मुक्ति का मार्ग

नाम का रहस्य बड़ा सूक्ष्म और गहरा होता है। जब तक हम किसी आध्यात्मिक सद्गुरु के पास नहीं जाते, जिन्होंने अंतर के मंडलों में परवा़ज की हो और हमें भी शरीर के नौ दरवाजों को बंद करने का सबक सिखा सकते हों, हम स्वयं नाम की शक्ति के संपर्क में नहीं आ सकते। जिस प्रकार भूखे आदमी को भोजन और पानी चाहिए, उसी तरह नाम से जुड़ने से उसके अमृत के द्वारा आत्मा की भूख और प्यार मिट जाती है।

नाम केवल अंतर की आँख से ही देखा जा सकता है। जब हमारी सुरत की धारा शरीर के छः चाों को पार कर अंतर्मुख के द्वारा दो-भ्रूमध्य एकाग्र होती है, तो हमें नाम का अनुभव होता है।

जब हम दो-भ्रूमध्य के तीसरे तिल पर प्रकाश को देखते हैं तब हमें अष्टदल कमल के दर्शन होते हैं। अष्टदल कमल के प्रकाश में शब्द गूँज रहा होता है। उसे सुनकर मन नियंत्रण में आता है। मन को काबू करने का और कोई मार्ग नहीं है। रीति-रिवाजों का पालन, शास्त्रों का पठन-पाठन, उपवास, मूर्ति-पूजा, धर्मस्थानों की तीर्थ-यात्रा से मन वश में नहीं आता। मन को वश में करने का केवल एक ही उपाय है और वह है नाम। हिन्दू, मुसलमान, सिख अथवा ईसाई सबने ही इस युक्ति को आधार मानकर मन को वश में किया है। यह एक सहज विद्या है, नाम प्रत्येक व्यक्ति के अंतर में है। जब हम छः चाों को पार कर दो-भ्रूमध्य में पहुँचते हैं तो हमें ज्योति नजर आ जाती है तब मन वश में आ जाता है और आत्मा अपनी मुक्ति के लिए परवा़ज करने लगती है।

स्वामी जी महाराज फरमाते हैं कि यदि हम सच्चे नाम से संपर्क करना चाहते हैं, हमें तीसरे तिल अथवा शिव नेत्र पर ध्यान एकत्र करना होगा और सद्गुरु द्वारा दिये गये मंत्र का सिमरन करना होगा। प्रारंभ में अंतर में टिक पाना कठिन है, क्योंकि अनंत जन्मों से मन बाहर भटक रहा है, इसके लिये महा-धैर्य और लगातार प्रयत्न करने की आवश्यकता है।

संत-सद्गुरु कहते हैं कि आध्यात्मिक पथ पर सफलता प्राप्त करने के लिये दो वस्तुओं की आवश्यकता होती है। प्रथम सच्ची लगन और उसकी प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्न। इनमें से एक वस्तु का अभाव भी हमें सफल नहीं बना सकता। 80 प्रतिशत लोग जो मेरे पास आते हैं, यह शिकायत करते हैं कि मन अंतर में नहीं ठहरता और बाहर भाग जाता है। उनकी इच्छा वास्तव में सही है, किन्तु वे प्रयत्न नहीं करते। मैं उन्हें बार-बार समझाता हूँ कि केवल इच्छा होने से और लगातार प्रयत्न न होने से वे कहीं के नहीं रहेंगे। अध्यात्म कहीं मोल नहीं मिलता। उसे हम सच्ची इच्छा और लगातार प्रयत्न के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। प्रयत्न करने पर लोहे की छड़ भी मोम की तरह जम जाती है। यदि हम ध्यान के अभ्यास में सफल बनना चाहते हैं तब हमारे लिये यह जरूरी है कि हम पूरी तलब से लगातार प्रयत्न करते जायें।

इस पिंड के मंडल में हमारी आत्मा मन के दवाब में है। हमारा मन हमारी इंद्रियों के प्रभाव में दौड़-भाग कर रहा है। हमारी आँखें आकर्षक दृश्य देखकर खिंची चली जाती हैं। अच्छा खाना हमारी जीभ को खींच रहा है। सुन्दर आवाजें और संगीत हमारे कान को खींच रहे हैं। इस प्रकार हमारी आत्मा असहाय होकर मन तथा इंद्रियों के प्रभाव में खिंची चली जा रही है। इनसे मुक्ति पाना ही वास्तविक मुक्ति है।

आत्मा के मुक्त होने पर सब बीमारियों और बुराइयॉं दूर हो जाती हैं और आत्मा यह अनुभव करती है कि वह चेतनता के महासागर की एक बूंद है। उसे यह अनुभव हो जाता है कि वह परमात्मा की अंश है और तब वह स्रोत में जा मिलती है, जो कि जीवन का चरम लक्ष्य है। बिन्दु सिन्धु में मिल जाती है, स्वयं सिन्धु हो जाती है। आत्मा अपने सूत्र से जुड़ जाती है, जिससे कि वह युगों पहले अलग हुई थी। अंतर के पड़ाव में प्रथम आत्मा सहस्त्र-दल कमल पर पहुंचती है, जो कि हजार पत्ते वाला कमल-दल है। जहां से हमारी आत्मा त्रिकुटी में पहुँचती है, जो कि कारण मंडल का मुख्य स्थान है। त्रिकुटी से हमारी आत्मा सुन्न में जाती है और वहां से महासुन्न अथवा दशम-द्वार को पहुँच जाती है। दशम-द्वार में एक खिड़की खुलती है, जो सचखंड ले जाती है। ये मंडल हम सबमें हैं, जो एक पूर्ण सद्गुरु के संपर्क में आते हैं, उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे ही सचखंड में पहुँच जाते हैं। जो भी जीते-जी सचखंड में पहुँचा, इसी तरह से पहुँचा है। सचखंड पहुंचने का एक ही मार्ग है। ऐसा नहीं है कि एक जाति वाला किसी दूसरी तरह से पहुंचे और दूसरा किसी और तरह से। संतजन अपने मार्ग को छिपाते नहीं हैं। वे प्रकट कर देते हैं और सबको बुलाकर अपने मार्ग पर लगा लेते हैं।

हमें मौत तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा और उस मार्ग पर हम अकेले भी नहीं हैं। हमारे सद्गुरु सदा हमारे अंग-संग रहकर हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। हर आदमी को काम, ाोध, लोभ, मोह के पॉंच सांप डस रहे हैं। बिना संत की मदद के वह इनसे छुटकारा नहीं पा सकता।

 

– हुजुर बाबा सावनसिंह महाराज

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