पहचान

उदासी किसी अपरिचित मेहमान की तरह अचानक मन के द्वार पर आ गयी। उदासी के घेरे जब भी मनुष्य को घेरते हैं तो न जाने कहॉं-कहॉं से स्मृतियों से निकल कर उपेक्षा-अपमान के दंश उसे चुभने लगते हैं। उदासी के एक घेरे से निकल भी नहीं पाते कि उसी से जुड़े कई संघर्ष याद आ जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? मनुष्य का मन किसी रहस्यों से भरी गुफा से कम नहीं होता है, जिसमें प्रवेश करने पर उसका अंत भी नजर नहीं आता है।

पूरे एक सप्ताह से मन में विचार आ रहा था कि विनय से पूछ लूं आखिर उसका ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार मेरे प्रति क्यों हो गया? मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि विनय जैसा सुलझा व्यक्ति अचानक इतना बदल जाएगा। क्या जीवन इसी तरह जीना होगा? जब वह बिस्तर में हो तब मैं किचन में और जब वह कार्यालय जाने को निकले तो मैं बाथरूम में।

मॉं तो बचपन से ही मुझे कहती आ रही थी, “”रजनी, न जाने तेरे भाग्य में क्या लिखा है?”

“”क्यों क्या बात हो गयी मॉं?” मैं बाल-सुलभ जिज्ञासा पूर्वक प्रश्र्न्न करती।

“”अरी, तुझ से कौन विवाह करेगा?”

“”न करे विवाह, मैं अकेली रह लूंगी।”

“”कहने में और दुनिया में रहकर उम्र काटने में बहुत अंतर है।” मॉं अपने अनुभव को शब्दों में पिरोकर कहती और पल्लू से अपनी आँखें भी पोंछ लेती। मैं मॉं के स्वर में उमड़ आये दर्द को अनुभव करती, किन्तु कह कुछ नहीं पाती थी।

बचपन में बड़ी माता (चेचक) के आने पर मेरी एक आँख खराब हो गयी थी। चेहरे पर भी वह चिह्न छोड़ गयी थी। मां ने माता को देवी मानकर कहीं इलाज नहीं करवाया था और उसके दुष्परिणाम जीवन भर भोगने को मैं अभिशप्त हो गयी थी। मुझे अनायास ही “कानी’ कहा जाने लगा था। सुनने में मुझे पीड़ा होती थी, किन्तु किस-किस को मना करती! यदि मना करती तो यह मेरी चिढ़ बन जाती, “कानी-कानी’ कहकर मुझे और भी चिढ़ाया जाता। इसलिए वह “नाम’ मैंने अनचाहे ही स्वीकार कर लिया था। स्कूल में भी मुझे पीठ पीछे “कानी’ शब्द सुनायी देता था, लेकिन किससे अपनी पीड़ा कहती?

परीक्षा-कक्ष में पहुँचने पर अनायास ही कानों में शब्द आ जाते थे, “”अरे कानी बैठी है, अब तो पेपर खराब हो जायेगा।” मैं तिलमिला जाती थी। आखिर किसको दोष देती? अपने भाग्य को या विधि के विधान को?

मैं स्वयं के घेरे में घिरने लगी थी। मैं भारी अवसाद में रहने लगी थी। कुंठा के एक ऐसे कुंए में जा धंसी थी, जिसमें सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा था। मैं पूरी कोशिश करती कि कहीं बाहर न निकलूं ताकि ऐसे शब्द सुनने न पड़ें। मॉं ने मुझे एक काला चश्मा ला दिया था, जिससे आंखों का वह गड्ढा छिप तो गया था किन्तु वह प्रतिपल मुझे अनुभव होता था। कोई अपरिचित मेरे चेहरे को देखता था तो मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो वह मेरी आंख को देख रहा है और थोड़ी देर पश्र्चात वह मुझसे कहेगा, “”आपकी आंख किस कारण फूट गई?” मेरे मन में सैकड़ों प्रश्र्न्न आते और स्वयं के प्रश्र्न्नों से मैं छलनी हो जाती थी।

एक दिन मॉं के साथ एक परिचित परिवार में हम विवाह समारोह में गये। भोजन प्रारंभ होने में समय था। एक ओर मंच बना था और दो-तीन वाद्य-यंत्रों को लेकर एक व्यक्ति शास्त्रीय सुर-ताल में गजल गा रहा था। उसका स्वर इतना मंत्र मुग्ध कर देने वाला था कि मैं एक कुर्सी लगाकर उसके पास जा बैठी और उसके गायन को आत्मसात करने लगी। जब कार्याम समाप्त हुआ तो मैं बधाई देने मंच तक पहुंची तो मुझे ज्ञात हुआ कि वह गायक नेत्रहीन था। पूरी महफिल का नायक था, वह सबकी बधाइयां स्वीकार कर रहा था। मैंने भी बधाई दी, उसने बड़ी विनम्रता से “धन्यवाद’ कहा। यही वह क्षण था, जब मेरे जीवन में परिवर्तन आया। मैंने उस गायक को बताया कि “”मेरी एक आँख नहीं है।” तो उसने हंसते हुए कहा, “”जीवन को इस बात से मत आंको कि एक आँख है या नहीं? विचार यह करो कि जो कुछ तुम्हारे पास है, वह कितना महत्वपूर्ण है।”

