नगर सेवक

आधी रात के बाद से ही बेनी प्रसाद के तिमंजिले से रहमत मंजिल पर ऩजर रखी जा रही है। हालॉंकि पुलिस ने इस बात को गुप्त रखा है, लेकिन बेनी प्रसाद को सुराग लग गया है कि रहमत मंजिल में आतंकवादी छिपे हैं। इसलिए बार-बार वे स्वयं से प्रश्र्न्न कर रहे हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है? … बचपन से ही अली उनके साथ खेला-पला। मरने-जीने का साथ रहा है, इस परिवार से। हर तरह के सामाजिक कार्य में बढ़कर हिस्सा लेने वाला परिवार रहा यह। क्या लोगों की धारणाएं सही हैं कि इस कौम पर… भगवान करे, ऐसा न हो।

पुलिस ने जांच-परख लिया है। रहमत मंजिल के पास से रात देर गए ऐसी कारों को पाया गया, जिनमें से दो पर डुप्लीकेट नम्बर लगाये गये हैं और एक कार पर नम्बर प्लेट ही नहीं है। पुलिस को दी गयी सूचना के मुताबिक सात जगहों पर बमबारी की बात कही गयी है, लेकिन यह भी आग्रह किया गया है कि सुबह पॉंच बजे से पहले कोई कार्यवाही न की जाये वरना जेहादी अपनी योजना बदल देंगे और फिर हाथ नहीं आएँगे। सूचना की सत्यता एक जगह प्लांटेड बम से जाहिर हो चुकी है जिसको खुफिया तौर से नष्ट कर दिया गया है।

निर्धारित समय पर सुरक्षा बलों ने रहमत मंजिल को घेर लिया, पूरी नाकाबंदी कर दी गयी और आतंकवादियों ने आत्म-समर्पण करने की उद्घोषणा की, लेकिन रहमत मंजिल से कोई प्रतििाया नहीं हुई। एक समय- सीमा के बाद सुरक्षा बलों ने रहमत मंजिल में दाखिल होने की योजना बना ली। चारों ओर ऊपर-नीचे हर तरफ ग्रिल होने के कारण उसमें प्रवेश कर पाना आसान न था। मुख्य-द्वार को तोड़कर सुरक्षा बल ज्यों ही अंदर पहुँचे तो उनके आश्र्चर्य की सीमा न रही। आधुनिक शस्त्रों से लैस आतंकवादी जहॉं-तहॉं ढेर हुए पड़े थे। उनके आस-पास पाउच, बैग्स आदि में दर्जनों शक्तिशाली बम पड़े थे। कुछ आतंकवादी पुलिस की वर्दियों में थे। उनमें सांसों का संचार होता नजर आया तो उन्हें भारी पुलिस बंदोबस्त के साथ अस्पताल में भेज दिया गया। उनमें से एक युवक को मानव-बम के रूप में पाया गया, जिसके तावीज और बेल्ट में विस्फोटकों को ढाला गया था, उसके जूते, घड़ी आदि में सब जगह विस्फोटक थे, जो किसी एक संचार-प्रणाली से जुड़े थे। इन सबका धातुसूचक उपकरणों से पता लगाना मुश्किल था, चॉकलेट के रेपरों में चॉकलेट के आकार के एक विस्फोटक के माध्यम से वह पकड़ाई में आ गया। पता लगते ही उसके बदन से एक-एक कर सभी विस्फोटकों को निकाल कर नष्ट कर दिया गया और उसे भी अस्पताल भेज दिया गया। रहमत मंजिल के एक कमरे से भारी मात्रा में आरडीएक्स और ढेरों शस्त्र बरामद किये गये। इनकी पैकिंग से अंदाज लगाया जा सकता है कि या तो वे कहीं से अभी आये होंगे या उन्हें कहीं भेजा जा रहा होगा। ये सभी ग्रोसरी आइटम्स की पैकिंग्स में बरामद हुए। इसके अतिरिक्त एक टांसमीटर भी बरामद हुआ। रहमत मंजिल को पूरी तरह से कब्जे में ले लिया गया। तहकीकात अभी जारी है।

हिरासत में लिए गये सभी लोगों का उपचार चल रहा है और वे सब खतरे से बाहर हैं। तलाशी के दौरान एक व्यक्ति के पास से महत्वपूर्ण सूचना मिली और वह होश में आ चुका है। पुलिस ने उससे पूछताछ की। यह व्यक्ति और कोई नहीं रहमत मंजिल के मालिक खुद अलीखान हैं।

