मनुष्य को पशु बनाने वाले दो जहर

नशा और वासना में पशु बनने की बड़ी सुविधा है। इनसे इन्सान आसानी से पशुता की ओर बढ़ चलता है। नशा इन्सान को बेहोश करता है और वासना अंधा। बेहोशी और अंधापन, दोनों ही पशु के गुण हैं। हर इन्सान में देवत्व और पशुत्व होते हैं। चूंकि इन्सान की विकास-यात्रा निम्नत्तर से उच्चतर की ओर होती है अर्थात् पशु-योनि से इन्सान देव-योनि की ओर बढ़ता है, किंतु पशु-योनि की आदतें, संस्कार आदि सभी कुछ से वह अभ्यस्त रहता है, अतः उसे इस ओर आने में बड़ी सुविधा एवं सहजता मालूम होती है और वह नशा और वासना, दोनों के माध्यम से पशुता की ओर आगे बढ़ता चला आता है, जबकि पशुता से दूरी का तात्पर्य है – देवत्व की ओर यात्रा, परंतु यह कठिन डगर है।

नशा और वासना, दोनों ही हमारे अंदर की बर्बरता को उभारते हैं एवं हमें अंतहीन प्यास के मुकाम पर ऐसा खड़ा करते हैं कि कभी भी इससे तृप्ति मिल ही नहीं पाती और अंतर की कलुष इच्छा भोग के साथ भड़कती रहती है। सामान्य समय में हम इनका उपयोग नहीं करते, परंतु जैसे ही मन एवं भाव को घात पहुँचाने वाली विषमता आती है तो हम इनसे जूझने के बजाय पलायन करते हैं। अंत में भागकर हम इन्हीं की शरण में आ जाते हैं। कुछ समय का आत्मघाती सुकून पाने के बाद फिर से इस ओर वापस मुड़ते हैं। इस प्रकार जीवन में जब भी कठिनाई आती है, हम इनका उपयोग करने लगते हैं। इस प्रकार हम इनके आदी हो जाते हैं और ये हमें अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं।

बेहोश आदमी को होश कब रहता है। बेहोश इन्सान नशा और वासना के बिना चैन नहीं पाता। नशा उतरे और कुछ पल के लिए यदि जमीर जागा भी तो शाम को फिर सारे संकल्प धूल-धूसरित हो जाते हैं और व्यक्ति कोने में पड़ा कराहता रहता है। फिर उसके भीतर व्यक्ति नहीं नशा बोलता है। इसकी आत्मघाती धुन में प्राणों को जलाए शरीर थिरकता है और घुलता जाता है। ठीक यही कहानी वासना की है। कामुक व्यक्ति का कोई रिश्ता नहीं होता। उसका मलिन मन तो बस एक ही रिश्ता ढूंढ़ता है और वह है कामुकता का। वासना तो कुत्ते के जबड़े में हड्डी के समान है, जिसे चबाते हुए कुत्ता अपनी दाढ़ से रिसते लहू को हड्डी का स्वाद मानकर चबाता चला जाता है।

कौन समझाए कि वासना में प्राण की अपार क्षति होती है और नशा धीरे-धीरे प्राणों को जला डालता है। दोनों ही महाठग हैं और समझदार इनसान भी इनसे ठगा जाता है। यह आधुनिक समाज का एक कडुआ सच है। आधुनिक समाज में इन दोनों के प्रचलन में कोई बुराई नहीं मानी जाती। आज के समाज के सभी मूल्य एवं मानदंड दोनों को जायज ठहराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। जब समाज के मूल्यों का इतना अवमूल्यन हो जाये कि विष को अमृत मानकर उसे चटखारे लेकर पीने लगे, तो ऐसे समझदारों की नासमझी को क्या कहा जाय! ऐसे रुग्ण समाज और इसमें रहने वाले अस्वस्थ व्यक्तियों का तो फिर कहना ही क्या! तथाकथित आधुनिक समाज की यह हकीकत है।

आंकड़ों के आइने में देखें तो नशा एवं वासना, दोनों ने ही मासूम किशोरों को अपने चंगुल में कर लिया है, जिन्हें जिंदगी के सही मायने नहीं मालूम, आज इस सर्वनाशी दौड़ में बहुत आगे बढ़ चुके हैं। पता नहीं, यह अंधी दौड़ कहॉं ले जाकर छोड़ेगी। हम इन्सान हैं, इसे भुला देता है नशा। हमें पतित बनाती है वासना, इसलिए इसके लिए मर्यादाओं की सीमाएँ खींच दी गयी हैं, परंतु आज सारी सीमाएं टूट चुकी हैं। इस टूटन का बड़ा दूरगामी परिणाम हो सकता है। कभी चरित्र, शील, मर्यादा, अनुशासन आदि वैयक्तिक एवं सामाजिक मूल्य तथा संपदा हुआ करते थे, पर आज इनका कोई मूल्य नहीं है। आधुनिक परिवेश में ये दोनों ही चीजें खुले ढंग से परोसी जा रही हैं। इनके प्रभाव एवं परिणाम, दोनों ही खतरनाक हैं। यह तो खून की होली है, जिसे हम अपने ही खून से खेलकर सर्वनाशी उत्सव मना रहे हैं। कैसे सब रुकेगा, कौन इसको रोकेगा, आखिर कौन है, जो षड्यंत्र रच रहे हैं और बाहरी प्रदूषण के समान नैतिक प्रदूषण संाामक रोग के समान फैलता चला जा रहा है।

