पापियों के उद्धार हेतु जनक द्वारा समस्त पुण्य अर्पित

raja-janakएक समय की बात है, राजा जनक ने योग के द्वारा अपने शरीर का परित्याग कर दिया और दिव्य-देह से विमान पर आरूढ़ होकर चल दिये। जब राजा जनक धर्मराज की संयमनी पुरी के निकटवर्ती मार्ग से जा रहे थे, उस समय करोड़ों नरकों में जो पापाचारी जीव यातना भोग रहे थे, वे जनक के शरीर की वायु का स्पर्श पाकर सुखी हो गये। परन्तु जब वे उस स्थान से आगे निकले, तो पाप-पीड़ित प्राणी उन्हें जाते देख भयभीत होकर जोर-जोर से चीत्कार करने लगे। उन्होंने करुणा-जनक वाणी में कहा – “पुण्यात्मन् ! यहॉं से न जाओ। तुम्हारे शरीर को छूकर चलने वाली वायु का स्पर्श पाकर हम यातना-पीड़ित प्राणियों को बड़ा सुख मिल रहा है।’

राजा बड़े धर्मात्मा थे। उन दुःखी जीवों की पुकार सुनकर उनके हृदय में करुणा भर आयी। वे सोचने लगे – “यदि मेरे रहने से इन प्राणियों को सुख होता है तो अब मैं इसी नगर में निवास करूँगा, यही मेरे लिए मनोहर स्वर्ग है।’ ऐसे विचार करके राजा जनक दुःखी प्राणियों को सुख पहुँचाने के लिए वहीं नरक के दरवाजे पर ही ठहर गये। उस समय उनका हृदय दया से परिपूर्ण हो रहा था।

तभी नरक के उस दुःखदायी द्वार पर स्वयं धर्मराज उपस्थित हुए। उन्होंेने देखा- महान पुण्यात्मा तथा दयालु राजा जनक विमान पर आरूढ़ हो नरक के दरवाजे पर खड़े हैं। उन्हें देखकर धर्मराज बोले – “राजन् ! तुम तो समस्त धर्मात्माओं के शिरोमणि हो, भला तुम यहॉं कैसे आये? यह स्थान तो प्राणियों की हिंसा करने वाले पापाचारी एवं दुष्टात्मा जीवों के लिए है। यहॉं तुम्हारे समान पुण्यात्मा पुरुष नहीं आते।’

जनक ने कहा – “नाथ ! मुझे इन दुःखी जीवों पर दया आती है, अतः इन्हें छोड़कर मैं नहीं जा सकता। मेरे शरीर की वायु का स्पर्श पाकर इन लोगों को सुख मिल रहा है। धर्मराज ! यदि आप नरक में पड़े हुए इन सभी प्राणियों को छोड़ दें तो मैं पुण्यात्माओं के निवास स्थान स्वर्ग को सुखपूर्वक जा सकता हूँ।’ परन्तु धर्मराज उन समस्त पापियों को उनके पापों का दण्ड दिये बिना नरक से छुटकारा नहीं दे सकते थे। तब जनक ने पूछा – “धर्मराज ! इन दुःखी जीवों का नरक से उद्धार कैसे होगा? आप वह उपाय बतावें जिसका अनुष्ठान करने से इन्हें सुख मिल सके।’

धर्मराज बोले – “महाराज ! इन्होंने कभी भगवान् विष्णु की आराधना नहीं की, उनकी कथा नहीं सुनी, फिर इन पापियों को नरक से छुटकारा कैसे मिल सकता है! यदि तुम इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य इन्हें अर्पण कर दो। कौन सा पुण्य? सो मैं बतलाता हूँ। एक दिन प्रातः काल उठकर तुमने शुद्ध चित्त से श्री रघुनाथजी का ध्यान किया था, जिनका नाम महान पापों का भी नाश करने वाला है। नरश्रेष्ठ ! उस दिन तुमने जो “राम’ नाम का उच्चारण किया था, वही पुण्य इन पापियों को दे डालो, जिससे इनका नरक से उद्धार हो जाये।’

धर्मराज के उपर्युक्त वचन सुनकर राजा जनक ने अपने जीवनभर का कमाया हुआ पुण्य उन पापियों को दे डाला। उनके संकल्प करते ही नरक में पड़े हुए वे जीव तत्क्षण वहॉं से मुक्त हो गये और दिव्य शरीर धारण करके जनक से बोले – “राजन् ! आपकी कृपा से हम लोग एक ही क्षण में इस दुःखदायी नरक से छुटकारा पा गये, अब हम परमधाम को जा रहे हैं।’ और वे सभी प्राणी महाराज जनक की प्रशंसा करते हुए दिव्य लोक को चले गये।

नरकस्थ प्राणियों के चले जाने पर राजा जनक ने सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ यमराज से प्रश्न किया – “धर्मराज ! आपने कहा था कि पाप करने वाले मनुष्य ही आपके

स्थान पर आते हैं, धार्मिक चर्चा में लगे रहने वाले जीवों का यहॉं आगमन नहीं होता। ऐसी दशा में मेरा यहॉं किस पाप के कारण आना हुआ है?’  धर्मराज बोले – “राजन ! तुम्हारा पुण्य बहुत बड़ा है। इस पृथ्वी पर तुम्हारे समान पुण्य किसी का नहीं है। तथापि तुम्हारा एक छोटा-सा पाप भी है, जिसके कारण तुम पुण्य से भरे होने पर भी संयमनी पुरी के पास आये हो। एक समय की बात है – एक गाय कहीं चर रही थी, तुमने पहुँचकर उसके चरने में रुकावट डाल दी। उसी पाप का यह फल है कि तुम्हें नरक का दरवाजा देखना पड़ा है। परन्तु इस समय तुम उससे छुटकारा पा गये हो तथा तुम्हारा पुण्य पहले से बहुत बढ़ गया है, अतः अब अपने पुण्य द्वारा उपार्जित नाना प्रकार के उत्तम भोगों का उपभोग करो। श्री रघुनाथजी करुणा के सागर हैं। उन्होंने इन दुःखी जीवों का दुःख दूर करने के लिए ही संयमनी के इस महामार्ग में तुम जैसे वैष्णव को भेज दिया है। यदि तुम इस मार्ग से नहीं आते तो इन बेचारों का नरक से उद्धार कैसे होता! ‘

यह सुनकर यमराज को प्रणाम करके राजा जनक परमधाम को चले गये।

(पद्म पुराण से)

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