परशुराम का कैलाश-दर्शन

parshuram-kailash-darshanएक दिन की बात है, जब जमदग्निनन्दन परशुराम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया, तब वे अपने गुरु भूतनाथ के चरणों में प्रणाम करने और गुरुपत्नी अम्बा शिवा तथा उनके नारायण-तुल्य दोनों गुरुपुत्रों कार्तिकेय और गणनायक को देखने की लालसा से कैलाश पहुँचे।

वहॉं उन्होंने अत्यन्त अद्भुत कैलाशपुरी का दर्शन किया। उक्त परम रमणीय पुरी की सुविस्तृत सड़कें सोने की बनी थीं, उन पर शुद्घ स्फटिक-तुल्य मणियां जड़ी थीं। उक्त पुरी में चतुर्दिक् सिन्दूरी रंग की मणियों की वेदियां निर्मित थीं, जो राशि की राशि मुक्ताओं से संयुक्त और मणियों के मण्डपों से परिपूर्ण थीं। रेणुका नन्दन ने वहॉं का भीतरी द्वार देखा, जो नाना प्रकार की चित्रकारी से चित्रित तथा हीरे-मोतियों की गुंथी हुई मालाओं से अत्यन्त शोभायमान था।

महर्षि जमदग्नि के परम पराामी पुत्र परशुराम ने उक्त द्वार के बायें अपने गुरुपुत्र कार्तिकेय को देखा और दाहिनी ओर पार्वतीनन्दन गणेश तथा शिव-सदृश पराामशील विशालकाय वीरभद्र का अवलोकन किया। वे वहॉं रत्नाभरण भूषित बहुमूल्य रत्नों से बने सिंहासनों पर आसीन थे।

परम पराामी एवं महामनस्वी कुठारपाणि परशुराम सबसे मिलते और प्रेमपूर्ण बात करते हुए प्रसन्नचित्त आगे बढ़े ही थे कि अक्षमालाधर गणेश ने उन्हें देखकर कहा, “”शूलपाणि इस समय शयन कर रहे हैं। मैं उन परमप्रभु की आज्ञा प्राप्त कर तत्काल तुम्हें साथ ले चलूँगा। बस, कुछ समय के लिए रुक जाओ।”

“”बन्धुवर! मैं परमानुग्रहमूर्ति, भक्तवत्सल, समदर्शी अपने गुरु के दर्शन करना चाहता हूँ।” वीरवर परशुराम ने मुद्गरायुध गणेश के सम्मुख खड़े-खड़े उत्तर दिया, “”मैं उन जगदीश्र्वर एवं त्रयतापहारिणी पराम्बा पार्वती के अभयपद चरण-कमलों में प्रणाम कर अभी लौट आऊँगा।”

“”इस समय भूतेश्र्वर शिव एवं माता पार्वती अन्तःपुर में हैं।” अमोघसिद्घ गणेश ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाते हुए कहा,””अतएव अभी आपको वहां नहीं जाना चाहिए।”

“”परम गुरुदेव शिव एवं पुत्रवत्सला माता पार्वती के चरण-कमलों के दर्शन का मेरा सहज अधिकार है।” भृगुनन्दन अपने आग्रह पर दृढ़ थे, किंतु गिरिजापुत्र गणेश उन्हें अत्यन्त विनयपूर्वक समझाते गये।

“”मैं तो परमपिता शिव एवं दयामयी मॉं के दर्शनार्थ जाऊंगा ही।” बलपूर्वक रेणुकानन्दन आगे बढ़ना ही चाहते थे कि विघ्नराज ने उन्हें रोक दिया।

इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित करने वाले भृगुनन्दन कुपित हो गये और उनका गणाधिराज से विवाद ही नहीं बल्कि हाथापाई भी होने लगी। कुमार कार्तिकेय ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, किंतु ाुद्घ क्षत्रिय द्रोही परशुराम ने परम विनयी बुद्घिविशारद ईशानपुत्र को धक्का दे दिया, जिससे वे गिर गये।

शिव-पुत्र गणेश ने उठकर परशुराम की उद्दण्डता के लिये उनकी भर्त्सना की तो ाुद्घ परशुराम ने अपना तीक्ष्ण परशु उठा लिया। तब अजरामर गौरीतेज गणेश ने अपनी सूंड बढ़ाकर परशुराम को उसमें लपेट लिया और उन्हें घुमाने लगे। योगाधिष गणेश जी की महान सूंड में लिपटे परशुराम सर्वथा असहाय और निरुपाय थे। धरणीधर गणेश के योगबल से परशुराम स्तम्भित हो गये थे।

अनन्त शक्तिशाली गणेश ने जमदग्निनन्दन परम वीर परशुराम को सप्तद्वीप, सप्त-पर्वत, सप्त सागर, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनलोक, तपोलोक, ध्रुवलोक, गौरीलोक और शम्भुलोक दिखाते हुए गम्भीर समुद्र में फेंक दिया।

परशुराम तैरने लगे तो निरामय गणनाथ ने उन्हें पुनः अपनी सूंड में उठा लिया और घुमाते हुए वैकुण्ठधाम दिखाकर गोलोकधाम का दर्शन करा दिया। वहॉं परशुराम ने मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए वंशीविभूषित नव-नीरद श्रीकृष्ण के साथ रासराजेश्र्वरी श्री राधा का दर्शन किया तो वे बार-बार उनके मंगलमय चरण-कमलों में प्रणाम करने लगे।

पापजनित यातना कर्मभोग से ही समाप्त होती है, किंतु औषधिपति गणेश ने परशुराम को सम्पूर्ण पापों का पूर्णतया नाश करने वाले श्रीकृष्ण का दर्शन कराकर उनका भ्रूणहत्या जनित पाप थोड़े में ही नष्ट कर दिया।

कुछ ही देर बाद परशुराम सचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय उनका प्रतिवादिमुख स्तम्भक गणेश जी द्वारा किया हुआ स्तम्भन भी दूर हो गया। तब उन्होंने अपने अभीष्ट देवता श्रीकृष्ण के जगद्गुरु शिव द्वारा प्रदत्त परम दुर्लभ स्तोत्र एवं कवच का स्मरण किया और सम्पूर्ण शक्ति से ग्रीष्मकालीन मध्याह्न सूर्य की प्रभा के तुल्य तीक्ष्णतम अपने परशु से प्रणतार्तिनिवारक गौरीनन्दन पर प्रहार कर दिया। गणाधिराज ने अपने परमपूज्य पिता के अमोघ अस्त्र का सम्मान करने के लिए उसे अपने बायें दांत से पकड़ लिया। शिव-शक्ति के प्रभाव से वह तेजस्वी परशु गणेश के बायें दांत को समूल काटकर पुनः रेणुका पुत्र परशुराम के हाथ में लौट आया।

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