वाराणसी नाम, अर्थ और इतिहास

यौगिक संज्ञा-पद “वाराणसी’ सम्प्रति नगर का नाम है। इसका तद्भव रूप “बनारस’ जिले का नाम है। यह तत्समीकरण आधुनिक है। डॉ. सम्पूर्णानन्द के प्रयत्न से 24 मई, 1956 में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रेरणा के क्रम में यह तत्समीकरण हुआ था। पहले नगर का भी नाम “बनारस’ ही था। नगर, जनपद या राज्य के रूप में “वाराणसी’ का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से मिलता है। जावालोपनिषद में “वाराणसी’ शब्द आता है, जिससे पता चलता है कि उपनिषद काल तक स्थान-बोधक नाम के रूप में इस शब्द की पूरी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। पुराणों में “अविमुक्त क्षेत्र’, “महाश्मशान’, “मदनपुरी’, “आनन्दवन’, “अलर्कपुरी’, “मत्स्योदरी’ इत्यादि वाराणसी के अनेक पर्याय मिलते हैं। ये सारे पर्याय नगर की आध्यात्मिक विशेषताओं को सूचित करने वाले विशेषण हैं, जो शनैः शनैः संज्ञा-पद के रूप में रूढ़ होते चले गये हैं। बौद्घ-साहित्य में भी वाराणसी के अनेक नाम मिलते हैं। उदय जातक में “सकुंधन’ (सुरक्षित), सुतसोम जातक में “सुदर्शन’ (दर्शनीय), सोण्डदण्ड जातक में “ब्रह्मवर्धन’, खण्डहाल जातक में “पुष्पवती’, युवंजय जातक में “रम्भनगर’ (सुन्दर नगर), शंख जातक में “मोलिनी’ (मुकलनी) इत्यादि बनारस के नाम-पर्याय रूप में मिलते हैं। जातकों और धम्मपद अट्ठकथा में वाराणसी के लिए “कसिनगर’ और “कासिपुर’ नाम भी उल्लिखित हैं। मौर्य सम्राट अशोक के समय इस जनपद की राजधानी का नाम “पोतलि’ था। यह कहना कठिन है कि ये अलग-अलग उपनगरों के नाम हैं अथवा वाराणसी के ही भिन्न-भिन्न नाम हैं। संभव है कि लोग बनारस के सौन्दर्य तथा गुणों के आकर्षण के कारण इसे भिन्न-भिन्न आदरसूचक संज्ञाओं से अभिहित करते रहे हों। पतंजलि के महाभाष्य से यही समर्थन मिलता है। पाणिनि के अष्टाध्यायी के एक सूत्र (4.3.72) के भाष्य के एक श्र्लोक में उल्लिखित तथ्य से यह पता चलता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में व्यापारी लोग वाराणसी को “जित्वरी’ के नाम से पुकारते थे। “जित्वरी’ का अर्थ है- जयनशीला, अर्थात् जहॉं पहुँच कर पूरी जय अर्थात् व्यापार में पूरा लाभ हो।

प्रसिद्घ है कि “वाराणसी’ शब्द “वरूणा’ और “असि’ दो नदी वाचक शब्दों के योग से बना है। इस नगर की एक सीमा वरुणा नदी से और दूसरी असी (असि) नदी से बनती है। कुछ लोग असी को नाला भी मानते हैं। “वरूणा’ और “असि’ के अंतराल को “वाराणसी’ मानने वाली धारणा पर्याप्त प्राचीन है। पद्मपुराण के काशी महात्म्य (5.58) में एक उल्लेख आया है, जिसके अनुसार वाराणसी का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि दक्षिणोत्तर में “बरूना’ और पूर्व में “असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम “वाराणसी’ है।

