बंगला भाषा के प्रख्यात उपन्यासकार शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय

बंगला भाषा के अमर कथाशिल्पी शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय का व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन अनेक विषमताओं से आप्लावित है। धनाभाव की जितनी प्रवंचनाएं उन्होंने झेली हैं, उतनी शायद ही किसी ख्यातनाम साहित्यकार ने झेली हों। इन दुःखद परिस्थतियों ने उन्हें इतना झकझोरा कि वे बेहद अंतर्मुखी होते चले गए। यहां तक कि वे अपना आत्मविश्र्वास ही खो बैठे। महत्वाकांक्षी तो वे कभी रहे नहीं, अपितु आत्मगोपन ही उनका स्वभाव बन गया।

शरद के पिता मोतीलाल कल्पनालोक में विचरण करने वाले स्वच्छन्द प्राणी थे। वे सदा कल्पनालोक में विचरण करते रहते थे। उनका आदर्श था-“मुझे कल्पना की गोद में सिर रखकर सो जाने दो। मैं उस संसार को देखना चाहता हूं, जिसका यह संसार प्रतिबिम्ब है।’

ऐसे अव्यावहारिक पिता के घर 15 सितंबर, 1876 ई. को शुावार के दिन एक शिशु का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया शरदचन्द्र। यह अपने पिता की दूसरी सन्तान थे। इनके पिता बंगाल के एक छोटे-से गांव देवानन्दपुर में रहते थे। यहीं पर बालक शरद का बचपन व्यतीत हुआ।

पांच वर्ष की अवस्था में बालक शरद को इसी गांव के प्यारे पंडित बन्दोपाध्याय की पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया। किन्तु अपनी शरारतों के कारण वह शिक्षक का कोप-भाजन बना रहा। स्कूल से भागकर अपनी सहपाठिनी धीरू के साथ करौंदा खाने, मछली पकड़ने अथवा किसी मठ-मन्दिर में कीर्तन सुनने पहुंच जाता। धीरे-धीरे शरद और धीरू का यह नित्याम बन गया। बड़े सबेरे दोनों किसी बहाने घर से भाग जाते। दिनभर आमोद-प्रमोद में बिताकर शाम को घर आते और पिटते।

शैशव की इस संगिनी को आधार बनाकर शरद ने अपने उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन किया। देवदास की पारो, बड़ी दीदी की माधवी और श्रीकान्त की राजलक्ष्मी… ये सब धीरू के ही विकसित और विराट रूप हैं। विशेषकर देवदास में तो जैसे उन्होंने अपने बचपन को ही मूर्त रूप दिया है।

पिता की अकर्मण्यता के कारण कई वर्ष शरद को भागलपुर में अपने नाना के यहां रहना पड़ा। यहां भी मां भुवन मोहिनी ने अपने पुत्र को पढ़ाने का बहुतेरा प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ गया। वह घुमक्कड़ी की आदत से विवश था। आवारगी उसके रोम-रोम में समा गई थी, किन्तु उसे विभिन्न प्रकार के खट्ठे-मीठे अनुभव भी प्राप्त हो रहे थे।

झूठे बहाने बनाने और काल्पनिक कहानियां गढ़कर अपने मित्रों को सुनाने में वह सिद्घहस्त था। कभी-कभी बुराइयां भी कुछ अच्छे परिणाम वाली सिद्घ होती हैं। शरद की ये बालसुलभ प्रवृत्तियां उनके कथा-जगत में सर्वत्र मिलती हैं। अच्छी शिक्षा-दीक्षा न होने के बावजूद 15 वर्ष की अवस्था में शरद ने “कांशीनाथ का बासा’ और “कोरेल ग्राम’ कहानियां लिख डाली थीं। वह नित्य ही कोई कहानी गढ़कर अपने बाल सखाओं को सुनाता। सभी बड़े चाव से उसकी गल्प सुनते और सराहना करते। कालान्तर में उन्होंने बच्चों की अनेक कहानियां लिखीं, जिनकी आधारभूमि यही कहानियां रही हैं।

उनके पिता का निधन हो गया, तो पुनः इनकी माता को अपने पिता के पास भागलपुर में शरण लेनी पड़ी। भरे-पूरे सम्पन्न कुलीन बंगाली परिवार का अनुशासन उन्हें रास नहीं आया। शरद की आवारगी बढ़ती रही। यहां इनका एक मित्र था, राजू, जो वेश्याओं के यहां जाता और नृत्य-गान का आनन्द लेता था। उसके साथ में यह भी महफिलों में शरीक होने लगे।

मंसूरगंज में कालिदासी नाम की एक वेश्या थी, जो थी तो पर्याप्त संपन्न किन्तु कुछ सात्विक विचारों की थी। शरद के प्रति वह बहुत ही आदर रखती थी। शरद का गला बहुत मधुर था। वे कुछ नाटकों में अभिनय भी करने लगे तथा कालीदासी के साथ इनके संबंध बहुत निकट के हो गए। अब तक वे लगभग 19-20 वर्ष के युवा हो चुके थे। “देवदास’ की संरचना भी प्रारंभ कर दी थी। अस्तु, देवदास की चन्द्रमुखी इसी कालीदासी का परिवर्तित एवं परिवर्धित रूप है।

बंगाल में नवजागरण का युग प्रारंभ हो गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य जगत में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उनकी कविताओं, कहानियों को आदर्श माना जाता था। शरद भी उन्हें अपना आदर्श लेखक मानकर चल रहे थे, किन्तु उनकी कहानियां बंगाली समाज में व्याप्त कुरीतियों, विधवाओं की दुर्दशा, गरीबी, भुखमरी और बीमारियों आदि का चित्र खींच देती थीं। शरद स्वयं अपनी रचनाओं को स्तरीय नहीं मान पाते थे। कई कहानियां अपने मित्रों के नाम से छपवाते थे। “बोझा’ कहानी शरद ने अपने मामा सुरेन्द्रनाथ के नाम से प्रकाशित करवाई थी।

माता के निधन के पश्र्चात वह सचमुच ही अनाथ हो गये। मां उनके योगक्षेम का भरसक ध्यान रखती थी। अब उनके सामने अपने छोटे भाइयों के भरण-पोषण का दायित्व भी था। इस समय तक शरद कहानी लेखक के रूप में सम्मान पाने लगे थे। लोगों का मानना था कि बंगाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर के अतिरिक्त इतनी सुन्दर कहानियां कोई दूसरा नहीं लिख सकता।

समाज में वह बदनाम शरीफ के रूप में जाने जाते थे। वह गायन, अभिनय, बांसुरीवादन, सेवाभाव तथा परदुःख कातरता के कारण सम्मान पाते थे, किन्तु रोजी-रोटी का कोई उपयुक्त साधन न होने के कारण तथा जी खोल कर दूसरों को सहायता दे डालने के कारण सदा तंगहाल रहते थे। इसी अन्तर्द्वंद्व में उलझे वह एक दिन अपने एक परिचित के पास रंगून जा धमके। वहां भी गरीबों व बीमारों की सेवा करते रहे। उनकी आंखों की गहरी भेदक चमक नारियों को अपनी ओर सहज ही आकृष्ट कर लेती थी। यहां विवाह भी किया, किन्तु पत्नी का कुछ वर्षों के बाद ही प्लेग में देहान्त हो गया। वह अकेले के अकेले बने रहे।

– डॉ. दुर्गाप्रसाद शुक्ल

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