रहस्य के घेरे में गोली लगा हिरन

सत्य ही कहा गया है कि हर व्यक्ति के अंदर शैतान भी छिपा है और भगवान भी। मानव कब क्या कर बैठेगा, उसे भी पता नहीं होता। अच्छा-भला धार्मिक मानव कब किसके साथ अत्याचार कर बैठेगा और पेशेवर दुष्ट कब कहां ठोकर खाकर सत्कर्म की ओर भाग पड़ेगा, कोई नहीं कह सकता।

मेरा अनुभव तो यही है कि मानव अपने पूर्वजन्मों से संचित कर्मों का भोग इस जन्म में भोगता है। इस जन्म के कर्मों का फल भी अवश्य भोगना पड़ता है और जो कुछ रह गया, वह अगले जन्म में भोगना पड़ेगा। आखिर कोई तो कारण होगा कि अच्छे-भले संत व धर्मभीरू परिवार में भी अपंग-विकलांग संतान हो जाती है, किसी संतान को लाइलाज रोग हो जाता है। अब बताइये, इसमें माता-पिता संतान के कारण कष्ट उठाते ही हैं।

आज के इस आलेख का नायक सिपाही है, उत्तर-प्रदेश पुलिस प्रहरी। आदत से मजबूर शराब-मॉंस का प्रेमी। जगह का कोई प्रतिबंध नहीं, समय का कोई प्रतिबंध नहीं, जहां मौका लगा, जब भी मौका लगा, तभी बोतल और मांस का शौक पूरा कर डाला। तो मान लीजिए, उस सिपाही का नाम धर्मवीर त्यागी है । मुजफ्फर नगर का रहने वाला है। नौकरी के कारण जोशीमठ में रहने लगा है। जोशीमठ उत्तराखंड का एक प्रमुख नगर है, जो श्रीबद्रीनाथ-केदारनाथ-हेमकुंट साहब के समीप है। चीन की सीमा भी पास ही है। साल के कुछ ही महीने यहां साधारण यात्री आते हैं, बाकी समय में शीत के कारण, बर्फ के कारण यहां आ पाना कठिन हो जाता है।

उत्तराखंड देवभूमि है। पग-पग पर फैले मंदिर व पूजा-स्थल, मुनियों-योगियों के तप-स्थल, गुफाएँ आदि इस पूरे क्षेत्र को रहस्यमय बना देते हैं। पूरा क्षेत्र आध्यात्मिक रंग में सजा रहता है। हर दिन कहीं न कहीं कोई न कोई मेला लगता है, विशेष पूजा होती है।

1996 की घटना है। उस दिन एक प्रमुख समाचार-पत्र के अधिकारी राजीव धीरज, अपने वकील के साथ एक मुकदमे के सिलसिले में जोशीमठ जा रहे थे। दोनों संस्थान की गाड़ी में बैठे थे। पहाड़ की यात्रा किसी के लिए आनंददायक होती है, तो किसी के लिए डरावनी। वकील साहब डर रहे थे। नरेन्द्र नगर की पुलिस चौकी से पुलिस का सिपाही धर्मवीर भी उस गाड़ी में आ बैठा।

बातों ही बातों में वह अपना एक अनुभव सुनाकर रोने लगा। पश्र्चाताप के आंसू इस बात का प्रमाण थे कि घटना सत्य है। घटना सुनकर नास्तिक वकील साहब और धीरज जी भी अवाक् रह गये। धीरज जी प्रारंभ से ही धर्मभीरू रहे हैं, अविश्र्वास का कोई प्रश्न ही नहीं है।

मई के माह में बद्रीनाथ व श्री हेमकुंट साहब की यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी। तीर्थ-यात्रियों का आवागमन बढ़ने के साथ ही जोशीमठ में भी चहल-पहल बढ़ गई थी। जोशीमठ से बद्रीनाथ की ओर स्थित पुलिस चौकी पर सिपाही धर्मवीर की ड्यूटी लगी थी। एक जिप्सी, कुछ सिपाही एवं थानेदार और वायरलैस सैट। आराम से गुजर हो रही थी। शाम एक सरदार जी, जो थानेदार के मित्र थे, उस पुलिस चौकी पर आ टिके।

थानेदार की यारी, अपने आप में एक नशा होती है। उसके साथ ही बोतल भी खुल गई। नशा गहरा गया। यार की यारी में थानेदार भी दरियादिल हो गया। सरदार जी के लिए अगली सुबह मीट पकाने का फतवा जारी हो गया। शिकार पर वहां भी प्रतिबंध है। वहां पाड़ा नामक एक जानवर होता है, जिसका लोग शिकार करते हैं और शौकीनों का काम चलता रहता है।