पद्मपुराण के उल्लेख से अधिक प्राचीनतर उल्लेख जावालोपनिषद (2) में मिलता है, जहॉं जिज्ञासा और जिज्ञासा-समाधान की प्रश्र्न्नोत्तर-शैली में वाराणसी की व्याख्या की गयी है। इस व्याख्या में कहा गया है कि अविमुक्त कहॉं प्रतिष्ठित है? उत्तर है-“वरूणा’ और “नाशी’ के बीच में। “वरुणा’ और “नाशी’ क्या है? उत्तर है- सभी इन्द्रियों के दोषों का वरण करने वाली “वरुणा’ है और सभी इन्द्रियों के द्वारा किये गये पापों का नाश करती है, वह “नाशी’ है। वस्तुतः जावालोपनिषद में एक आध्यात्मिक अर्थ या मिथक के रूप में “वाराणसी’ शब्द का अभिप्राय स्पष्ट किया गया है।

वामन पुराण के अध्याय तीन के एक उल्लेख में यह मिथक है कि प्रयोग में अव्यय मिश्रित योगशायी का वास है, जिनके दक्षिण चरण से श्रेष्ठ सरित (सरितवरावरूणा) निकली है, जो सभी पापों का हरण करने वाली और शुभ है।

दूसरी “असि’ नाम से विख्यात है। ये दोनों नदियॉं लोक-पूज्य हैं। इन दोनों के बीच “योगशायी’ का क्षेत्र है। इसी कारण तीन लोक में श्रेष्ठ तीर्थ है। यह तीर्थ सभी पापों का मोचन करने वाला है। इस प्रकार का क्षेत्र न तो आकाश में है, न पृथ्वी पर और न ही पाताल में है। इस क्षेत्र में “वाराणसी’ नाम की पुण्य एवं शुभ नगरी विख्यात है।

वाराणसी के संबंध में इसी तरह के अनेक पौराणिक और लोकमिथक प्रचलित हैं। इन मिथकों की विद्वानों ने समय-समय पर व्याख्या की है और तरह-तरह के प्रश्र्न्न उठाये हैं। वाराणसी के संबंध में विश्र्लेषण करते हुए प्रसिद्घ इतिहासकार कनिंघम ने “एंशेंट जियोग्राफी’ ग्रंथ में “वरुना’ और “असि’ के बीच वाराणसी की सार्थकता मानी है। एम. जूलियन ने “लाइफ एंड पिलग्रिमेज ऑफ युवानच्वांग’ नामक ग्रंथ में कनिंघम के मत पर प्रश्र्न्न-चिह्न लगाया था। जूलियन की मान्यता थी कि “वरूना’ नदी का ही वाराणसी नाम था। उन्होंने केवल मान्यता स्थापित की, लेकिन इस स्थापना के पक्ष में तर्क और तथ्य नहीं प्रस्तुत किया। परन्तु इतना तो निश्र्चित है कि वैदिक-पौराणिक उल्लेखों में “असि’ का नदी के रूप में कहीं वर्णन नहीं मिलता है। डॉ. सरितकिशोरी श्रीवास्तव का मंतव्य है कि “असि’ संभवतः “असृत’ (अ सृ बहना शुष्क) या “अशृत’ (अप्रभावित) का घिसा हुआ रूप है। रक्त की धारा के अर्थ में “असृज’ का भी प्रयोग होता है। सम्भवतः “असि’ नाले के मटमैले पानी को लक्ष्य करके इसे “असृज’ कहा गया हो, जो धीरे-धीरे घिसकर “असि’ के रूप में रूढ़ हो गया हो। डॉ. श्रीवास्तव ने यह संभावना भी प्रकट की है कि हो सकता है कि “असि’ शब्द “आसित’ से विकसित हुआ हो। काले मटमैले पानी भरे रहने के कारण संभवतः इसे ामशः “असित’ व “असि’ कहा जाने लगा हो। कतिपय विद्वानों की यह कल्पना है कि वरूणा नदी के एक अंचल से शुरू होने वाली नगरी की गंगातटीय भंगिमा तलवार की तरह टेढ़ी और गंगाजल-सी चमकती हुई तलवार के समान ही है, अतः “असि’ संभवतः तलवारवाची शब्द है, जो वरूणा को छूते हुए बनारस के सीमान्त तक बहते हुए गंगा-प्रवाह का सूचक है।