कुछ ही देर में मीडिया उमड़ पड़ा। अलीखान ने रहमत मंजिल के उस रहस्य को उजागर कर दिया, जिसका हमें इंतजार था-

“”रहमत मंजिल मेरे दादा की निशानी है, सिर्फ यही नहीं, उनका दिया बहुत कुछ मेरे दिल और जेहन में महफूज रहा है, सियासी तलवार ने मुल्क के दो टुकड़े कर दियेे। बड़ी मुश्किल लम्हात थे हमारे सामने कि यहॉं रहें या पाकिस्तान चले जायें। मैं उस वक्त सात-आठ साल का रहा होऊँगा। मुझे याद है, उन सभी सवालों के जवाब में मेरे दादा ने एक वाकया सुनाया था, उन्हीं की जुबानी, “”मेरा एक नन्हा दोस्त है, पंडित गिरजा शंकर का बेटा। अक्सर जब मैं तस्वीरें बना रहा होता हूं तो सेहन में चला आता है, पीछे खड़ा रंगों का खेल देखता रहता है। बड़ी बातें करता है और शाम को मेरे साथ घूमने जाता है। अभी एक दिन हम दोनों घूमने निकले। बस्ती में जाते ही वह हर चीज के बारे में दरियाफ्त करता है। अचानक वह मीनारों वाली मस्जिद के पास रुका और पूछने लगा, “”दादा जी ये क्या है? यहां कौन रहता है?” मैंने जवाब दिया, “”ये अल्लाह का घर है। इसे मस्जिद कहते हैं।” मेरी बात सुनते ही उसने अपने दोनों हाथ जोड़कर सिजदा किया और मुझसे पूछा, “”आप अच्छे बच्चे नहीं हो क्या? मंदिर-मस्जिद जहां मिले, हाथ जोड़ कर सिर झुकाना चाहिए।” मैंने वैसा ही किया तो बोला, “”अब आप अच्छे दादाजी हो।” उसकी बात सुनकर मेरी आँखें भीग गयीं। उसने ही मुझे सिखाया कि इस देश में रहना है तो हर धर्म की कदर करना सिखना होगा, चाहे आपका अकीदा कुछ भी हो। मैंने उससे पूछा, “”तुम्हें ये किसने बताया?” वह बोला, “”पापा जी ने, वे हमें रोज ये बताते हैं।” अब आप खुद सोच लें, आप सबको यहॉं रहना है तो ऐसे ही रहना होगा वरना पाकिस्तान चले जायें।”

इतिहास गवाह है कि आज तक जो सबसे ज्यादा इनसान का खून बहा उसकी वजह धर्म रहा है। इसकी दो वजह हैं या तो हमने धर्म को समझा नहीं या फिर उसने ही इनसान को गुमराह किया और इनसानी जिंदगी को खून, आंसू, दर्द और नफरत से भर दिया। इनसान, इनसान होते हुए भी इनसानियत से दूर रहा और इनसान, इनसान के करीब आने को तड़फता रहा।