आज व्यक्ति और समाज, दोनों भीषण मनोरोगों से आाांत हैं। ध्यान रहे, गलत तरीके से कभी भी श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना संभव नहीं है। इसके लिए उच्चतर प्रिायाएँ अपनानी पड़ेंगी और वह भी दृढ़ता एवं संकल्पपूर्वक। चूंकि आज समाज में धन के साथ इन्हीं चीजों को प्रतिष्ठा मिल रही है, इसलिए इनकी गति तीव्रतर एवं तीव्रतम है। यदि समाज में आदर्शवादी प्रश्र्न्नों को, जैसे- ज्ञान, स्वाध्याय, सेवा, आस्था, विश्र्वास, दया, प्रेम, करुणा आदि को प्रतिष्ठित किया जाएगा तो नकारात्मक मूल्य धीरे-धीरे कमजोर पड़ेंगे। कहा जाता है कि सतयुग में कोई व्यक्ति बीमार नहीं होता था। उस युग में कोई चोरी नहीं करता था। हिंसा, हत्या, नशा, कामुकता का कोई स्थान नहीं था। जब कोई चोरी की घटना इक्के-दुक्के घट जाती थी तो उसे अजीबो-गरीब ढंग से देखा जाता था। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उन दिनों समाज के मूल्यों में आदर्शवादी तत्त्वों की बड़ी प्रतिष्ठा थी। आज इसके ठीक उलटा होकर सब कुछ का अवमूल्यन हो गया है।

नशा बेहोशी रूपी जहर है और वासना पशुता की निशानी है। नशे का अवमूल्यन संभव है, यदि समाज में व्यापक रूप से जाग्रति लाई जा सके। यह जाग्रति जितनी अधिक होगी, इसके उन्मूलन में उतनी ही सहायता मिलेगी। जाग्रत-व्यक्ति, होश में रहने वाला व्यक्ति कभी भी ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे कि उसे उसकी अंतरात्मा धिक्कारे। यदि व्यक्ति के उस मर्म को छू लिया जाये, जहां व्यतिाम आने के कारण वह नशे का आदी हुआ है, तो संभव है, वह उसे कुछ प्रयासों में तिलांजलि दे दे, पर यह संभव है दृढ़-इच्छाशक्ति एवं सतत प्रयास के साथ। श्रेष्ठ साहित्य, श्रेष्ठ चरित्र का स्वाध्याय, सत्संग से भी इसके निराकरण में सहायता मिल सकती है।

वासना के कई कारण हो सकते हैं, परंतु व्यक्ति जब गहन पीड़ा में होता है तो वह कुछ ऐसा सुख तलाशता है, जिसमें डूबकर वह सब कुछ भूल जाये। इस प्रिाया में उसे सबसे आसान तरीका वासना में डूबना भाता है। इंद्रियों के क्षणिक सुख से जो वह खोता है, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती है। ऐसी स्थिति में समाज में ऐसे कई केंद्र होने चाहिए, जहॉं जाकर व्यक्ति अपनी बात निर्द्वंद्व भाव से कह सके और वहॉं पर उसकी भावना को पूरा सम्मान देने की व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे केंद्रों को थेरेपी सेंटर एवं स्पिरिचुअल काउन्सिलिंग सेंटर कहते हैं। आज इन्हीं संस्थाओं की अत्यंत आवश्यकता है, जहॉं व्यक्ति अपनी दमित वासनाओं की घुटन से मुक्ति पा सके। पहले जमाने में ऐसे केंद्रों की भरमार थी और इसी कारण उन दिनों वासनाओं का ऐसा विकृत एवं तीव्र उभार नहीं था।

यदि जाग्रति की यह प्रिाया सामाजिक रूप से अभियान बनाकर छेड़ी जाए, तो कोई कारण नहीं कि इन अवांछित मूल्यों से निजात नहीं पाई जा सकती, परंतु यह मात्र कहने एवं व्याख्यान व प्रवचन से संभव नहीं हो सकता। दृढ़-इच्छाशक्ति एवं संकल्पशक्ति के द्वारा सतत भगीरथ प्रयास से इसे किया जाना संभव है और यदि ऐसा होता है तो समाज से नशा एवं वासना का तीव्र प्रभाव घटेगा। इसके घटते ही अन्य सामाजिक बुराइयां भी घटने लगेंगी, क्योंकि सारी बुराइयों की यही तो जड़ है। सभ्य समाज एवं श्रेष्ठ समाज गढ़ने के लिए हमें अपने अंदर एवं समाज में इस संबंध में जागरूकता अवश्य पैदा करनी चाहिए।

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