उधर, यार की यारी में थानेदार ने धर्मवीर त्यागी को आदेश दे डाला, “”अरे त्यागी, जीप ले जाना। डाइवर को भी साथ रख लेना। सरदार को भी साथ ले जाना। पाड़ा न मिले तो हिरन का शिकार कर लेना, मगर खबरदार रहना कि एक ही गोली से काम चले।”

अगले दिन, सूरज की रौशनी फैलते ही, लगभग 10 बजे के आस-पास जीप में सवार डाइवर, त्यागी सिपाही और सरदार जी उस जंगल की ओर चल पड़े। भूल गये कि यह देवभूमि है, तपभूमि है, सिद्घभूमि है। बस उन्हें तो शिकार याद रहा और बोतल याद आती रही। उस कड़कती शीत में थोड़ी-सी लगा भी रखी थी। जंगल में अंदर घुस गये। एक घंटे बाद एक हिरन नजर आया। वह शांत वातावरण में घास खा रहा था। सरदार जी ने इशारा किया तो त्यागी ने सरकारी हथियार का उपयोग कर डाला। गोली सीधे हिरन के जा लगी। गोली लगते ही वह भाग खड़ा हुआ। भागता-लोटता पीड़ा से तड़पता हिरन आंखों से ओझल हो गया।

इधर ये जीप वाले भी हिरण के पीछे लग गये, “”अरे! जायेगा कहां? गोली लगी है फिर भी भाग रहा है।”

“”अरे! अगली झाड़ी तक चलो।”

“”यार! इधर देख, खून की लकीर है।” जैसे वाक्यों से वन की शांति भंग करते ये तीन महारथी लगभग दो कि.मी. दूर निकल गये। घनघोर जंगल, भयावह वातावरण, कड़कडाती ठंड, मगर शिकार की तलाश में सारा चैन समाप्त।

जीप दूर रह गयी और ये तीनों एक पानी के कुंड के पास जा पहुँचे। शीतल जल से भरा कुंड, गजब का ठंडा पानी, किनारे तक खून के निशान मिले, फिर गायब हो गये।

तीनों यह सोच कर हैरान रह गये कि आखिर हिरन कहां गया? यहां तक आया, यह तो प्रमाणित है, मगर गया कहां? क्या कुंड में डूब गया? कुंड की ओर देखा तो कुंड के बीचोंबीच एक नग्न बदन साधु आधा जल में, आधा बाहर ध्यान-मग्न होकर साधना कर रहा था। उस भयंकर ठंड में साधु को पानी में देखकर तीनों के होश उड़ गये।

आखिर रहा न गया, तो त्यागी ने उस बाबा से पूछ ही लिया, “”ओ बाबा, क्या इधर कोई हिरन आया था?”

बाबा ने हाथ से नहीं का संकेत किया। सरदार जी फट पड़े, “”ओए, इत्थे नहीं आया तो कित्थे गया? उस दे खून के निशान तो हैंगे, तुसी कहदे हो, इत्थे आया नहीं। मजाक कर रहे हो?”

बाबा ने कहा, “”अरे दुष्टों, यह देवभूमि है। यहां शिकार करते हो! तुम्हें लाज नहीं आती? जानना चाहते हो कि हिरन कहां गया है तो लो देखो, हिरन कहां है?”

कहता हुआ बाबा उस कुंड से बाहर आ गया। उसके कूल्हे से घाव के कारण रक्त बह रहा था।

त्यागी सिपाही की चेतना वापस लौटी। धर्मभीरू संस्कार जागृत हो गये। वह लोट गया साधु बाबा के चरणों में, “”माफ कर दीजिए बाबा, माफ कर दीजिए।”

साधु बाबा ने कहा, “”यहां हम एक युग से तपस्या कर रहे हैं। जब शरीर को ऊर्जा की जरूरत होती है तो किसी भी जानवर/पक्षी का रूप धारण करके पेट भर लेते हैं। फिर वापस अपने शरीर में आ जाते हैं। आज जब मैं घास खा रहा था, तुमने गोली चला दी।”

तीनों महारथी उसकी बात सुनकर हैरान रह गये। त्यागी ने बाबा से इलाज के लिए जोशीमठ चलने का आग्रह किया। किंतु साधु बाबा कह उठे, “”अरे! परेशान मत हो। अपनी जेब से चाकू निकाल कर मेरी गोली निकाल दे।”

त्यागी ने बाबा की गोली निकाल दी। साधु बाबा ने घाव पर कुंड से कीचड़ निकाल कर लगा ली और शांत कदमों से जंगल में बढ़ गये। तीनों लोग वापस आ गये। इस घटना ने त्यागी सिपाही का जीवन-दर्शन ही बदल दिया। वह पापाचार से दूर भागने लगा।

– स्वामी बिजनौरी

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