आप सही सोच रहे हैं कि फिर मैंने इनसान के खिलाफ साजिश के लिए अपने घर के दरवाजे क्यों खोले? यह एक अहम सवाल है। करीब दो साल पहले मेरे इकलौते बेटे ने इंजीनियरिंग पढ़ने की ख्वाहिश जाहिर की और वह इस शहर से दूर चला गया। एक दिन उसका खत आया कि उसने पढ़ने के साथ पार्ट-टाईम जॉब कर लिया है, लिहाजा पैसे भेजने की जरूरत नहीं है। उसने लिखा कि अब मसरूफियत बढ़ जायेगी, आप फिा न करना। वक्त मिलने पर मैं खुद फोन कर लिया करूँगा। करीब एक साल के बाद कुछ दिन पहले ही वह घर लौटा तो मैंने उसे अजीब जहनी कैफियत (मानसिक स्थिति) में बरामद किया। मैंने उससे वजह दरियाफ्त की, तो उसने बताया कि उसका मन इंजीनियरिंग की पढ़ाई में नहीं लगा और वह अब अपने दोस्तों के साथ मिलकर यहीं कोई बिजनेस करना चाहता है। उसने इस काम के लिए घर के नीचे का हिस्सा किराये पर देने की जिद की, जिसे मुझे माननी पड़ी। करीब दस रोज पहले मैंने उसे मोबाइल पर कुछ अजीब गुफ्तगू करते पाया। मेरी मौजूदगी का एहसास होते ही उसने फोन काट दिया, फिर तीन-चार दिनों के बाद ऐसा ही हुआ तो मैंने सख्ती से उससे दरियाफ्त किया, तब उसने पूरी तफसील बयां कर दी। उसने खुद को अब खुदा के हवाले कर दिया है। उसने इंजीनियरिंग में एडमीशन जरूर लिया, लेकिन कॉलेज नहीं गया। उसकी मुलाकात वहां कुछ ऐसे लोगों से हो गयी, जिन्होंने खुद को अल्लाह के सुपुर्द किया हुआ था। उसका पासपोर्ट तो बना हुआ था ही, वह एक बुजुर्ग के साथ पाकिस्तान चला गया। वहां बहावलपुर में उसने जेहादी कैंपों में टेनिंग ली और उसके बाद उसे आजाद कश्मीर (पीओके) भेज दिया गया। वहां वह कई मुल्कों के लोगों से मिला और फिदाइनी कैंपों में रहा। वह मुझे जेहाद के रंग में रंगा हुआ लगा। कोई जुनून उसमें घर कर गया था। मैंने उससे बहुत से सवाल किये कि आखिर जेहाद किसलिए? लेकिन मेरे हर सवाल पर सवालिया निशान लगते रहे। मेरे जहन में बम-विस्फोटों के वे सब मंजर उभरने लगे, जो हम आए दिन देख रहे हैं। मेरे अंदर कशमकश इतनी बढ़ी कि… मैंने तीन रोज पहले उससे कहा कि मैं भी अल्लाह की खिदमत करना चाहता हूँ और उनके जेहाद में शामिल होना चाहता हूँ। मेरी बात सुनकर वह बहुत खुश हुआ।

जेहादियों से मुझे मिलाया जाने लगा। इनकी जेहादी प्लानिंग चल रही थी और कुछ प्लानिंग आखरी दौर में थी। मैं भी दिन-रात उनकी साजिशों में शामिल हो गया। उनका हर रा़ज मुझे पता चलता रहा। जेहाद का एक दिन मुकर्रर हो गया। इसी शहर को निशाना बनाया गया, जिस जूनियर कॉलेज में मेरा लड़का पढ़ा था, वहां सुबह के वक्त टाइम-बमों से हमला करना तय किया गया। करीब एक हजार से ज्यादा बच्चे उस वक्त वहां मौजूद रहते हैं। ऐसे में न जाने कितने बेगुनाह मासूमों की जानें जातीं, कितने पूरी जिन्दगी के लिए अपंग हो जाते, कितने सदा के लिए सुन्न हो जाते। ऐसी ही छः और जगहों पर ़जालिमाना हमले करने थे, जिसमें से एक खास टेन, जो इधर से पांच चालीस पर गुजरती है, उसे उड़ाया जाना था। होल-सेल सब्जी मार्केट में सुबह भीड़ के वक्त उसे गारत करना था। एक मंदिर, जिसमें मेला चल रहा है, वहां बम-बिस्फोट करके मंदिर को भी नेस्तानाबूत करना था। योग शिविर, जिसमें चार हजार से ज्यादा लोग हर रोज सुबह योग-ध्यान सीख रहे हैं, वहां इनसान-बम की शक्ल में ये मेरा इकलौता, जिगर का टुकड़ा खुद जाने वाला था।

करीब-करीब पूरी तैयारी कर ली गयी थी। देर रात कुछ लोगों को कुछ विशेष असला और उपकरण लेकर आना बाकी था। सुबह पांच और सात बजे के बीच ये सारे ऑपरेशन किये जाने थे। सुबह चार बीस का वक्त इबादत का रखा गया और उसी के बाद सामूहिक रूप से कुछ खाकर हम लोगों को निकलना था। मेरे बेटे को मेरे हाथ की सेवइयां बहुत पसंद थीं, जिसे बनाने की जिम्मेदारी मुझे ही सौंपी गयी थी। सबने वो सेवइयां खायीं। मैंने अपने बेटे को अपने हाथ से खिलाया और वह उस वक्त बहुत जज्बाती हो गया। उसने इनसानी-बम की शक्ल तो जरूरी अख्तियार कर ली, लेकिन उसके अंदर इनसानी जज्बात और जोर से धड़कने शुरू हो गये। वह मेरी छाती से लिपट कर यह कहते हुए बिलख पड़ा, “”अब्बाजान, मैं आपके हाथों से आखरी बार खा रहा हूँ। आज आखरी बार हम लोग मिल रहे हैं। काश! अम्मीजान भी यहां होतीं। उन्हें मेरा प्यार कहना। कहना, मैंने उन्हें बहुत याद किया था, अल्लाह के पास जाने से पहले। अब्बा, अब हम सब अल्लाह के पास ही मिल पाएँगे। अपना ख्याल रखना। अब्बू, अम्मी का ख्याल रखना।” उसने बार-बार मेरी पेशानी को चूमा। मैं भी अपने जज्बातों को न रोक सका। मेरी आँखें डबडबा गयीं, कलेजा मुंह को आ गया। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे गोद में खिलाया, उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, पाला-पोसा, पढ़ाया, बड़े अरमानों से परवान चढ़ाया।

