पसीने से जन्मी कन्या

प्राचीन काल में वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ कण्डू नामक मुनीश्र्वर थे। जब वह गोमती नदी के परम रमणीक तट पर घोर तप कर रहे थे, तब उनके तपोबल के कारण तीनों लोक जलने लगे। परिणाम स्वरूप इन्द्र को अपना सिंहासन हिलता-डुलता नजर आया। तब इन्द्र ने उनके तप को भ्रष्ट करने का निश्र्चय किया, जिसके लिए उन्होंने अत्यंत सुन्दर अप्सरा प्रम्लोचा को चुना। प्रम्लोचा ने अपने हाव-भाव से ऋषि के हृदय को विचलित कर दिया। अप्सरा के मोहपाश के कारण ऋषि अपने नित्य-कर्म को भूल गये। उसके साथ कई वर्षों तक विषयासक्त चित्त से मन्दराचल की कन्दरा में रहे।

एक दिन मुनिवर शीघ्रतापूर्वक अपनी कुटिया से निकले। यह देख अप्सरा ने पूछा, “”आप कहां जा रहे हैं?” मुनिवर ने कहा, “”दिन अस्त हो चुका है। इसलिए मैं संध्योपासना करूंगा, नहीं तो नित्य क्रिया नष्ट हो जाएगी।” ऋषि का यह कथन सुनकर हंसते हुए सुन्दरी कहने लगी, “”हे मुनि! क्या आज ही आपकी नित्य-िाया नष्ट हुई है?” अप्सरा को इस प्रकार हंसते हुए देख मुनि ने कहा, “”मुझे भली प्रकार से स्मरण है कि नदी के सुन्दर तट पर आज सबेरे ही तो तुम आई हो। मैंने आज ही तुमको अपने आश्रम में प्रवेश करते देखा था। अब दिन के समाप्त होने पर यह संध्याकाल हुआ है। अतः सत्य कहो, इस प्रकार का परिहास करने का क्या कारण है?”

प्रम्लोचा ने कहा, “”आप सत्य कहते हैं कि मैं आज सबेरे ही आई हूं, परंतु उस सवेरे को आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके हैं।”

मुनिवर ने घबराते हुए प्रम्लोचा से पूछा, “”सत्य कहो, तुम्हारे साथ रमण करते हुए मुझे कितना समय बीत गया?”

प्रम्लोचा ने कहा, “”अब तक नौ सौ सात वर्ष, छः महीने तथा तीन दिन बीत चुके हैं।”

प्रम्लोचा के वचन सुनकर मुनि ने कहा, “”मुझे धिक्कार है! मुझे धिक्कार है! मेरा तप नष्ट हो गया। मेरे पास मेरे तप के रूप में जितना भी धन था, सब कुछ लुट गया और मेरी विवेक बुद्घि मारी गई। ओह! स्त्री को तो मोह उपजाने के लिए ही रचा है। मुझे ही अपने मन को जीतकर रखना चाहिए था, जिसने मेरी इस प्रकार की बुद्घि को नष्ट कर दिया। इस स्त्री के संग के कारण मैंने जो व्रत भगवान की प्राप्ति के लिए किए थे, सब नष्ट हो गए।”

इस प्रकार ऋषि ने अपनी स्वयं ही निंदा की और वहां बैठी अप्सरा से कहने लगे, “”अरी पापिन! अब तेरी जहां इच्छा हो चली जा। तूने अपने हाव-भाव से मोहित करके इन्द्र का कार्य पूरा कर दिया है। मैं अपने ाोध से प्रज्ज्वलित हुई आग्न द्वारा तुझे भस्म भी नहीं कर सकता हूं, क्योंकि तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझ पर ाोध करूं? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकि मैं बड़ा अजितेन्द्रिय हूं। हाय! तूने इन्द्र के स्वार्थ के लिए मेरी तपस्या नष्ट कर दी। तुझे धिक्कार है। अरी! तू चली जा! चली जा!”

मुनि के कथन सुनकर सुन्दरी पसीने में सराबोर होकर कांपती रही। मुनि द्वारा बार-बार फटकारे जाने पर वह आश्रम से निकली पड़ी। आकाश-मार्ग की ओर प्रस्थान करते हुए, एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर चलती गई और अपने पसीने को पत्तों से पोंछती गई। ऐसे में उसके शरीर में स्थापित गर्भ पसीने के रूप में निकल पड़ा, जिसे वृक्षों ने ग्रहण कर लिया। वायु ने उसे एकत्रित किया और सूर्य ने अपनी किरणों से उसे पोषित कर दिया। इस प्रकार वृक्षाग्र से उत्पन्न हुई “त्मारिषा’ नाम की सुमुखी कन्या, जिसे “अयोनिजा’ भी कहा गया अर्थात् जिसने माता के आगे चलकर गर्भ के बिना ही जन्म लिया। इस कन्या का विवाह दस प्रचेताओं के साथ हुआ। उन दसों प्रचेताओं से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ, जो कि इस संसार में कितने ही वंशों को चलाने वाले हुए और दक्ष प्रजापति की संतान संपूर्ण त्रिलोक में फैल गई।

– श्र्वेता भार्गव

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