मृगतृष्णा

इच्छाएँ मानवीय दुःखों का सबसे बड़ा कारण हैं। वैसे जरूरतें तो पूरी हो सकती हैं, परन्तु इच्छाएँ अनन्त हैं। उन पर पूर्ण विराम लगाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

नीमा की बर्बादी का कारण भी उसकी अपनी अनन्त इच्छाएं ही थीं वरना क्या नहीं था उसके पास? उच्च पद पर कार्यरत एक नेक, होनहार व ईमानदार पति। दो प्यारे-प्यारे फूल से मासूम बच्चे। रहने के लिए छोटा ही सही, परन्तु अपना मकान। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता था कि नीमा व प्रबल सुखी दाम्पत्य जीवन बसर कर रहे थे।

धीरे-धीरे नीमा को अपने पति के रुतबे का अहसास होने लगा तथा दूसरों के ठाठ-बाट देख उसके मन में भी दबी इच्छाएं सिर उठाने लगीं, तो उसने अपने शांत दाम्पत्य जीवन रूपी जल में फरमाइशों की कंकरियां फेंकनी शुरू कर दीं, जिनके पूरा न होने पर आये दिन घर में क्लेश रहने लगा। आखिरकार तंग आकर प्रबल ने अपनी नेक नीयत व ईमानदारी को ताक पर रख दिया, जिससे धीरे-धीरे घर की कायापलट होनी शुरू हो गयी। देखते ही देखते घर ऐशो-आराम की वस्तुओं से भरता चला गया। अब नीमा के पास सब कुछ था, जो वह चाहती थी। शुरू-शुरू में जब प्रबल ने अपने दिल से ईमानदारी को बाहर धकेलना शुरू किया, तो उसे बहुत तकलीफ हुई। एक अनजाना डर व आत्मग्लानि से मन कराहने लगा, परन्तु जल्दी ही वह इसका आदी हो गया और इसे अपना हक समझने लगा। हरीश्चन्द्र का जमाना तो कभी का अलविदा कह चुका, फिर वह क्यों अभावों में जीए। अपने उच्च पद का लाभ उठाकर उसने अपने लिए कनक सिंहासन तैयार कर लिया। दौलत के ढेर पर बैठ वह अपना दीन-ईमान व कर्त्तव्य भूल बैठा और हर मजबूर की बेबसी को भुनाने की चेष्टा करने लगा।

दौलत क्या मिली, नीमा को तो स्वर्ग मिल गया। कीमती साड़ियों में लिपटी व आभूषणों से लदी, जब वह किसी पार्टी में जाती तो सबके लिए एक आकर्षण का केंद्र बन जाती। खूबसूरती तो उसे विरासत में ही मिली थी, उस पर कीमती पोशाक व चमचमाते आभूषण उसके सौंदर्य को चार चांद लगा देते। लोग जब नीमा की खुलकर तारीफ करते तो प्रबल का सीना गर्व से दोगुना चौड़ा हो जाता।

नीमा अब अपने आपको खास समझने लगी थी। आम औरतों की तरह अब उसे पाई-पाई का हिसाब नहीं रखना पड़ता था। खुले दिल से खर्च करती और अपनी सहेलियों के बीच चर्चा का विषय बनी रहती।

प्रबल के मां-बाप गांव में अपने छोटे बेटे के साथ रहते थे, जो एक विद्यालय में अध्यापक था। कभी-कभार वे अपने बड़े बेटे से मिलने शहर आ जाते और कुछ दिन साथ रहकर वापस गांव चले जाते। शहर की गहमा-गहमी व शोरगुल से वे जल्दी ही ऊब जाते थे। अब वे जब भी शहर आते तो प्रबल के घर में कुछ नया पाते। मॉं बेटे की खुशहाली देख मन ही मन प्रसन्न होती और गांव जाकर उसकी योग्यता की तारीफों के पुल बांधती नहीं थकती। परन्तु पिता रामनाथ को बेटे की संपन्नता देख दाल में कुछ काला नजर आने लगा। वे उसकी तरफ से बहुत चिन्तित रहने लगे, क्योंकि प्रबल को जो वेतन मिलता था, उसके हिसाब से उसके ठाठ-बाट का ग्राफ काफी ऊँचा था, तो फिर क्या प्रबल रिश्र्वत..। सोचकर रामनाथ का दिल बैठने लगता। जब उन्होंने यह शंका अपने छोटे बेटे व अपनी पत्नी के सामने रखी तो बेटा कुछ गंभीर हो गया, परन्तु पत्नी बिफर उठी, “”आप तो जलते हैं जी, मेरे बेटे की खुशहाली देखकर। भला मेरा खून और रिश्र्वत। ना जी ना। यह बात आपके जेहन में आयी कैसे? यह सब उसकी मेहनत का फल है।” फिर भी रामनाथ को इस फल में कहीं न कहीं कड़वाहट महसूस हो रही थी। एक दिन वही हुआ, जिसका उन्हें डर था। नीमा का फोन आया था। वह बहुत घबराई हुई थी। रोते हुए कह रही थी, “”पिता जी, आप भैया जी को लेकर तुरंत यहां आ जाओ। घर पर विजिलेंस वालों का छापा पड़ा है। वे भी घर पर नहीं हैं। मैं यहां बिल्कुल अकेली हूं।”

रामनाथ तुरन्त बेटे को लेकर शहर पहुंच गये और फिर सब कुछ जैसे आया था, वैसे ही चला गया। जाते-जाते छोड़ गया, उनके दामन पर बेईमानी व रिश्र्वतखोरी का बदनुमा दाग, जिसे चाहकर भी मिटाया नहीं जा सकता। प्रबल पिछले तीन महीने से जेल की सलाखों के पीछे बैठा अपनी गलती पर पश्र्चाताप के आंसू बहा रहा है। अधिक पाने की चाह में उसने अपने हाथ की रोटी भी गंवा दी। नौकरी तो गयी ही, साथ में इज्जत की धज्जियां भी उड़ गयीं। उसके बच्चों का भविष्य क्या होगा? सोचकर वह घबरा गया और बाबू जी को तो जीते जी मार डाला। उन्हें समाज में सिर उठाकर चलने लायक नहीं छोड़ा। लालच ने उसे अंधा बना दिया था। काश, वह नीमा की बात पर ध्यान नहीं देता।

दूसरी तरफ नीमा भी सोच रही थी। सारा दोष उसी का है। वह मृगतृष्णा के पीछे भाग चली थी। उसका पति तो नेक इनसान था, लेकिन उसी ने उसे गलत रास्ते पर चलने के लिए उकसाया। अपने परिवार की बदहाली की वह स्वयं जिम्मेदार है। मिथ्या दिखावे में पड़कर उसने अपना वर्तमान व भविष्य दोनों बर्बाद कर लिये, परन्तु अब क्या हो सकता था। वक्त का पंछी तो पंख फड़फड़ाकर ऊँचे नील गगन में कभी का उड़ चुका था। प्रबल व नीमा सजल नेत्रों से उसे दूर जाते देख रहे थे। हाथ मलने के अलावा उनके पास कुछ न बचा था।

– विमल ठाकुर

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