ऊपर वाले की मर्जी थी, मारने और मरने वाले दोनों बच गये। मैं पेशे से हकीम हूं, दवाओं का इल्म है मुझे। मैंने सेवइयां बनाते वक्त उसमें बेहोशी की दवाओं का इजाफा कर दिया था और मुझे पूरा भरोसा था कि उसको खाने वाला कम से कम दो ढाई घंटों तक होश में नहीं आ सकेगा और इस बीच पुलिस सबको गिरफ्तार कर लेगी। क्योंकि मैंने मौका निकाल कर चुपके से पुलिस को फोन पर सारी जानकारी दे दी थी और ताकीद की थी कि वो रहमत मंजिल पर सुबह पांच बजे से पहले कोई कार्रवाई न करे। मुझे सिर्फ विश्र्वास ही नहीं बल्कि यकीन था कि वे ऐसा ही करेंगे और वही हुआ।

गोया कि मैं पुलिस की हिरासत में हूं, जब तक कानूनन हर बात पूरी नहीं हो जाती है, फिर भी अवाम के जहन में एक सवाल उठ रहा होगा कि मैंने यह कदम शायद इलेक्शन जीतने के लिए तो नहीं उठाया? अभी कुछ दिन पहले कारपोरेशन के इलेक्शन के लिए मैंने नगर सेवक की उम्मीदवारी का पर्चा भरा था और पर्चा लेने की कल शायद आखरी तारीख है। हालांकि जब मैंने पर्चा वापस भरा था तब मुझे इस बात का कतई इल्म नहीं था कि मेरे घर में आतंकवादी साजिशें पल रही हैं, लेकिन मैं अपनी उम्मीदवारी का पर्चा वापिस लेने का ऐलान करता हूं ताकि लोग मुझे मौकापरस्त न समझें और न ही मेरी मुल्क की वफादारी पर उंगली उठायें। मैंने जो कुछ भी किया अपने जमीर के हुक्म से किया, मुझे इसका कतई मलाल नहीं है और न ही जान की परवाह। बकौल शायर आलम फतहपुरी, हमारी जान तो जानी है जिस तरह जाये। क्यों न फिर देश पर ही जान कुर्बान हो जाय।

देश के कोने-कोने से सभी टी.वी. चैनल, रेडियो, समाचार-पत्रों के फोन खड़कने लगे। सैकड़ों हिन्दू-मुस्लिम और सभी धर्मों के लोगों ने अलीखान से नॉमीनेशन वापस न लेने की गुजारिश की। हजारों ने एसएमएस के माध्यम से पेशकश की कि वे उम्मीदवारी को वापस न लें, उन्होंने देश और आवाम की हिफाजत के लिए दिलेरी का काम किया है। इस मुल्क को ऐसे ही रहनुमाओं की जरूरत है।

दूसरे दिन उनकी इज्जत में उन सभी प्रत्याशियों ने अपने नॉमीनेशन वापस ले लिए, जो उनके खिलाफ उस हलके से खड़े थे। वे निर्विरोध नगर सेवक घोषित कर दिये गये। अली ने लोगों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। मुझे तो वो कोई गैर नहीं, अपना ही लगता है। आँखें उसकी हैं, तसव्वुर मेरा पलता है।

यहीं से इनसानियत की तकमील होती है, सिविलिटी की बुनियाद भी यही है, अखलाक, मोहब्बत खुलूस, भरोसा और विश्र्वास। ये सब मुझे आपसे मिला है, आपके धर्म से मिला है, अपने धर्म से मिला है और मैं आपके जज्बातों की कद्र करता हूँ। इन जज्बातों की हिफाजत करना मेरा फर्ज है। ये मेरे अपनों का नगर है। आपकी उम्मीदों पर खरा उतरेगा ये नगर सेवक।

– अमर स्नेह

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