फैसले के बाद भी शेष हैं कुछ सवाल

गर्भधारण के 23वें हफ्ते में मुंबई की निकेता मेहता को सोनोग्राम के जरिए मालूम हुआ कि उनके भ्रूण का पूरी तरह हार्ट ब्लॉकेज है और एक प्रमुख धमनी भी दोषपूर्ण है। अब उनके सामने दो रास्ते थे- एक अवैध रूप से गर्भपात करा लिया जाता क्योंकि कानूनन 20 हफ्ते के बाद गर्भपात कराना गैर-कानूनी है। और दूसरा यह कि अपनी समस्या को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाया जाए ताकि गर्भपात कराने की कानूनी इजाजत न सिर्फ उन्हें मिल जाए बल्कि उन जैसी अन्य महिलाओं के लिए भी न्यायिक बाधा समाप्त हो जाए। निकेता ने अपने पति हरीश और डॉ. निखिल दातर के सहयोग से दूसरा रास्ता चुना और बॉम्बे हाईकोर्ट में भ्रूण को गिराने और गर्भपात कानून में संशोधन की अर्जी दी। लेकिन बीती 4 अगस्त को न्यायाधीश आर.एम.एस.खंडेपारकर और न्यायाधीश अमजद सईद की डिवीजन बेंच ने निकेता की याचिका को ठुकरा दिया और कहा कि गर्भपात कानून में संशोधन करना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है क्योंकि यह काम विधायिका का है।

डिवीजन बेंच ने बिना भावुक हुए निकेता की याचिका को मुख्य रूप से तीन आधारों पर ठुकराया। पहला आधार मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट 1971 की धारा-3 को बनाया। इसके तहत किसी भी “गंभीर विकलांगता’ को तय करने के लिए दो रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स की राय लेना आवश्यक होता है। हाईकोर्ट ने मुंबई के जेजे अस्पताल से इस सिलसिले में राय ली जिसकी पहली रिपोर्ट में कहा गया था कि अधिक संभावना यही है कि बच्चा विकलांग और अक्षम रहेगा। लेकिन कोर्ट द्वारा दुबारा रिपोर्ट मांगे जाने पर इसी अस्पताल ने कहा कि यह संभावना बहुत कम है कि बच्चा विकलांग होगा। इस रिपोर्ट की रोशनी में अदालत ने कहा कि चिकित्सा विशेषज्ञों की ऐसी कोई ठोस राय नहीं है जिसके आधार पर यह अनुमान लगाया जाए कि बच्चा गंभीर विकलांगता के साथ पैदा होगा। फैसले का दूसरा आधार रहा एमटीपी एक्ट की धारा-5 जिसमें कहा गया है कि 20वें हफ्ते के बाद गर्भपात की अनुमति तभी दी जा सकती है जब महिला के स्वास्थ्य को जबरदस्त खतरा हो। अब याचिका में ऐसा कोई संकेत नहीं था कि निकेता के स्वास्थ्य को खतरा है। खतरे की आशंका होने वाले बच्चे के संदर्भ में प्रकट की गयी थी और कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत पैदा होने के बाद बच्चे को खतरे का अनुमान लगाकर उसे भ्रूणावस्था में ही नष्ट कर दिया जाए। इसलिए अदालत ने कहा कि सिर्फ इच्छा के आधार पर किसी महिला या डॉक्टर को गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती। फैसले का तीसरा आधार यह था कि कानून में संशोधन करने का अधिकार विधायिका को है, न कि अदालत को। हालांकि अदालत जब कानून की व्याख्या करती है तो वह ऩजीर बन जाती है और ऩजीर भी एक किस्म का संशोधन ही होती है। लेकिन निकेता के मामले को अदालत ने ऐसा अपवाद नहीं समझा जिसमें विवेक का इस्तेमाल करके कानून की नई तरह से व्याख्या की जाती।

इस लिहाज से देखा जाए तो मौजूदा कानून की रोशनी में बॉम्बे हाईकोर्ट का उक्त फैसला बिल्कुल सही प्रतीत होता है। लेकिन इस मामले में कानून, चिकित्सा विज्ञान, सामाजिक व आर्थिक सरोकार, नैतिकता और मानवीय मूल्यों के इतने अधिक पहलू समाये हुए हैं कि इस पर आगे आने वाले दिनों में अलग-अलग दृष्टिकोणों से बहसें होती रहेंगी। दरअसल कई सवाल हैं जिनका जवाब मिलना बहुत जरूरी है। क्या महिला को यह फैसला करने का अधिकार है कि वह किस बच्चे को जन्म देना चाहती है और किसको नहीं? क्या भ्रूण को जीवन का अधिकार है? जो सरकार बच्चे के पालने में कोई आर्थिक मदद नहीं देती क्या उसे किसी नागरिक पर जोर डालना चाहिए कि वह विकलांग या बीमार बच्चा पैदा करे? आदि।