अथर्ववेद (4.7.1) में “वरुणावती’ शब्द का उल्लेख मिलता है, जिसका संबंध आधुनिक तद्भव वरूना या वरूणा से जोड़ा जा सकता है, क्योंकि “वरुणावती’ शब्द का अर्थ वेदवेत्ताराय ढवार्टेरबूख (वैदिक शब्दकोश) ल ने नदी माना है। लुटविग (टांसलेशन ऑफ ऋग्वेद) ने इसे गंगा का पर्याय माना है। “असि’ का नदी के रूप में प्राचीनतर साहित्य में उल्लेख नहीं है, लेकिन अग्नि पुराण में “असि’ का नदी के रूप में उल्लेख मिलता है। एक स्थान पर “नासी’ रूप भी मिलता है, जो जावालोपनिषद में वर्णित “नाशी’ रूप और उसके अर्थ से मिलता-जुलता है। अग्नि पुराण (6, अध्याय 112) में एक स्थान पर वाराणसी की स्थिति बताते हुए “असि’ नदी का वर्णन मिलता है। इस उल्लेख में यह नदी दो योजन पूर्व और आधा योजन पश्र्चिम की ओर बहती हुई बताई गई है। यही “असि’ नदी वाराणसी की एक सीमा निर्धारित करती है। इस तरह “वरूना’ और “असि’ के बीच वाले भाग को “वाराणसी’ कहने का प्रचलन बहुत पुराने समय से है। मत्स्य पुराण (183.67) में “वाराणसी’ नदी का वर्णन मिलता है, जिससे “वरूणा’ और “असि’ दो नदियों का बोध नहीं होता। केवल एक स्वतंत्र नदी के रूप में “वाराणसी’ की धारणा बनती है। जहॉं गंगा से मिलती है, वह क्षेत्र मुझे प्रिय है। “वाराणसी’ क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्य पुराण (183.62) में एक और स्थान पर कहा गया है- वाराणसी नदी से गंगा नदी तक, भीमचण्डी से पर्वतेश्र्वर तक काशी का विस्तार है। वाराणसी नदी आधुनिक वरूना है, शुक्ल नदी गंगा है, भीमचण्डी आधुनिक भीमचण्डी है, जो आधुनिक पंचाोशी (पंचकोसी) के रास्ते में पड़ती है। पर्वतेश्र्वर का ठीक-ठीक पता नहीं है, पर शायद वह मंदिर राजघाट के पास कहीं रहा हो।

विभिन्न पुराणों से किसी निश्र्चित निष्कर्ष तक पहुँचने में कठिनाई है, इसलिए डॉ. मोतीचंद्र ने “वाराणसी’ शब्द में “वरूणा’ और “असि’ की संगति या संधि को काल्पनिक प्रिाया माना है। ऐसा लगता है कि अस्सी पर बसने के कारण इस नगर का नामकरण “वाराणसी’ हुआ। “वरुणा’ और “असि’ के बीच वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय हुई, जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और धीरे-धीरे यह कल्पना स्थिर हो गई। इस तथ्य से प्रायः सभी विद्वान सहमत हैं कि प्राचीन “वाराणसी’ आधुनिक राजघाट के ऊँचे मैदान पर बसी थी और इसका प्राचीन विस्तार (भग्नावशेषों के आधार पर) वरूणा के उस पार था। वरूना से अस्सी की ओर का विस्तार परवर्ती है। प्राचीन “वाराणसी’ सदैव “वरूना’ पर ही स्थित नहीं थी, गंगा तक उसका प्रसार था। कम से कम पतंजलि के समय में, अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तो वह गंगा के किनारे बसी थी, जैसा कि पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्र (2.1.16) पर पतंजलि के भाष्य से विदित है।

“वाराणसी’ के नामकरण में दूसरी संभावना भी है। “बरूना’ शब्द एक वृक्ष विशेष का द्योतक है। प्राचीन काल में नगरों का नामकरण वृक्षों के आधार पर भी हुआ करता था, जैसे “कोशंब’ से “कौशांबी’, रोहित से रोहतक – इसी प्रकार संभव है कि अथर्ववेद में प्रयुक्त वरुणावती नदी और वाराणसी नगर का नामकरण बरूना वृक्ष के आधार पर हुआ हो।

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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