मेहनत की कमाई

mehanath-ki-kamaiपौ फट चुकी थी। सड़क पर झाड़ू, बुहार के साथ धूल उड़ा रही थी। वह लगभग दौड़ती हुई-सी धूल के परदे को चीरती हुई  सड़क पार कर दाहिनी गली में मुड़ गई। कुछ दूर जाने के बाद उसने एक बंगले की डोरबेल बजाई। बड़ी-बड़ी आँखों वाली सेठानी ने दरवाजा खोला, क्या आज फुर्सत मिल गई तुझे?

उसने कुछ नहीं कहा। बस निगाहें नीची कर खड़ी रही।

चल जल्दी से बर्तन, कपड़े कर ले।

वह अंदर चली गयी। उसका नाम रूपा बाई था। दो दिन से उसके पति का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। इसीलिए वह काम पर नहीं आयी थी। उसका पति कुछ कमाता-धमाता नहीं था बल्कि पत्नी की कमाई को बेरहमी से शराब पीने के अपने शौक में खर्च कर डालता था। उसका बेटा मनोज दसवीं में पढ़ रहा था।

रूपा बाई बर्तन मांजने लगी। बड़ी बहू उसके हाथ में चाय का प्याला थमाते हुए कहा, फिर क्या काम आ गया था? बताकर भी नहीं गई। अचानक गायब हो गई। हम तेरी राह देखते रहे।

भाभी जी, मेरे घरवाले की तबियत अचानक बिगड़ गई। उसे दवाखाने ले गयी तो डॉक्टर ने कहा कि वह बहुत कमजोर है। ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ानी होगी। अब मैं क्या करती? मुझे छुट्टी करनी पड़ी।

अच्छा, अब कैसा है? बड़ी बहू ने पूछा।

अच्छा है भाभी जी। घर आ गया है, मगर अभी ठीक होने में आठ-दस दिन तो लग ही जाएँगे। रूपा बाई ने बताया।

खर्चा कितना हुआ?

डॉक्टर साहब की फीस और दवा सब कुछ मिलाकर छः सौ  रुपये हो गये हैं।

इतने रुपये तेरे पास उस वक्त थे?

हम जैसे गरीबों के पास उतने पैसे कहॉं होते हैं, भाभी जी। मैं जिन ठेकेदार साहब के घर काम करती हूँ न, उनके पास से पॉंच सौ रुपये उधार मांग लाई। मेरे पास करीब दो सौ रुपये थे। सो काम निकल गया।

अपने घरवाले को कुछ काम करने के लिए क्यों नहीं कहती?

क्या करूँ भाभी जी, वह तो कुछ काम नहीं करता, उल्टे मेरी कमाई में भी सेंध लगाता है। कुछ कहूं तो मेरी ही हड्डी-पसली एक कर देता है। उसके मुँह लगना पाप है।

बड़ी बहू बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी करने के लिए चली गई।

इस घर में रूपा से केवल बड़ी बहू ही आत्मीयता से बात करती थी। रूपा बाई जल्दी-जल्दी बर्तन मांज कर झाड़ू लगाने लगी। इसके बाद अभी दो दिन के कपड़े धोने बाकी थे। फिर उसे शर्मा जी के घर भी जाना था। वहॉं भी यही सब काम थे। उसे डर था कि वहॉं भी दो दिन तक गायब होने के लिए डॉंट खानी पड़ेगी।

रूपा बाई प्रतिदिन सुबह चार बजे उठती। घर की साफ-सफाई करती। बोरवेल से पानी लाती। मनोज को उठाती। वह अपनी मॉं का प्यारा बेटा था। वह भी चाहती कि बेटा पढ़-लिख जाये। वह उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थी। उसकी पढ़ाई के लिए अभी से बचत भी करने लगी थी। वास्तव में रूपा बाई केवल एक ही घर का काम करती थी। उसके बाद भवन निर्माण के काम में मजदूरी पर चली जाती। उसे स्कूल मास्टर जी ने कहा था कि मनोज यदि दसवीं कक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाता है तो उसके बाद उसे कॉलेज की पढ़ाई करवाना अच्छा होगा। साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि उसके लिए कुछ ज्यादा ही रुपयों की जरूरत होगी। तभी से वह शर्मा जी के घर पर भी काम करने लगी थी।

सेठानी के घर का काम निपटा कर वह आठ बजते-बजते शर्मा जी के घर के लिए निकल पड़ी। शर्मा जी बैंक में काम करते थे और उनकी पत्नी उमा शर्मा जी भी नौकरी पर जाती थीं। उनका लड़का राजेश दूसरी कक्षा में था। तीनों ही साढ़े नौ बजे तक घर से निकल जाते। शर्मा जी के पास स्कूटर थी। वे सबसे पहले बच्चे को, फिर उमा जी को छोड़कर अपने बैंक के लिए चल देते।

