फेरों पर कन्या

phere-par-kanyaयूँ तो फेरों पर कन्या होती ही है जो अग्नि के फेरे लेती है। परंतु मैं जिस कन्या का जिक्र कर रही हूँ वह फेरे लेने वाली कन्या से भिन्न है। अभी हाल ही में मेरे एक परिचित की शादी में यह कन्या मुझे दिख गई। वह मंडप में बैठी थी। सजी-संवरी, माथे पर चंदन का टीका लगाए। वह अपने पिता के बगल में बैठी थी। उसके चेहरे पर अगाध विश्र्वास झलक रहा था। उसके पिता फेरों की रस्म पूरी करवाते समय मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। बीच-बीच में वे अपनी बिटिया की ओर भी झांक कर देख लेते थे। जब कभी वे पंडित जी अपनी लम्बी-सी श्र्वांस के साथ श्र्लोक को बीच में छोड़ते तो वह छोटी-सी कन्या उस श्र्लोक को पूरी तन्मयता से पूरा कर देती। अलबत्ता वह सारे श्र्लोक अपने पिता के साथ-साथ बोल रही थी।

मुझे अच्छा लगा कि किसी ने पंडिताई कर्म में अपनी बिटिया को लाने की सोची तो सही। फेरों की समाप्ति पर मैंने कोशिश करके उन पंडितजी से बात की। वे बोले, “बहनजी! लड़का तो मेरा निकम्मा है, पढ़ता है ना लिखता है। पर ये लड़की बहुत तेज है। एक-दो बार सुनने मात्र से ही इसको सैकड़ों श्र्लोक कंठस्थ हो गए हैं। पंडिताई हमारा पुश्तैनी काम है। लड़के पर तो बस नहीं चलता, चलो ये कन्या ही इस काम को सीख ले। इसलिए इसे हर अवसर पर साथ ले जाता हूँ। मुझे खुशी हुई कि जिस कर्म में महिलाओं का कदम रखना एक तरह से वर्जित था, वहॉं आज उनके कदमों के निशान बनने लगे हैं। और इसमें बुरा भी क्या है? बुरा तो यह था कि आज तक उसे इस काम के लिए प्रेरित ही नहीं किया गया और न ही अवसर दिया गया। कारण संकीर्णता और लड़की के प्रति दोयम दर्जे की भावना के और कुछ नहीं हो सकता। जब लड़कियॉं – औरतें बारात में जाने लग गई हैं तो विवाहादि मौकों पर यदि लड़कियॉं पंडिताई कर्म में भी लग जाएँ तो बढ़िया ही है। पर कुछ काम आज भी ऐसे हैं जिनमें लड़कियॉं ना के बराबर हैं। इनमें से शादी-ब्याह के मौकों पर की जाने वाली फोटोग्राफी भी एक ऐसा ही क्षेत्र है जहॉं मेरी जानकारी में अभी तक लड़कियों ने दस्तक नहीं दी है।

जबकि विवाह के समय खींची जाने वाली फोटो उतारने वाली कोई लड़की ही हो, तो दुल्हन को कितनी आसानी हो जाएगी। कई बार जब फोटोग्राफर नवविवाहिता की ढोड़ी पर हाथ लगा-लगा कर पोज बनवाता है तो दुल्हन बुरी तरह शर्मा रही होती है। मेरे हिसाब से वह दिन भी आएगा जब शादी के बैंड में भी आपको लड़कियों की भागीदारी मिलेगी। कौन-सा ऐसा सुर या साज है जिसे वे नहीं जानतीं? और अगर नहीं जानतीं तो उन्हें सिखाने की पहल होनी चाहिए।

एक बार की बात है कि गॉंव में ब्याह था अर बाजा बज रहा था। रामप्यारी अपनी मॉं से बोली, “मॉं, जब ये बाजा बजे है तो मेरै किचकिची-सी मचे है अर ऐसा जी करता है कि झटपट जाकर फेरे ले लूँ।’ उसकी मॉं ने ये बात उसके बाब्बू को बताई तो उसका बाब्बू बोल्या, “ठीक ही तो कह रही है। छोरी इब ब्याहने लायक हो गई है। इसका ब्याह जल्दी कर देंगे।’ ये बात उनका छोरा नत्थू भी सुन रहा था। सात-आठ दिन बाद गॉंव में फिर बाजे बजे, अर अब नत्थू अपनी मां से बोल्या, “मॉं! जब ये बाजे बजते हैं तो तो मेरे किचकिची सी मच जाती है। अर ऐसा जी करता है कि भागकर फेरे ले लूँ।’ छोरे की ये बात उसका बाब्बू सुन रहा था। वह छोह में बोल्या, “बेटा यूँ कर, उस ढोल वाले के बुड़के भर ले। अभी तो तेरा नम्बर आने वाला नहीं।’

 

– शमीम शर्मा

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