मास्टजी

अन्य दिनों के समान उस दिन भी मास्टर जी प्रातः चार बजे जाग गये। अचानक ही उन्हें अपने रिटायरमेंट की बात याद आ गयी। वे कल ही तो रिटायर हुए। बड़े सम्मान तथा शानोशौकत के साथ स्कूल-स्टाफ और छात्रों ने उनके विदाई समारोह का आयोजन किया था। गाजे-बाजे के साथ उन्हें घर तक पहुँचा कर गये। विदाई की घड़ी के समय सभी की आँखें अश्रुपूरित थीं। छात्रों ने उनके चरण-स्पर्श करना शुरू किया, तो एक लंबी लाइन लग गयी। यह सब देखकर मास्टर जी बहुत भावुक हो गये थे। रह-रहकर उनकी आँखें सजल हो जाती थीं। भावावेश से गला रुंध जाने के कारण वे अपने विदाई – भाषण में भी कुछ ही शब्द कह पाये थे। “”बच्चों, सदा खुश रहो और अपने अच्छे-अच्छे कार्यों से इस देश को प्रगति के शिखर पर पहुंचाओ। देश पहले है और सब कुछ बाद में, इसका हमेशा ध्यान रखना। कर्त्तव्य पालन और सत्यपथ से कभी विचलित मत होना।” इतना कह कर गला रुंध जाने की वजह से बैठ गये। मास्टर जी एक आदर्श शिक्षक थे, उनका व्यक्तित्व निष्कलंक था और उनका संपूर्ण सेवाकाल बिना किसी दा़ग के रहा था। इसलिए मास्टरजी को यह सब जो मिला, उसके वे अधिकारी भी थे।

पिछले दिन का संपूर्ण घटनाचा मास्टर जी की स्मृति में कौंध गया। उन्हें लगा, जैसे तीस वर्ष की उनकी नौकरी सार्थक रही। उन्हें स्वयं पर और अपने काम पर गर्व भी हुआ। उन्होंने अपने छात्रों को हमेशा ही देशभक्ति, ईमानदारी और कर्त्तव्यपालन का उपदेश दिया और इन्हीं बातों को अपने जीवन में उतारा भी। उनके पढ़ाये हुए छात्र आज ऊँचे पदों पर हैं, जो समय-समय पर मास्टर जी को पत्र भेजते रहते हैं और उनके आशीर्वाद की कामना करते रहते हैं। उन्हें जब भी अपने पढ़ाये हुए छात्रों की ईमानदारी और कर्तव्यपालन की चर्चा सुनने को मिलती है तो उनका सीना गर्व से फूल उठता है। उनके यहां अभी चार-पांच माह पूर्व जो नया जिलाधीश आया है, वह भी उनका छात्र रह चुका है, उसका नाम प्रकाश है। उन्हें भली प्रकार याद है, नियुक्ति का आदेश मिलने पर सबसे पहले प्रकाश ने उनके ही चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया था। उसके बाद ही उसने जिलाधीश के रूप में अपना कार्यभार संभाला था।

यह सब याद करते हुए, मास्टरजी अपने वर्तमान में लौट आये। अब वे रिटायर हो चुके थे, इसलिए उन्हें स्कूल नहीं जाना था। थोड़ा-बहुत जो भी वेतन था, अब वह भी नहीं मिलेगा। अब केवल पेंशन मिलेगी, जो वेतन की आधी होगी। कैसे काम चलेगा अब? जब स्कूल नहीं जाना तो फिर करना भी क्या शेष रहा? प्रातःकाल जल्दी ही दैनिक कार्यों से निवृत्त होना भी तो स्कूल जाने की तैयारी का ही एक अंग था। अब उस सबकी जल्दी क्या है? सोच वे अनमने से चारपाई पर ही लेटे रहे। थोड़ी देर बाद पत्नी कमरे में आई तो आश्र्चर्यचकित होते हुए बोली, “”अरे! आप अभी तक लेटे हुए हैं? क्या दैनिक कार्यों से निवृत्त नहीं होना?”

“”अब लेटे रहने के अलावा करना भी क्या है देवेन्द्र की मॉं? स्कूल तो जाना नहीं है, फिर जल्दी किस बात की?” मास्टर जी का हताश स्वर सुनकर पत्नी निकट आई और उन्हें उत्साहित करती हुई बोली, “”ऐसा क्यों कहते हो जी? नौकरी ही तो सब कुछ नहीं होती। घर भी तो है। पहले स्कूल के कामों के रहते आपने कभी घर की चिंता की ही नहीं। अब घर की तरफ ध्यान दीजिए। बेटी पुनीता उन्नीस वर्ष की हो चुकी है। उसके हाथ पीले करने हैं। देवेंन्द्र की नौकरी का भी कहीं कुछ इंतजाम करना है।”

पत्नी की बात सुनकर मास्टर जी का ध्यान अपने परिवार की ओर गया। सचमुच परिवार की ओर वे कभी विशेष ध्यान नहीं दे पाये। दो ही बच्चे हैं उनके। दोनों ही सुशील और होनहार। देवेन्द्र बड़ा, प्रथम श्रेणी से बीए उत्तीर्ण कर चुका है, लेकिन अभी तक कहीं कोई धंधा या नौकरी का जुगाड़ नहीं बैठा। पुनीता बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ रही है। अब उसका विवाह करना है, यह विचार उनके दिमाग में पहली बार आया। फिर तो इस समस्या से जुड़े अनेक प्रश्र्न्न उनके मन में कौंधने लगे।

