मास्टरजी

मास्टर जी को सामने की कुर्सी पर बैठाकर स्वयं भी उनके निकट ही बैठ गया। कलेक्टर की कुर्सी खाली रही। मास्टर जी की तरफ देखकर बोला, “”आज आपने बड़ी कृपा की, जो यहां तक आने का कष्ट किया।”

मास्टर जी किसी तरह अपने भावावेश को नियंत्रित करते हुए बोले, “”कल ही मैं सर्विस से रिटायर हो चुका हूँ प्रकाश, सो आज सोचा, तुमसे ही मिल आऊँ।”

प्रकाश बोला, “”बड़ी कृपा की गुरुदेव, आपके रिटायरमेंट का समाचार मुझे आज ही सुबह मिला। कल पता चल जाता तो मैं भी आपके विदाई समारोह में उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त कर लेता। सो आज संध्या को आपके निवास-स्थान पर आने की सोच रहा था। आऊँगा भी। लेकिन इससे पहले ही आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होगा, यह आशा नहीं थी।” कुछ देर की खामोशी के बाद प्रकाश ने फिर कहा, “”मेरे योग्य सेवा बतलाइए गुरुदेव।”

मास्टर जी समझ नहीं पा रहे थे कि अपनी बात कैसे और किस प्रकार कहें। इसी बीच चपरासी ने चाय और कुछ बिस्कुट लाकर रख दिया। प्रकाश के अनुरोध पर जलपान किया और सकुचाते हुए बोले, “”सुना है, तुम्हारे यहां नौकरी के लिए कुछ स्थान खाली हैं।”

“”हां गुरुदेव” प्रकाश तत्काल बोला, “”फिलहाल पांच स्थान हैं। आवेदन-पत्र भी मंगवा लिये हैं। दफ्तर में योग्यता के आधार पर उनकी वरीयता सूची तैयार की जा रही है। आप आदेश दीजिए, किसके लिए क्या करना है?” “”नहीं, नहीं, नियमों के विरुद्घ कुछ नहीं करना है।” मास्टर जी ने तत्काल अपने को संभालते हुए संयत स्वर में कहा, “”केवल यही ध्यान रखना की अधीनस्थ कर्मचारी कहीं कोई धांधली न कर दें। कोई उपयुक्त पात्र रह जाये और अनुपयुक्त को नौकरी मिल जाये, ऐसा न हो।”

“”ऐसा नहीं हो सकता गुरुदेव। आपकी शिक्षा मैं भूला नहीं हूं और न ही कभी भूलूंगा। मेरे अधीनस्थ कर्मचारी भी मेरी इस सिद्घांतप्रियता को जानते हैं।” कुछ सोचते हुए उसने चपरासी से वरीयता सूची लाने के लिए कहा।

कुछ ही देर में वह प्रकाश के सामने थी। प्रकाश ने सरसरी तौर से उस पर नजर डालते हुए उसे मास्टर जी के सामने रख दिया और बोला, “”यह देखिए गुरुदेव, वरीयता सूची तैयार है। इसमें सभी उम्मीदवारों की योग्यता और उसके अनुसार उनका वरीयता ामांक लिखा हुआ है।”

मास्टर जी ने सूची देखी। सब कुछ ठीक था। सूची में केवल उम्मीदवारों का नाम था। न तो उनके पिता का नाम था और न ही पता। देवेंद्र का नाम उन्होंने ढूंढा। वह छठे नंबर पर था और जैसा कि प्रकाश ने कुछ देर पहले बतलाया था, स्थान केवल पांच थे। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि देवेंद्र की नियुक्ति संभव नहीं है। इसलिए प्रकाश से उसकी चर्चा करना उन्हें रुचिकर नहीं लगा। उन्होंने वरीयता सूची प्रकाश को लौटाते हुए कहा, “”इसमें तो सब कुछ ठीक है। यदि इसी तरह सब जगह काम हो तो कहीं किसी को कभी असंतोष होगा ही नहीं।”

इसके बाद कुछ देर इधर-उधर की बातें करके घर लौट आये और पत्नी को स्थिति से अवगत करा दिया। सुनकर पत्नी चुप रही। किन्तु उनके मन में यह बात अवश्य उठी कि यदि ये प्रकाश से देवेन्द्र की चर्चा कर देते तो जिलाधीश के लिए छठे नाम को पांचवें पर रख देना कोई मुश्किल काम नहीं था। लेकिन वह अपने पति का स्वभाव जानती थी, सो चुप रह गई।

सायंकाल को मास्टर जी के साधारण से घर के सामने प्रकाश की कार रुकी। प्रकाश ने सुबह घर आने की चर्चा अवश्य की थी, किन्तु मास्टर जी का विचार था कि अब, जब वे स्वयं उससे मिल लिये हैं तो शायद ही वह आयेगा।

प्रकाश प्रफुल्लित था। पिछली बार आया था तो केवल मास्टर जी से मिलकर चला गया था। परिवार के अन्य सदस्यों से मिलने का संयोग उस समय नहीं बना था। अब प्रकाश की कार देखकर परिवार के चारों ही सदस्य दरवाजे तक आ गये। प्रकाश ने मास्टर जी और उनकी पत्नी के चरण छुए। देवेंद्र को देखकर बोला, “”शायद तुम्हारा ही नाम देवेंद्र है।”

देवेंद्र ने नम्रता से हाथ जोड़ते हुए हामी भरी तो प्रकाश ने कहा, “”नौकरी के लिए बधाई देवेंद्र।”

“”नौकरी? यह कैसे हो सकता है प्रकाश? इसका नाम तो छठे क्रमांक पर था और रिक्त-स्थान तुम्हारे यहां केवल पांच थे। कहीं तुमने मेरी वजह से कोई पक्षपात तो नहीं किया?”

“”नहीं गुरुजी, आपका शिष्य कोई गलत काम कर ही नहीं सकता। मुझे तो इसका नाम भी पता नहीं था। आपने ऐसी कोई चर्चा की भी नहीं और जानता हूं, आप ऐसी चर्चा करते भी नहीं। लेकिन संयोग कुछ ऐसा रहा कि मेरे पास आपके लौटने के कुछ ही देर बाद सरकार से एक और स्थान की स्वीकृति आ गयी, जिसके लिए पत्र-व्यवहार पहले से ही चल रहा था। सो, मैंने वरीयता के आधार पर प्रथम छः व्यक्तियों को नियुक्ति-पत्र जारी करने का आदेश दे दिया। जब वे पत्र मेरे पास हस्ताक्षर के लिए आये, तभी उम्मीदवारों के पिता के नाम और घरों के पते पर मेरी नजर पड़ी और मुझे इस बात का पता चला कि छठा उम्मीदवार देवेंद्र, आपका ही पुत्र है। सो निश्र्चिंत रहिए, कहीं किसी प्रकार की कोई धांधली न तो हुई है और न ही हो सकती थी, चाहे वह मेरा अपना बेटा या भाई ही क्यों न होता।” मास्टर जी ने प्रसन्नता और भावावेश में भरकर प्रकाश को गले से लगा लिया।

– योगेश चंद्र शर्मा

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