“”जैसे…” मैंने जानना चाहा।

“”जैसे तुम सुन सकती हो, गा सकती हो, एक आँख से देख भी सकती हो, जो है, उसका भरपूर उपयोग करके अपनी पहचान को कायम करना ही सफल जीवन जीना होता है।” उसकी बात सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं अपनी कुंठा के अंधेरे कुएं से बाहर निकल आयी हूं। मुझमें भारी संभावनाएँ हैं और उन संभावनाओं का मुझे भरपूर उपयोग करना चाहिए।

मैंने मां से जिद करके संगीतशाला में जाना प्रारंभ किया। एक-दो माह तक तो बड़ा उत्साह था, उसके बाद मुझे लगा कि इस क्षेत्र में भी कड़ी मेहनत की आवश्यकता है। मैं घबरा रही थी, किन्तु दूर कहीं वही नेत्रविहीन गायक दिखलाई दिया और मैं फिर मेहनत करने में जुट गई। एक बरस पूरा करते-करते मैं कई राग-रागिनियॉं गाने लगी। रियाज के चलते गला भी सध गया। मुझ में धीमे-धीमे आत्मविश्र्वास जाग्रत होने लगा। मुहल्ले में गीत-भजन गाये, किन्तु मेरा अनुभव ठीक नहीं रहा। अच्छा गाने के बाद भी मेरा कानापन मुझे अपशगुनी ठहराता रहा। इसलिए मुझे कड़ी परीक्षाएँ देना शेष था।

गुरु जी ने एक मुझे गाने के लिए एक कार्याम में मौका दिया। मैं बहुत घबराई सी थी। लेकिन गुरु जी के आशीर्वाद से कार्याम सफल रहा। जो राशि मान के रूप में प्राप्त हुई, वह मैंने गुरु जी के चरणों में रख दी थी।

जिला स्तरीय गायन के कार्याम में मुझे जाना था। मुझ में आत्मविश्र्वास की कमी नहीं थी। कार्याम का प्रारंभ निश्र्चित समय पर हो गया था। एक गीत, फिर दूसरा, श्रोताओं की मांग बढ़ती जा रही थी। पूरे दो घंटों तक मैंने गीतों की प्रस्तुतियां कीं। पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। तभी एक अपरिचित युवक आगे आया और हाथ बढ़ाकर अपना परिचय देते हुए कहा, “”मैं विनय हूं।”

मैंने दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार किया। थोड़ी भीड़ कम होने पर उसने धीमे स्वर में कहा, “”आपने बहुत सुन्दर गायन प्रस्तुत किया है। मैं आपसे अपने विवाह… का प्रस्ताव रखता हूँ।”

मैंने उस युवक का चेहरा देखा और अपनी आंखों से चश्मा हटा दिया और कहा, “”मैं एक आँख से देख नहीं सकती हूं।”

न जाने कितने रंग चेहरे पर आये और गये। मैं जोरों से हंस पड़ी और चश्मा आँखों पर चढ़ाकर आगे बढ़ गयी। अगले दिन विनय अपने परिवार के साथ हमारे घर मेरा हाथ मांगने आ गया था। मां ने मुझे भाग्यशाली बताते हुए सहर्ष ही यह रिश्ता पक्का कर दिया। विनय पर मुझे गर्व हो आया था। निश्र्चित दिन विवाह भी हो गया। मैं अपनी ससुराल गयी।

विवाह के एक माह तक तो सब ठीक-ठाक चला, फिर मेरे कानों में वही बातें आने लगीं, जिन्हें मैं लगभग भुला चुकी थी।

विनय को व्यापार में घाटा होने लगा। उसका दोष यही माना जाने लगा कि वह सुबह मेरी सूरत देखता है। मुझे जब यह बात ज्ञात हुई तो लगा कि अंदर ही अंदर मानो प्रेम दर्पण टूट गया हो और उसकी किरचें मेरे हृदय को घायल कर गयी हों।

इसलिए मैं सुबह जल्दी उठकर विनय को सोता हुआ ही छोड़कर रसोई में चली जाती और जब वह कार्यालय जाते तब मैं बाथरूम में होती। यदि उन्हें इसी में खुशी मिले, तो ठीक है। विनय ने भी मुझसे कोई शिकायत नहीं की। उन्होंने कभी मुझसे यह नहीं कहा कि तुम ऐसा क्यों करती हो? इसलिए मैं समझ गई कि विनय की इसमें ही सहमति है।

