वायरस से सावधान!

जिन लोगों के पास कम्प्यूटर है वे वायरस की महिमा से भली-भांति परिचित होंगे। यह वो शातिर चोर है जो चोरी-छिपे हमारे सिस्टम में घुस जाता है और इसे क्षति पहुँचाना शुरू कर देता है। यदि समय रहते इस पर काबू न पाया जाय तो यह शक्तिशाली होता जाता है और हमारे सिस्टम का जो डाटा स्टोर होता है उसको कतरना शुरू कर देता है। प्रोसेसिंग काफी स्लो हो जाती है, फाइलों का भविष्य खतरे में पड़ जाता है। सभी अन्य शरारती तत्वों की तरह यह हमें आतंकित करने में कामयाब हो जाता है।

इसकी इसी आतंकी खूबी के चलते शातिर दिमाग तत्व इसका इस्तेमाल करते हैं और किसी भी देश को अपनी इस हरकत से आतंकित कर डालते हैं। हमारे सिस्टम को इस अनचाही मुसीबत से बचाने की खातिर विशेषज्ञ कई तरह के सुरक्षात्मक टिप्स भी देते हैं, फिर भी लाख सावधानी बरतने के बावजूद हम कभी न कभी इसकी चपेट में आ ही जाते हैं और सिवाय हाथ मलने के कुछ खास नहीं कर पाते। इसी से निपटने के लिये अब साइबर पुलिस की कल्पना भी साकार हो गयी है लेकिन वायरस का आतंक अपनी जगह बरकरार है।

वायरस ने सिर्फ सायबर जगत में ही उथल-पुथल नहीं मचायी है बल्कि यह तो पूरी सृष्टि को ही निगलने पर आतुर है। अब प्रकृति को ही देखिये। हमारे सिस्टम की तरह उसका भी अपना स्व- विकसित सिस्टम है जिससे पहले से तयशुदा शेड्यूल के मुताबिक समय पर सूरज निकलता है, सुबह, दोपहर, शाम होती है। रात होती है, दिन होता है। गर्मी, वर्षा और जाड़ा सब इसी साफ्टवेयर की बदौलत संभव होता है। लेकिन विगत कुछ समय से इस पूर्व निर्धारित शेड्यूल में भयानक गड़बड़ी देखने को मिल रही है जैसे जनवरी, फरवरी में पारे का ऊपर चढ़ना और मई में इतनी बारिश होना कि दिल्ली के लोग घर बैठे नैनीताल का मजा ले रहे हैं। बरसात में बादलों का ही नदारद हो जाना, ये सब ऐसी गड़बड़ियां हैं जो हर समझदार आदमी को विचिलत करने वाली हैं।

मौसम विशेषज्ञ इस गड़बड़ी के लिये भी एक वायरस को दोषी ठहरा रहे हैं। यह है मानव द्वारा विकसित तरक्की का वायरस, विकास का वायरस जो प्रकृति के साथ मनमानी या छेड़खानी करने के कारण अस्तित्व में आया है वैज्ञानिक बराबर चेतावनी दे रहे हैं कि संभलो, वरना बहुत देर हो जायेगी। लेकिन यह वायरस इतना प्रभावशाली तथा आकर्षक है कि हमें प्रकृति का भावी विनाश भी दिखायी नहीं दे रहा।

इसी तरह यह जो हमारे आज का समाज है, यह भी कई तरह की असाध्य बीमारियों की चपेट में है। इसका कारण भी कई तरह के खतरनाक वायरस हैं जो सामाजिक ढांचे को अन्दर ही अन्दर कुतर कर खोखला कर रहे हैं। इनमें सबसे भयंकर है राजनीति का वायरस, जिसने गांव की सीधी-सरल जिन्दगी को भी तमाम तरह की विसंगतियों से भर दिया है। कभी वोट के नाम पर, कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर इसने जाति-धर्म के झगड़े खड़े कर दिये हैं।

गांवों में भयानक गुटबाजी ने जन्म लिया है जिसने गांव के जीवन में जहर घोल दिया है। जहॉं कभी गांव सह-अस्तित्व एवं सहकारिता जैसे तत्वों से मालामाल होते थे वहॉं अब एक-दूसरे को नीचा दिखाने में अधिकांश ऊर्जा खप रही है। कत्लेआम, मारपीट, झगड़े-टंटे, कोर्ट-कचहरी आज यह ग्राम्य जीवन का सच बन गये हैं और नेता लोग इस वायरस को पौष्टिक आहार देकर निरन्तर शक्तिशाली बना रहे हैं क्योंकि इसी में उन्हें अपना हित सुरक्षित दिखायी दे रहा है। विडम्बना यह है कि अभी तक ऐसा कोई एण्टी वायरस नहीं बना जो हमारे समाज को इसके क्रूर पंजे से बचा सके।

एक आधुनिकता का वायरस है जिसने सारी की सारी युवा पीढ़ी को मानसिक रूप से दिवालिया बना दिया है। यह पश्र्चिम से आयातित वायरस है जो अपना विकराल रूप धारण करके हमारी संस्कृति की पूरी फाइल को बदरंग कर रहा है। इसने युवाओं की सोच को व्यक्तिवादी बना दिया है। वो अपने परिवेश से पूरी तरह कट कर मानवता के ही भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। उनकी नजर में वो सब कुछ महान है जो पश्र्चिम से आया है और वो सब कुछ हेय, जो हमारी सभ्यता की देन है। पूंजीवादी व्यवस्था में हमारे आदर्शों और हमारे सिद्घान्तों के लिये कोई जगह नहीं बची है। ज्यादा से ज्यादा भोग कर लेना ही मानव जीवन का उद्देश्य बन गया है। ऐसे में सही और गलत की परवाह किसको है?

फैशन, सिनेमा और अब सूचना ाांति के विस्फोट के बाद अपने दिल और दिमाग को ऐसे वायरसों के प्रकोप से बचाना आसान नहीं रहा। अब तो कोई कितनी भी सावधानी बरते मगर देर-सवेर ऐसे वायरस उसे अपना शिकार बना ही डालते हैं। आर्थिक स्थिति अच्छी न हुई तो भ्रष्टाचार का वायरस सहज ही दिमाग में घुस जाता है। यह समस्या दूर हो गयी तो पूरी दुनिया पाने की लालसा शुरू होगी।

खास कर युवा पीढ़ी के दिमाग में बोल्डनेस और सेक्स के वायरस बहुत जल्दी अटैक करते हैं जिनकी चपेट में आकर नये-नये अपराध जन्म लेते हैं और समाज का सारा ताना-बाना ही बिखरने लगता है। अतः “उपचार से बचाव अच्छा’ की तर्ज पर इस वायरस से सुरक्षा के उपाय सोचिये अन्यथा बाद में शायद इस पर सोचने का मौका भी न मिले।

– प्रेमस्वरूप गंगवार

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