धूप में यारो कंकर पत्थर सोब चमकते रहते हैं

धूप में यारो कंकर पत्थर सोब चमकते रहते हैं

अंधियारे में चमक दिखाने वाला असली हीरा है

दूसरे के कांधे पो चढ़ को मईं कित्ता उछला तो क्या

ऊंचा अदमी फ़र्श के ऊपर बैठा भी तो ऊँचा है

सिराज शोलापुरी (सोलापुरी) की यह पंक्तियॉं पढ़ते हुए निश्र्चित ही हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि कितने ऐसे लोग हैं, जो अंधेरे में चमकने वालों को देख पाते हैं, आजकल तो पूछ उन्हीं की होती है, जो अपने आपको धूप में कंकर-पत्थर की तरह चमकाने की कोशिश करते हैं, लेकिन कवि है कि अब भी अंधियारे में चमक दिखाने वाले असली हीरे की तलाश में है। वह खुद भी चाहता है कि अंधकार में रोशनी की शमा जलाए।

दिलावर-सा है फ़न मुझ में ना अकबर-सी महारत है

मैं ये दावा नहीं करता कि मैंने शायरी की है

मगर देखा जहां जब भी बुराई के अँधेरे को

म़िजाह व तंज की शमा जला कर रोशनी की है

युवा शायर सिराज विगत एक दशक से अधिक समय से उर्दू और दक्खिनी की हास्य- व्यंग्य कविता के मंच पर अपनी जोरदार उपस्थिति रखते हैं। सिराज को पहली बार शायद जिन्दा दिलान हैदराबाद के मुशायरे में सुना था। उन्हें सुनकर ऐसा लगा कि वे केवल हंसाने के उद्देश्य से शायरी नहीं करते, बल्कि कविता के पीछे एक अच्छे कवि की जो भावना छुपी होती है, वह उनके पास मौजूद है। हालांकि उनके पास भी राजनीति एवं राजनीतिज्ञों पर व्यंग्य की भरमार है, लेकिन सामाजिक विषय भी अपनी खास जगह रखते हैं।

कवि देखता है कि समाज में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही धर्म के नाम पर खूब कमा रहे हैं और देश में दूसरी ओर रामू और रम़जानी दोनों भूखे मर रहे हैं। महंगाई इतनी बढ़ गयी है कि ़गरीब आदमी अपने बच्चों को गुढधानी देकर संतुष्ट कराने के लिए मजबूर है। उसे पानी भी खरीद कर पीना पड़ता है।

आज भी ऐसी बस्तियॉं मेरे शहर के आ़जू बा़जू हैं

जॉं पे बिकरा दो रुपये में एक बकीट पानी भी

बारा महीने चटनी रोटी खाको जी रई जनता ये

लीडर लेकिन रो़ज उड़ारइँ मछली भी बिरयानी भी

सुन्ने चांदी जैसे छोरियॉं अपने घर में वैसिच हैं

सौकारां की बिकरई यारो लंगड़ी भी और कानी भी

सिराज सोलापुरी ने सामाजिक मुद्दों पर हास्य पैदा करने के लिए अधिकतर ऩज्मों का सहारा लिया है। “ऩज्म मिस्टेक के मौलाना’ का खाका खींचते हुए, उन्होंने बड़ी दिलचस्प बात कही है। टी. वी. के सौ चैनल देखने के बाद मौलाना दुकानदार से फोन करके शिकायत करते हैं कि टी. वी. चित्र तो ठीक आते हैं, अभिनेताओं का अभिनय भी ठीक है, लेकिन उस पर जो लड़कियॉं आती हैं, उनके शरीर पर वस्त्र बहुत कम ऩजर आता है। मौलाना समझते हैं कि यह टी.वी. की ही कोई तकनीकी खराबी होगी। यह सुनकर दुकानदार कुछ यूँ कहता है

बोला दुकानदार कि अब क्या बताएँ हम

ये बात बताते हुए होता है हमें गम

टी. वी. हमारा हो नहीं सकता कभी ़खराब

मिस्टेक दौरे नौ के हया की है ये जनाब

कवि देखता है कि गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर। शांति के संदेशवाहक बनने वालों का यह हाल है कि वे पी़डितों को तसल्ली दे रहे हैं और अत्याचारियों को आश्रय मिल रहा है। अपने दर्द को दक्खनी के विशेष अंदा़ज में सिराज कुछ यूँ पेश करते हैं-

लिखने वाला क्या लिखा मेरा मुकद्दर देख बा

सिर पो सूरज पाऊँ में छाले दिल पो पत्थर देख बा

हॅंसते हॅंसते दर्द की आँधी दिलों में रख को हैं

सुक्के आँख्या में छुपे सो है समन्दर देख बा

जिन्दगी जहरीले सांपों को पकडने दौड़रई

उसको बिच्छू का भी नई आता सो मन्तर देख बा

सिराज सोलापुरी का जन्म 1966 में महाराष्ट के शहर सोलापुर में हुआ। हालांकि वो शायरी के प्रति रुचि बचपने से ही रखते थे, लेकिन लगभग 30 वर्ष की आयु में उन्होंने 1996 में मंचों पर ़कदम रखा और आज देश भर में हास्य व्यंग्य के मंचों पर उन्हें सुना जाता है। हास्य के साथ-साथ गंभीर कविता में भी उन्होंने अपनी बात रखी है। बहरहाल वे खुशी का इन्ते़जार घर बैठकर करने के बजाय उसकी तलाश में बाहर निकलना बेहतर समझते हैं-

कहॉं मुमकिन है घर बैठे जो हम चाहे सो मिल जाए

किसी की चाह में हर व़क्त दरवा़जे पर मत रहना

गमों की भीड़ में से अब हमीं को ढ़ूंढ़ लाना है

खुशी खुद आएगी घर तक इस अंदा़जे पे मत रहना

– एफ. एम. सलीम

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