भारत के रत्न – स्वामी विवेकानंद

Swamy Vivekanandaवेदांत और अध्यात्म के दीप-पुरुष स्वामी विवेकानंद उन गिने-चुने संन्यासियों में से हैं, जिनकी कीर्ति दुनिया के कोने-कोने में बिखरी हुई है। भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म के प्रकांड विद्वान स्वामी विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। 12 जनवरी, सन् 1863 को उनका जन्म कोलकाता में हुआ था। 16 वर्ष की आयु में नरेन्द्रनाथ दत्त ने कलकत्ता से इंट्रेंस की परीक्षा पास की। अपने विद्यार्थी जीवन में विवेकानंद बेहद मेधावी और महान जिज्ञासु छात्र के रूप में प्रसिद्ध थे। जब वह बड़े हुए तो उन पर पश्र्चिम के नास्तिकवादी दार्शनिक हर्बर्ट स्पेंसर का गहरा प्रभाव पड़ा। लेकिन जब वह अपने युग के महान संत और समाज सुधारक श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले तो वह महान आस्तिक विवेकानंद में बदल गये। स्वामी विवेकानंद श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्य थे। वह भारत के महान आध्यात्मिक गुरु और प्रभावशाली वक्ता थे। श्री रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा ग्रहण करने के बाद स्वामी विवेकानंद ने आजन्म संन्यासी जीवन बिताने का व्रत लिया। उन्होंने सन् 1890 में पूरे भारत की विस्तृत यात्रा की। वास्तव में उन्हीं दिनों वह नरेन्द्रनाथ से स्वामी विवेकानंद में बदले। 31 मई, सन् 1893 को वह अमेरिका में हो रहे “सर्वधर्म सम्मेलन’ में शिरकत करने के लिए पहुँचे। वहां 11 सितम्बर, 1893 को उन्होंने अपना वह ऐतिहासिक भाषण दिया, जिसे सुनकर दुनिया भर के धर्मशास्त्रियों और विद्वानों का सिर उनके समक्ष श्रद्धा से झुक गया। गौरतलब है कि वह इस सम्मेलन में बतौर वक्ता आमंत्रित नहीं थे। लेकिन अपने तूफानी भाषण के बाद वह उस धर्म-सम्मेलन के चुम्बकीय व्यक्तित्व बन गये। उनके धर्म व अध्यात्म से पगे, रोमांचित कर देने वाले भाषण के बाद लाखों लोग उनका शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए लालायित हो उठे।

स्वामी जी अमेरिका से सन् 1895 में इंग्लैंड रवाना हुए और वहां भी भारतीय धर्मों व दर्शन का प्रसार किया।

सन् 1897 में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और अमेरिका में वेदांत सोसायटी तथा शांति आश्रम की स्थापना की। विवेकानंद के अमेरिका और यूरोप भ्रमण के बाद वहां बसे भारतीयों को अपनी संस्कृति और राष्ट्रीयता से गौरव की अनुभूति हुई।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अवसान के बाद स्वामी विवेकानंद ने भारतीय अध्यात्म और मानवतावाद के प्रचार का बीड़ा उठाया। मगर 8 जुलाई, 1902 को अल्पायु में ही वह स्वर्ग सिधार गये। “योग’, “राजयोग’ तथा “ज्ञानयोग’ जैसे महान ग्रंथों की रचना करके विवेकानंद ने युवा जगत को एक नई राह दिखायी। जिसका प्रभाव जब तक भारतीय सभ्यता व संस्कृति है, अक्षुण्ण रहेगा।

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