज का प्रदर्शन करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, परंतु राजचिह्न और नामों के (दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1950 और राष्टीय प्रतिष्ठा के अनादर की रोकथाम संबंधी अधिनियम 1971 तथा इस विषय से संबंधित अन्य कानूनों में दी गई व्यवस्थाओं का पालन करना होगा। पहले अधिनियम के अनुसार कोई भी व्यक्ति राष्टीय-ध्वज का व्यावसायिक ढंग से प्रयोग नहीं कर सकता। दूसरे नियम के अनुसार यदि कोई व्यक्ति राष्टीय ध्वज को सार्वजनिक स्थल पर या लोगों के सामने जलाता, फाड़ता या टुकड़े करता है या फिर रौंदता है या उसके विषय में अपशब्द कहता है या लिखता है, तो वह दंड का भागी होगा।

हमारे राष्टीय-ध्वज का इतिहास वास्तव में आजादी की लड़ाई का इतिहास ही है। इस ध्वज का जन्म हमें गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए हुआ था। विश्र्व के अनेक झंडों की तुलना में हमारा यह ध्वज सच्चे रूप से गणतंत्रीय है, जिसे आस्था और विश्र्वास के ताने-बाने से बुना गया है, इसकी आस्था शुद्घ रूप से धर्मनिरपेक्ष है। यह भाषा व जाति से ऊपर है। यह न तो किसी राजनीतिक गुट और न ही किसी धर्म से जुड़ा है। यह तो हम सबका है, पूरे राष्ट का है।

– राकेश शर्मा “निशीथ’

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