बॉंट कर खाना यज्ञ है

लगभग बाईस हजार साल पूर्व उद्दालक ऋषि हुए। उषस्ति चक्रायण भी उसी युग के एक महान ऋषि थे। दोनों के पास अलग-अलग तरह का ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने के लिए शिष्यों का आवागमन होता था। उस समय गुरुओं का शिक्षा देने का ढंग भी अनोखा होता था।

उद्दालक ने उषस्ति चक्रायण को ध्यान में रखकर अपने एक शिष्य से कहा, “”मैं तुम्हें एक वस्तु दे रहा हूँ। यह लेकर जाना और उषस्ति चक्रायण ऋषि को देकर आना।”

उद्दालक ऋषि ने एक द्राक्षा अर्थात् किशमिश उठाई और अपने उस शिष्य को देकर कहा, “”इसे लेकर जाओ और उषस्ति चक्रायण ऋषि को देना। वहॉं जो उनके पास हजारों शिष्य बैठे होंगे, उन्हें कहना कि उन सबको बॉंट कर खायें, सबको देकर फिर खुद भोग लगाएँ।”

उद्दालक ऋषि का वह शिष्य छोटी-सी एक किशमिश उषस्ति चााायण के पास लेकर पहुँच गया। जाते ही उसने कहा, “”हमारे गुरुदेव ने आपके लिए प्रसाद भेजा है, भेंट भेजी है, आप इसे ग्रहण कीजिए। यह जो आपके हजारों शिष्य बैठे हैं, इन सबमें बांटकर फिर आप ग्रहण करें।”

जितने भी शिष्य वहां बैठे थे, उन्हें गुस्सा आ गया। गुरुदेव का अपमान करने की कोशिश की जा रही है, एक छोटी-सी किशमिश को सबमें कैसे बांटा जा सकता है?

उषस्ति चक्रायण ने शिष्यों की तरफ देखा और एक को बुलाकर कहा, “”वह जो वहॉं प्रसाद तैयार हो रहा है, ठण्डाई तैयार की जा रही है, उसमें ले जाकर इस किशमिश को डाल देना। ओखली में वहॉं जाकर इस किशमिश को घोट देना और इसके बाद जो ठण्डाई तैयार हो, वह सबको बांटना और जो प्रसाद बचे हमारे लिए भी लेकर आना।” शिष्यों लोगों ने एक गहरी सांस ली और कहा, “”वाह-वाह! हमारे गुरुदेव महान हैं।”

उषस्ति चक्रायण ने अपने सामने रखे हुए यज्ञ के साकल्य, यज्ञ में प्रयोग की जाने वाली, हवन में प्रयोग की जाने वाली सामग्री से एक तिल उठाया और ऋषि उद्दालक के शिष्य से कहा, “”खाली हाथ नहीं जाना। अपने गुरुदेव के पास यह तिल लेकर जाना और उन्हें कहना, खुद भी खाएं और सारे संसार को भी भोग लगाएं। इसका प्रसाद प्राणिमात्र को मिलना चाहिए।”

अब जितने शिष्य वहॉं बैठे थे, बहुत हंसने लगे और खुश हुए। “”वाह-वाह! हमारे गुरुदेव ने उधर वाले गुरुदेव को हिलाने के लिए रास्ता ढूंढ लिया है।” अब इतनी-सी सूक्ष्म चीज को, इतने से तिल को, सारे संसार को खिलाना है, समस्त मनुष्य मात्र को खिलाना है, पशु जगत् को भी खिलाना है, कीट-पतंगों को भी खिलाना है, चींटियों और कीड़े-मकोड़ों को सबको देना है और फिर खुद भी खाना है।

गुरु उद्दालक का शिष्य उषस्ति चक्रायण के दिये हुए उस प्रसाद को, तिल को, हाथ में लेकर बड़े प्यार से जाता है, लेकिन मन में शंका इस बात की है कि गुरुदेव का कोप कहीं मेरे सिर पर न गिरे, गुस्से में न आ जाएँ कि तू यह क्या करके आया है? फिर भी उसने सोचा, महापुरुषों की बातें महापुरुष ही जानते हैं, ऋषियों की बात ऋषि ही जानते हैं, हम लोगों की बुद्घि तो वहॉं तक पहुँच भी नहीं सकती, हम क्यों निर्णय करें? वह तिल लेकर आ गया।

ऋषि उद्दालक के शिष्य ने जब सारी बात बतायी तो उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और कहा, “”भाई, उस महापुरुष ने हमारे लिए, परमात्मा के लिए किये गये एक और महान कार्य को, एक अच्छा कार्य करने के लिए निमंत्रण दिया है। सबसे कहा कि यज्ञवेदी की तरफ चलो, समस्त प्राणिमात्र को भोग लगाने का समय आ गया है।”

