मनःशक्ति का मायावी जखीरा

मानवीय मन-मस्तिष्क को शरीर का संचालन और नियमनकर्त्ता माना जाता है। मनःशास्त्री इसे शरीर का स्वामी मानते हैं, किंतु भारतीय तत्त्व-दर्शन मन को शरीर का संचालन करने के लिए आत्मा द्वारा नियुक्त एक कर्मचारी मात्र मानता है। उसकी सुसंस्कारिता, सुगढ़ता, पवित्रता-प्रखरता न केवल मनुष्य के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य, वरन आत्मोत्कर्ष का भी आधार बनती है। पारिवारिक, सामाजिक सुव्यवस्था एवं उसके सुसंचालन में मनःशक्ति की न्यूनता या प्रबलता ही लड़खड़ाने या संभालने का आधार बनती है। जो परम चेतनाशक्ति अपने संकल्प मात्र से इतने बड़े विश्र्व-ब्रह्मांड का सृजन कर सकती है, उसे बना और बिगाड़ सकती है, उससे मानसिक-आत्मिक रूप से संबद्घ होकर मनुष्य न केवल अपने को स्वस्थ और सुखी रख सकता है, वरन जन-समुदाय में, समाज में समस्वरता व समरसता भी बनाये रख सकता है।

कुसंस्कारी मन-मस्तिष्क एक छुट्टल सांड की तरह है, जो केवल सब कुछ तहस-नहस करना ही जानता है। इस संदर्भ में प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. जोसे एम.आर. डेलगैडो की श्रृंखला में उन्होंने एक सांड की खोपड़ी में कुछ इलेक्टोड लगा दिये थे। तदुपरांत उसे लाल रंग का झंडा हिलाकर उत्तेजित किया गया। वह खूंखार होकर लड़ने-मारने के लिए उद्यत हो गया। उसकी आँखें लाल हो गयीं, नथुने फूल गये। वह आामण करता, उससे पहले ही डॉ. जोसे ने अपने हाथ में रखे रेडियो टांसमीटर के माध्यम से संकेत दिया, जिसके फलस्वरूप सांड का ाोध काफूर हो गया और वह चुपचाप एक ओर हटकर चला गया।

आधुनिक अनुसंधानकर्त्ता, मनोवेत्ताओं, चिकित्सा विज्ञानियों एवं परामनोविज्ञानियों ने अपने-अपने ढंग से मन-मस्तिष्क की जांच-परख की है और तदनुरूप ही उसका विभाजन किया है। किसी ने उसकी चेतना की अचेतन मन के रूप में व्याख्या की है तो किसी ने उसे उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्द्घ में विभक्त किया है। किसी ने मस्तिष्क के दाहिने भाग का संबंध सूर्य से जोड़ा है तो बायें का संबंध चंद्रमा से बताया है। दोनों भागों में समन्वय बने रहने पर ही प्रगति का मार्ग खुलता है। देश, काल, परिस्थितियों, सभ्यताओं, संस्कृतियों, संस्कारों आदि सभी का मिला-जुला रूप हमारा मन-मस्तिष्क है। इसके आधे भाग पर एक का कब्जा है तो दूसरे भाग पर दूसरे का। टकराव का एक यह भी कारण है।

सुप्रसिद्घ ब्रिटिश मनीषी रोबर्ट ग्रेव ने दोनों संस्कृतियों का मूल्यांकन अनूठे ढंग से किया है। उनका कहना है कि पश्र्चिमी विचारधारा मस्तिष्क के जिस भाग की उपज है, उसे “सोलर नॉलिज’ अर्थात् सूर्य जानकारी या ज्ञान कहा जा सकता है, जबकि पौर्वात्य विचारधारा का संबंध “लूनर नॉलिज’ अर्थात् चांद्र विचारधारा से है। सचेतन मन की उपज सौर प्रकार की काव्यधारा है, जिसे बुद्घिजीवी ही समझ सकते हैं, जबकि चांद्र काव्यधारा में भाव की प्रधानता होती है और इसकी उत्पत्ति सचेतन मन के बाहर से और संभवतः ईश्र्वर के द्वारा होती है। इसे वे अचेतन मन की संज्ञा देते हैं।

वस्तुतः सचेतन मन संपूर्ण मन का एक अंश मात्र है एवं बाकी के अचेतन का उपयोग किंचिन्मात्र-सा होता है। प्रायः वह हर व्यक्ति में निषिय पड़ा रहता है। अचेतन मन अपने आप में एक गुच्छेदार परिमाण में बुद्घिमानी, अतींद्रिय सामर्थ्य एवं सौंदर्य रूपी स्वर्ण की खदान है और अतीत की स्मरण शक्ति से दबा पड़ा रहता है। यदि किसी तरह से आत्मिकी की इस स्वर्ण खदान को खोदा जा सके अथवा उसकी शक्ति को जाग्रत किया जा सके, तो उस शक्ति का उपयोग नूतन व्यक्तित्व को गढ़ने में किया जा सकता है।

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