बदल रहे हैं हमारे संस्कार

sanskarविवाह, गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण आदि 16 कृत्य जो जन्म से मरण पर्यन्त शास्त्र में बतलाए गए हैं, “संस्कार’ कहलाते हैं। इनके लिए विधि-विधान निश्र्चित है। वैसे संस्कार का अर्थ “सुधार’ भी है। मनोवृत्ति या स्वभाव का शोधन, त्रुटि का दूर होना, शुद्घि पवित्र करना, धारणा, विश्र्वास, इंद्रियों पर बाह्य विषयों से पड़ने वाला प्रभाव भी संस्कार कहलाता है। पूर्वजन्म का अर्जित गुण-दोष, शिक्षा, उपदेश, संगत आदि से चित्त पर पड़ने वाला प्रभाव भी संस्कार की परिभाषा में आता है।

वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो एक नितांत भयावह अनुभूति होती है। अमेरिका जैसे देशों में घटित होने वाली घटनाएं अब यहां भी घटने लगी हैं। हाल ही में स्कूली बच्चों द्वारा अपने सहपाठियों पर जानलेवा हमलों की कुछ घटनाएं एक के बाद एक प्रकाश में आई हैं। इन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया तो इनकी पुनरावृत्ति होने में देर नहीं लगेगी। किसी भी दिन का समाचार-पत्र उठाकर देख लीजिए या कोई भी टी.वी. चैनल खोल लीजिए, बलात्कार की कई घटनाएं पढ़ने-देखने को मिल ही जाएंगी। उनमें भी बहुत-सी दुधमुंही बच्चियों के साथ। पुराने जमाने में कहा जाता था कि “डायन भी एक घर तो छोड़ ही देती है।’ यह भी मान्यता थी कि “गुण्डे-मवाली भी अपने मुहल्ले में वारदात नहीं करते थे।’ आज उस “मर्यादा’ का भी उल्लंघन खुलेआम होने लगा है। पड़ोसी जिसे “हमसाया-मा-पियू जाया’ कहा और माना जाता था, वह भी कब क्या कर डाले, अब कोई भरोसा नहीं रहा।

किशोर-किशोरियां ही नहीं स्कूली बच्चों द्वारा आत्महत्याओं के समाचार हर शहर के अखबारों में निरन्तर पढ़ने को मिलते हैं। लगता है, जैसे एक लहर-सी चल पड़ी हो। आत्महत्या जैसी लोमहर्षक िाया को मानो एक खेल समझ लिया गया है, इन कच्ची उम्र के बच्चों ने। माता-पिता, परिवार के लिए कितनी पीड़ादायक और त्रासद होती हैं, ऐसी घटनाएं शायद इसका अनुमान तक भी उन्हें नहीं होता।

“परिवर्तन’ प्रकृति का नियम है। विकास हेतु भी परिवर्तन अनिवार्य माना गया है। हर पुरानी परम्परा उचित अथवा हितकारी ही हो, यह भी आवश्यक नहीं है, किन्तु हर पुराने रीति- रिवाज व नियम को आधुनिकता के जुनून में नकार देना भी गलत है। रीति-रिवाज व नियम वर्षों के अनुभव के परिणामस्वरूप प्रचलन में आते हैं तथा समाज की सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप होते हैं। इधर, कुछ समय से विशेषकर 21वीं शताब्दी के आगमन के उपरान्त हमारे सामाजिक व्यवहार, वैचारिक दृष्टिकोण, पारिवारिक मान्यताओं आदि में सामान्य से कहीं बढ़कर परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ है। शायद यह बढ़ते वैश्र्वीकरण, बाजारवाद, आधुनिकता की तीव्र होती लहर का प्रभाव है। परिणामस्वरूप हमारे चरित्र की दिशा और दशा में भी बदलाव के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं।

मानव चरित्र के निर्माण में संस्कारों का प्रमुख दखल रहता है। संस्कार पूर्व-जन्मों के भी होते हैं। शिशु, माता-पिता, परिवार के बड़े-बूढ़ों, गुरु-शिक्षक आदि से भी संस्कार ग्रहण करता है। यह संस्कार मन-मस्तिष्क में गहरे पैठ जाते हैं और मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी “जीन्स’ के आस्तत्व और प्रभाव को स्वीकार किया है। पूर्व-जन्मों के संस्कारों के प्रमाण तो दिन-प्रतिदिन के जीवन में भी निरन्तर मिलते रहते हैं, किन्तु अफसोस की बात यह है कि आज की दुनिया में संस्कारों की ही बेहद किल्लत हो गई है।

माना जाता रहा है कि संस्कार मां की कोख और गोद से मिलते हैं। पर आज वस्तुस्थिति यह है कि संयुक्त परिवार की सदियों पुरानी प्रथा के विखण्डन तथा माइाो-फैमिली के प्रचलन के परिणामस्वरूप बड़े-बूढ़ों की विद्यमानता तो समाप्त प्रायः हो गई है। पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं। व्यस्तता और भागमभाग का नाम ही वर्तमान जीवन-शैली हो गया है। बच्चा स्कूल से लौटकर स्वयं ताला खोलकर अकेलेपन से जूझने को अभिशप्त है। माता-पिता अपनी-अपनी व्यस्तताओं के चलते बच्चे को समय और सान्निध्य दे पाने की असमर्थता की प्रतिपूर्ति अधिक से अधिक जेबखर्च और महंगे से महंगे खिलौने आदि से करने को विवश हैं। ऐसे में भला संस्कारों की बात किसी को सूझे भी तो कैसे? और नतीजा हमारे सामने है।

संस्कारों से जुड़ाव केवल हम हिन्दुओं में ही रहा हो, ऐसी बात नहीं है। संस्कार अन्य धर्मावलंबियों के जीवन में भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं, चाहे वहां उन्हें “संस्कार’ की संज्ञा न दी जाती हो, किन्तु संस्कारों के प्रति सर्वाधिक शिथिलता एवं उदासीनता हम हिन्दुओं में ही देखने में आती जा रही है।

संस्कारों से विचार तथा विचारों से व्यवहार आकार लेता है। आज की निरन्तर बढ़ती उच्छृंखलता, अराजकता, अनैतिकता का एक प्रमुख कारण संस्कारों के प्रति हमारी उदासीनता एवं अवहेलना भी है। संस्कारों का महत्व हमेशा से रहा है।

संस्कारों की प्रासंगिकता, अनिवार्यता एवं उपादेयता आज के परिवेश में और भी अधिक महसूस की जा सकती है। आवश्यकता है, आज की पीढ़ी को हमारी प्राचीन परम्पराओं तथा संस्कारों के महत्व से परिचित कराने हेतु बिना और अधिक विलम्ब किए एक प्रभावी मुहिम चलाने की, जिसमें हर अभिभावक का अधिक से अधिक योगदान हो। यही समय की मांग है, जिसे और अनदेखा करना समाज के लिए अनिष्टकारक हो सकता है।

– ओमप्रकाश बजाज

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