सब यज्ञवेदी पर बैठे और उसी के साथ उन्होंने कहा, “”अग्निवै मुखं देवानाम्” अर्थात् समस्त देवताओं का मुख है अग्नि, अग्नि को अगर यह तिल भेंट कर दी जाये, तो वह अग्नि समस्त देवताओं को, समस्त प्राणिमात्र को पूरी ईमानदारी से भेंट बांट देगी और यही हमारे पास भी पहुँच जाएगा।”

हवन करते समय जब आहुति दी जाती है तो बीच वाली जो दो उंगलियॉं होती हैं, उनका प्रयोग करना चाहिए। एक तो अनामिका (नाम नहीं चाहिए), दूसरी मध्यमा (बड़ी उंगली थी – छोटी होकर यहॉं आयी है, झुकना, विनम्रता) और अंगूठा लगाया जाये। आज भी हिन्दुस्तान की कचहरी में अंगूठे का निशान चलता है। हस्ताक्षर करने के बाद भी कहते हैं, अंगूठा लगाओ, जमीन-जायदाद का मामला है। हस्ताक्षर की कोई नकल कर लेगा, लेकिन भगवान् का हस्ताक्षर अंगूठे में है, तुम्हारी पहचान अलग से बनायी गयी है। इसकी कोई नकल नहीं करेगा, इसीलिए अंगूठा लगाओ।

उद्दालक ऋषि ने दोनों उंगलियों को अनामिका, मध्यमा और अंगूठे को मिलाया, तिल बीच में लिया और कहा “अग्नये स्वाहा इदम् अग्नये इदं न मम’ अग्नि के लिए आहुति दी, अग्निदेव ग्रहण करो और वह फिर संसार के लिए बंट गया। जिस समय उषस्ति चााायण को पता चला तो उन्होंने अपने शिष्यों को बैठाकर कहा, “”तुम्हें थोड़ा मिला है या ज्यादा, इसकी परवाह नहीं करना। लेकिन जितना है, उतने में से बांटकर खाओ तो तुम्हारा वह कर्म यज्ञ बन जाएगा और परमात्मा को तुम्हारा कर्म स्वीकार होगा, तुम्हें आनन्द देगा।” उद्दालक ऋषि ने भी कहा, “”उषस्ति चााायण ने संदेश भेजा है, बांटना। लो और आगे दो, इसी से जगत में कल्याण है, इसी में आनन्द है। प्राप्त करने और आगे बांटने का परिणाम यह होगा कि उस चीज का स्वाद बढ़ जाएगा।”

निष्काम भाव से समाज के लिए मंगल कामना से युक्त होकर सात्विक कर्म करना ही यज्ञ कहलाता है। ऋषि-मुनियों के द्वारा किये हुए याज्ञिक कर्म सात्विक होते हैं। वे देश-काल से बंधकर कर्म नहीं करते। उनकी तो भावना होती है, “सर्वे भवन्तु सुखिनः’। वे महापुरुष ऐसा कदापि नहीं कहते कि “ब्राह्मणा भवन्तु सुखिनः’ अथवा “भारतवासिना सुखिनः सन्तु’ अपितु विश्र्व के अभ्युदय के लिए मंगल-कामना करते हैं। जो कार्य हम मात्र अपने लिए न करके मानव मात्र के उत्थान के लिए करते हैं, वही कर्म-यज्ञ कहलाता है।

यज्ञधर्म

मानवता और यज्ञ का परस्पर घनिष्ट संबंध सृष्टि के प्रारंभ काल से चला आ रहा है। वस्तुतः देखा जाए तो मानव के जीवन का प्रारंभ ही यज्ञ से होता है। गीता ज्ञान-गंगा के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण मानव मात्र को संदेश देते हुए कहते हैं कि – “”सहयज्ञ, प्रजाः सृष्ठवा पुरोवाचः च प्रजापते।”

जिस प्रकार मानव के लिए अपने जीवन में मानवता का रक्षण और पालन आवश्यक है, उसी प्रकार उसके लिए यज्ञ का रक्षण और पालन भी परमावश्यक है। यज्ञीय भावना के बिना मानव की और मानव में रहने वाली मानवीयता की रक्षा मुश्किल है। बल्कि रक्षा हो ही नहीं सकती। अतः मानव को अपने जीवन के सर्वविद् कल्याणार्थ यज्ञधर्म को अपनाना चाहिए।

 

– सुंधाशु महाराज

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