निकेता व हरीश ने अपनी याचिका में कहा था कि उनका सम्बंध एक मध्यवर्गीय परिवार से है और वे हर पांच साल पर पेसमेकर पर एक लाख रुपये खर्च नहीं कर सकते। गौरतलब है कि जिन डॉक्टरों से मेहता दंपति ने संपर्क किया था उनकी राय यह है कि इस बात की संभावनाएं अधिक हैं कि बच्चे के पैदा होते ही उसे पेसमेकर पर रखा जाए और पेसमेकर 4-5 साल ही चलता है यानी इस अवधि के बाद फिर ऑपरेशन करके पेसमेकर लगाना होगा जिसमें न सिर्फ खर्च आयेगा बल्कि बच्चे को इंफेक्शन का भी खतरा रहेगा। खर्चे के अलावा जो भावनात्मक व अन्य परेशानियां होंगी, उनसे भी मेहता दंपति को ही गुजरना पड़ेगा। इसमें राज्य, मेहता दंपति की कोई मदद नहीं करेगा। इसलिए एक तर्क यह दिया जा रहा है कि ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे में अंतिम फैसला राज्य का नहीं बल्कि माता-पिता का होना चाहिए।

लेकिन यह तस्वीर का एक ही रुख है। सबसे पहली बात तो यह है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि पैदा होते ही निकेता के बच्चे को पेसमेकर की आवश्यकता पड़ेगी। गौरतलब है कि अपने देश में औसतन हर 125 बच्चों में से एक बच्चा हार्ट डिफेक्ट के साथ पैदा होता है। इन रोगियों में से 78 फीसद की संभावना स्वस्थ बालिग जीवन व्यतीत करने की होती है। इसलिए जब जीवन की इतनी ज्यादा उम्मीद है तो फिर भ्रूण हत्या (जिसे हाईकोर्ट मर्सी किलिंग से अलग नहीं मानता) क्यों की जाए? फिर भ्रूण को भी तो जीवन का अधिकार है। यहां हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 12वें सप्ताह के बाद गर्भपात कराने पर मां के जीवन को जबरदस्त खतरा रहता है। विशेषज्ञों के अनुसार देर से गर्भपात कराने पर यूटेरस स्टैस के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होता जिससे मां को ब्लीडिंग या पोस्टपार्टम हैमरेज का खतरा पांच गुना अधिक बढ़ जाता है। संभवतः इसी को मद्देनजर रखते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि विधायिका ने सोच-समझ कर ही गर्भपात की सीमा 20 हफ्ते की रखी है।

गौरतलब है कि एमटीपी एक्ट का मुख्य उद्देश्य कोख में कन्याओं के कत्ल को रोकना है। प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक (पीएनडीटी) रेग्युलेशंस एंड प्रिवेंशन ऑफ मिसयू़ज एक्ट-1994 जिसे संशोधन करने के बाद प्री-कंसेप्शन एंड प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स (प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन) एक्ट-2003 कर दिया गया, की मौजूदगी के बावजूद कन्या भ्रूण हत्याएं कम नहीं हो रही हैं। 1991 में जहां 0-6 वर्ष आयुवर्ग में प्रति हजार पुरुष 945 महिलाएं थीं, वहीं 2001 में यह संख्या घटकर 906 रह गयी। यह स्थिति और भी चिंताजनक हो जायेगी अगर 20 हफ्ते के बाद भी गर्भपात की अनुमति दे दी गयी। उस स्थिति में तो बहुत आसानी से किन्हीं भी दो डाक्टरों से लिखवाया जा सकता है कि भ्रूण को बीमारियों का जबरदस्त खतरा है और इस तरह कन्या भ्रूणों को नष्ट किया जा सकता है।

इन तमाम दृष्टिकोणों को मद्देनजर रखते हुए यह कहना गलत न होगा कि बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला भले ही निकेता के पक्ष में न हो लेकिन यह अनगिनत अजन्मी निकेताओं के जीवन की काफी हद तक जमानत देता है। इसलिए अब निकेता मेहता को इस बात पर अफसोस नहीं करना चाहिए कि यह ईश्र्वर, समाज या सिस्टम का दोष है बल्कि इस उम्मीद के साथ बच्चे को जन्म देना चाहिए कि वह स्वस्थ रहेगा और लम्बा जीवन पायेगा, और चिकित्सा विज्ञान की तेज तरक्की से यह मुमकिन भी है।

 

– शाहिद ए. चौधरी

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