स्कूल में ही अध्यापक के रूप में नौकरी कर रहे मास्टर जी के अन्य साथी ट्यूशनों के द्वारा काफी धन एकत्रित कर चुके। लेकिन आदर्शों की दुनिया में खोये हुए मास्टर जी ने ट्यूशन करना कभी उचित समझा ही नहीं। उनके घर आकर पढ़ने वाले छात्रों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है, लेकिन उन्होंने कभी किसी से कोई शुल्क नहीं लिया। उन्हें याद है, एक बार शहर के एक बड़े उद्योगपति ने उनसे अपने घर आकर लड़के को पढ़ाने के लिए बहुत आग्रह किया था और उसके लिए मनचाहा शुल्क देने के लिए भी वह तैयार था। लेकिन मास्टर जी इस प्रकार से अपने परोक्ष विाय के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने साफ करते हुए कहा, “”आपका लड़का अगर चाहे तो कभी भी पढ़ने के लिए मेरे घर आ सकता है। इसके बदले में मैं कोई भी शुल्क नहीं लूँगा।” ट्यूशन को वे सरस्वती का अपमान मानते और उन गरीब बच्चों के साथ अन्याय जो गरीबी के कारण ट्यूशन पढ़ने में असमर्थ रहते हैं।

मास्टर जी को विचार-सागर में डूबे हुए देखकर पत्नी ने फिर कहा, “”क्या सोचने लगे? जल्दी से उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होइए। उसके बाद बैठकर आराम से सभी बातों पर सोच-विचार कर लेना।” मास्टर जी अनमने से चुपचाप खड़े हुए और दैनिक कार्यों में लग गये।

मास्टर जी खाना खाने के लिए बैठे तो पत्नी ने देवेन्द्र की नौकरी की बात चलाई। “”यहॉं का कलेक्टर तो आपका छात्र चुका है। बड़ी इज्जत करता है। उस दिन घर पर भी तो आया था।”

“”हॉं, बड़ा ईमानदार है। प्रकाश है उसका नाम। सब उसकी तारीफ करते हैं ” – मास्टर जी ने सहज भाव से उत्तर दिया।

पत्नी कुछ देर रुकी। वह मास्टर जी के स्वभाव से बहुत अच्छी तरह परिचित थी। मास्टर जी सिफारिश करने के सख्त विरुद्घ थे। सो, झिझकते हुए बोली, “”तब उसी से देवेन्द्र की नौकरी के लिए बातचीत क्यों नहीं कर लेते? उसके यहां दफ्तर में जगह भी तो खाली है।”

“”उसके लिए देवेन्द्र ने अपना आवेदन पत्र दे दिया है। इसमें बातचीत की क्या जरूरत है? योग्यता के ाम में आयेगा तो अपने आप नियुक्ति हो जाएगी।” मास्टर जी ने सपाट लहजे में उत्तर दिया।

“”दुनिया में यदि इतनी ईमानदारी होती तो दिक्कत ही क्या आती? नियुक्तियों में कितनी धांधली चलती है, क्या यह आप नहीं जानते?” पत्नी ने समझाने वाले लहजे में अपनी एक शंका मास्टर जी के सामने उछाल दी।

मास्टर जी को अपने पढ़ाए हुए छात्रों पर पूरा विश्र्वास था। सो दृढ़ता से बोले, “”प्रकाश की देखरेख में कोई धांधली नहीं होगी, निश्र्चिंत रहो। आखिर वह मेरा छात्र है।”

पत्नी ने मास्टर जी के आत्मविश्र्वास को आहत नहीं होने दिया और बोली, “”आपकी बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन सभी कार्य कलेक्टर स्वयं ही तो नहीं करता। उसके नीचे के लोग तो धांधली कर सकते हैं। आप देवेन्द्र की सिफारिश मत कीजिए, किन्तु कलेक्टर को इस बात के लिए सावधान कर दीजिए कि नियुक्तियों के मामले में वह कोई अन्याय न होने दें।” थोड़ी देर रुककर समझाने वाले अंदाज में पत्नी ने मास्टर जी से कहा, “”अब हमारा सब देवेन्द्र पर ही तो निर्भर करता है। केवल पेंशन से काम कैसे चलेगा? पुनीता के हाथ पीले कैसे होंगे? यदि किसी धांधली की वजह से देवेन्द्र को नौकरी नहीं मिली तो क्या आपको बुरा नहीं लगेगा? फिर एक बार नियुक्ति का आदेश जारी होने के बाद हम कुछ नहीं कर सकेंगे? सो, प्रकाश से एक बार मिल लेने में बुराई ही क्या है? और कुछ न सही, तो अपने शिष्य के रंग-ढंग देखने के उद्देश्य से जा सकते हैं।” मास्टर जी को तर्क समझ में आ गया। अपने शिष्य से मिलने में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आयी, सो खाना खाकर वे बाहर निकल पड़े।

कलेक्टर के कक्ष के समक्ष जाकर उन्होंने नियमानुसार अपने नाम की पर्ची अंदर भिजवा दी और अगले ही क्षण मास्टर जी ने प्रकाश को लपक कर आते हुए देखा। उसने मास्टर जी के वहीं चरण-स्पर्श किये और बड़े सम्मान के साथ उन्हें अंदर ले गया।

– योगेश चंद्र शर्मा

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