इसी मध्य मेरे गायन को लेकर दो-तीन कार्याम दूरदर्शन पर भी रिकॉर्ड हुए। उसका परिणाम यह निकला कि विनय मुझे प्रताड़ित करने लगा। भोजन में मीन-मेख निकालने से लेकर घर गंदा है, उसके कपड़े जमाये नहीं गये – जैसी छोटी-छोटी बातों पर वह नाराज होने लगा। एक रात तो उसने मुझे कह ही दिया, “”घर के इतने बिखरे काम तुम्हें दिखलाई नहीं देते? बस तुम्हें तो सदा गाने की ही पड़ी रहती है। दिखलाई देंगे भी कैसे? आखिर एक ही तो आंख है।” मैंने सुना तो सन्न रह गयी। मुझे अपने पति से यह उम्मीद नहीं थी। इस मध्य मेरे दो साक्षात्कार पत्रिकाओं में भी छपे। उसी रफ्तार से विनय की मानसिक प्रताड़ना भी बढ़ गयी।

आखिर यह सब कब तक चलेगा, आज विनय से बात कर लूंगी। यदि वह नहीं चाहता तो मैं उसे बिना कष्ट दिये अलग हो जाऊँगी। मेरी तंद्रा टूटी तो देखा कि विनय चला आ रहा है प्रसन्न-सा। मैं चाह रही थी कि आज ही अंतिम फैसला कर लूँ। मुझे देखकर विनय एक पल को ठिठक गया। मैंने उससे कहा, “”मुझे तुमसे कुछ कहना है।”

“”मुझे भी तुमसे कुछ कहना है।” उसने कहा।

“”तुम पहले कह दो।” विनय ने बात पूरी की।

मैंने सरसरी नजर कमरे में डाली। वहॉं किसी को भी न पाकर कहने लगी, “”विनय, मैं एक आंख से देख नहीं सकती है, यह तुम्हें ज्ञात था। मैं काने होने की पीड़ा वैसे भी जीवन भर से भोगती आ रही हूं, इसको मुद्दा बनाकर मुझे क्यों नीचा दिखलाया जा रहा है?”

विनय एक पल के लिए सहम-सा गया, लेकिन पुरुष होने का अहं उस पर सवार था। उसने कहा, “”तुम एक आंख से देख नहीं सकती, तुम विकलांग हो, इस बात को स्वीकार क्यों नहीं करतीं?” “”विकलांग मैं हूं या तुम हो?”

“”क्या मतलब?”

“”मैं विकलांग होने पर भी यह साबित कर सकी कि मैं सामान्य से भी ऊंची हूँ। तुम तो शारीरिक रूप से ठीक होने पर भी मानसिक रूप से कितने विकलांग हो कि पत्नी की पहचान, उसकी उन्नति स्वीकार नहीं कर पा रहे हो। बताओ, विनय कौन विकलांग है, अपंग है – तुम हो या मैं हूं?” न जाने कहां से शक्ति जुटाकर मैंने यह सब कह दिया। विनय ने एक शब्द भी नहीं कहा। न जाने कैसी-कैसी पराजित दृष्टि से वह मुझे देख रहा था। मैं अपने कमरे में पहुंची और जाने के लिए सामान जमाने लगी, तो विनय पीछे से आया और मेरे कंधे पर अपने हाथ रख दिये। उसके स्पर्श में प्रायश्र्चित था या प्रेम, मैं समझ नहीं पायी थी, किन्तु उस स्पर्श में ऐसा कुछ जरूर था, जो मुझे उससे जोड़े हुए था। कुछ स्पर्श बिल्कुल भी अपंग नहीं होते हैं, उन्हें पूरी तरह से हृदय में अपने भीतर अनुभव किया जा सकता है। यह स्पर्श भी ऐसा ही कुछ था। मैंने पलटकर विनय की ओर देखा और उसके चेहरे पर अपनी दृष्टि गड़ा दी। देख लेना चाह रही थी आखिर विनय क्या चाह रहा है। विनय ने धीमे स्वर में कहा, “”रजनी, तुम्हें प्रतीत हो रहा होगा कि मैंने तुम्हारा मन दुखाया। यदि ऐसा है तो मैं तुम्हारा अपराधी हूं, किन्तु मेरे मन में ऐसी कोई भावना नहीं थी। सच तो यह है कि जिस घर-समाज की उपेक्षा के कारण तुमने कुंठा के कुएं से बाहर निकल कर अपनी पहचान बनायी, उसी तरह मैं चाहता था ससुराल की उपेक्षा, पति के व्यंग्य-बाणों से घबराकर ऐसी पहचान कायम करो ताकि तुम्हारे नाम से मुझे पहचाना जाये, न कि मेरे नाम से तुम पहचानी जाओ।” कहते-कहते भावुक हो उठा।

मैंने अपना सिर विनय की छाती पर रख दिया और जोरों से रो पड़ी। विनय मेरे बालों में हाथ फेरता रहा मानो मैं कोई छोटी बच्ची हूं।

– डॉ. गोपाल नारायण आप्टे

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