रूपा बाई इस घर में भी काम निपटाकर अपने घर चली जाती। इन घरों से जो भी मिलता, उसे मनोज को खिला कर स्कूल भेज देती। उसके बाद दोपहर के लिए भोजन बनाती। घर का काम करते-करते दस बज जाते। और फिर वह मजदूरी के लिए निकल पड़ती। वहॉं से शाम को छः बजे घर लौटती। इतना सब कुछ वह अपने बेटे के भविष्य के लिए कर रही थी।

उसने अपने बेटे की आगे की पढ़ाई के खर्च के बारे में शर्मा जी से बातचीत की तो उन्होंने उसे मदद करने का आश्र्वासन दिया था। आठ बज चुके थे। उसे साढ़े सात बजे तक शर्मा जी के घर पर पहुँचना था। मगर सेठानी के घर पर दो दिन के कपड़े धोने में समय लग गया।

वह तेजी से चलने लगी। उसे पता था कि बिना पूर्व सूचना दिये गैर-हाजिर होने का नतीजा क्या हो सकता है। दरवाजा खुला था, शर्मा जी समाचार-पत्र पढ़ते बैठे थे। उनकी श्रीमती चौके में थी।

रूपा बाई घर के भीतर भी नहीं आई कि उमा जी कहने लगी, क्या इतनी जल्दी खर्च हो गये पॉंच हजार रुपये?

रूपा बाई को उनकी बात समझ नहीं आई।

तुझसे ही पूछ रही हूँ, क्या किया है पॉंच हजार रुपयों का? दो दिन से गायब थी तो मैं समझ ही गयी कि मौज-मस्ती में होगी। बता, मेरे बैग से रुपयों का पर्स तूने ही निकाला है न? उस दिन मेरी मॉं भी कह गयी थी कि नौकरानी से सावधान रहना। उस पर पूरी तरह से भरोसा मत करना। मगर मुझे क्या पता था, मॉं के जाते ही पॉंच हजार रुपये भी गायब हो जाएँगे। सच बता दे, नहीं तो पुलिस में रिपोर्ट दूँगी। डंडे बरसेंगे तो सच अपने आप बाहर आ जाएगा।

रूपा बाई शिला बन कर खड़ी रही। बेटे की पढ़ाई के खर्च की भरपाई के लिए इस घर में काम करने के लिए राज़ी हुई थी वह, मगर इसका परिणाम ऐसा निकलेगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था।

रूपा बाई के चुप रहने से उमा जी के संदेह को और भी बल मिला।

रूपा बाई के मन में अपने भविष्य को लेकर अनेक शंकाएँ उत्पन्न होने लगीं। वह सोचने लगी कि कल तक सेठानी के घर यह समाचार फैलेगा। फिर ठेकेदार तक पहुँचेगा। दोनों जगहों पर मेरी छुट्टी कर दी जाएगी। मनोज के परीक्षाएँ करीब हैं। उसकी जरूरतों को पूरा करना है। कैसे होगा? पति एक पैसा कमाने वाला नहीं है। अब क्या होगा भगवान? इज्जत तो जाएगी ही, रोज़ी भी चली जाएगी। इस संकट से कैसे बच पाऊँगी?

तभी उमा जी के सेल फोन में घंटी बजी। उनकी माता जी का फोन था। उमा जी ने कहा, कहो मॉं, कैसी हो? क्या समाचार है? मॉं ने कहा हॉं बेटी, सब कुशल-मंगल है। असल समाचार तो यह है कि तुम्हारा पर्स मेरे बैग में आ गया है। साथ में राजेश के दो कपड़े भी रखे हुए हैं। पर्स में पॉंच हजार रुपये हैं। मैंने सुरक्षित रखे हैं। तुम परेशान मत होना।

उमा जी पर चढ़ा ाोध और संदेह से मिश्रित भूत धीरे-धीरे उतरने लगा। उनका चेहरा पीला पड़ने लगा। रूपा बाई के सामने खड़े होने का साहस उनमें नहीं था। चारों ओर खामोशी छायी थी। अंत में रूपा बाई ने मौन को तोड़ते हुए कहा, बीबी जी, ऐसी गलतफहमियॉं होती रहती हैं। गरीबों पर ही चोरी का इल्जाम आसानी से लग जाता है। उन्हीं की ओर उंगली उठती है। ठीक है, आपके रुपये कहॉं हैं, इसका खुलासा तो हो ही गया है। साथ ही मुझ पर आपको भरोसा भी नहीं है, इस बात का भी पता लग गया है। ऐसी जगह काम करना हम दोनों के लिए ठीक नहीं है। मगर एक बात याद रख लीजिए बीबी जी, आपकी लापरवाही से एक परिवार की रोटी छीन सकती थी। मैं अपने बेटे को मेहनत की कमाई से पढ़ाना चाहती हूँ, चोरी की कमाई से नहीं। अच्छा, मैं चलती हूँ। नमस्ते।

उमा शर्मा उसे अपलक देखती रह गई।

– डॉ. नरसिंह राव कल्याणी

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