विज्ञान शिक्षण में बदलाव की जरूरत

क्या स्कूलों और कॉलेजों में विज्ञान का विषय पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होती जा रही है? इसका जवाब है, नहीं। अब भी बड़ी संख्या में मेधावी छात्रों में विज्ञान के विषय में दाखिला लेने के लिए होड़ लगी रहती है। लेकिन अपना पाठ्याम पूरा करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में जरूर बड़ी तेजी से गिरावट आती जा रही है। यानी बीच राह में ही पाठ्याम अधूरा छोड़ने वाले विद्यार्थियों की तादाद बढ़ती जा रही है। इससे विज्ञान-विषय में एम.एस.सी. और पी.एच.डी. के लिए प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का टोटा पड़ता जा रहा है। यहां सवाल यह है कि क्या विज्ञान शिक्षण की मौजूदा प्रणाली वाकई में विद्यार्थियों के साथ न्याय कर रही है?

एक प्रमुख सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी की मानें तो एम.एस.सी. के विद्यार्थी भी इतने कमजोर होते हैं कि उन्हें कंपनी की जरूरत के मद्देनजर नये सिरे से प्रशिक्षण देना पड़ता है। इन विद्यार्थियों में पहले करने और किसी मुद्दे पर खुद विचार करने की क्षमता का अभाव होता है। ऐसा संभवतः इसलिए है कि भारत में अन्य तमाम विषयों की तरह विज्ञान की शिक्षा में भी जोर रटने पर ही दिया जाता है, समझने व जानने पर नहीं।

आखिर इस स्थिति को बदल कर शिक्षा और खासकर विज्ञान शिक्षा की गुणवत्ता में किसी तरह का सुधार किया जा सकता है? इसके लिए सतही नहीं, बल्कि विद्यार्थी व समाज दोनों को ध्यान में रखते हुए समग्र प्रयासों की जरूरत होगी। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि विद्यार्थियों में विज्ञान के प्रति रुचि को कैसे बरकरार रखा जाए। सबसे पहले हम मौजूदा शिक्षा प्रणाली की बात करते हैं।

भारतीय शिक्षा प्रणाली

आधुनिक भारत में शिक्षा प्रणाली की जड़ें लॉर्ड मैकॉले के दर्शन में देखी जा सकती हैं। मैकॉले ने ही 1835 में तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक को अंग्रेजी व विज्ञान की पढ़ाई को बढ़ावा देने और स्थानीय भाषाओं तथा अरबी व संस्कृत भाषाओं के अध्ययन को सहयोग न देने की सलाह दी थी। इसके पीछे एक सोच यह भी थी कि भारतीयों में यह एहसास पैदा किया जाए कि सीखने-सिखाने के पश्र्चिमी तरीके उनकी अपनी प्राचीन शिक्षा-प्रणाली से कितने श्रेष्ठ हैं। हालांकि आरोप यह लगाया जाता रहा है कि मैकॉले की शिक्षा-प्रणाली का एकमात्र मकसद अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क पैदा करना था। इसके बाद से भारतीय शिक्षा-प्रणाली में कई बदलाव किये गये हैं। वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद शिक्षा-प्रणाली को विस्तार दिया गया, लेकिन इसके बावजूद कई कमियां बनी रहीं। इस प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें विद्यार्थियों व शिक्षकों के बीच परस्पर संवाद का सर्वथा अभाव है। हमारे यहां शुरू से ही अच्छे शिक्षकों की कमी रही है। परीक्षा प्रणाली भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। इसमें वही विद्यार्थी सफल होगा, जिसमें रटने की क्षमता हो, भले ही विषय उसे समझ में आ रहा हो अथवा नहीं। फिर इस प्रणाली ने यह भावना भी पैदा कर दी कि कक्षाओं में जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसका जीवन की सच्चाइयों से कोई लेना-देना नहीं है। मुख्य मकसद केवल डिग्री हासिल करना है, ज्ञान से मतलब नहीं है। इस जंग लगी शिक्षा-प्रणाली के बावजूद कई लोग अपनी मेधा के बल पर कुछ हटकर कार्य करने में सफल रहे हैं और इस प्रकार देश को अच्छे वैज्ञानिक, समाज शास्त्री, साहित्यकार, वकील और अन्य दक्ष पेशेवर हासिल हो सके हैं।

देश की आज़ादी के बाद निजी स्कूलों की संख्या में लगातार इजाफा होता गया है, जिससे सरकारी स्कूलों के प्रति उपेक्षा बढ़ी है। इसी का नतीजा है कि शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में गिरावट आयी है।

अब देश में हर व्यक्ति शिक्षा के महत्व को समझने लगा है। इसलिए बेहतर शिक्षा की मॉंग भी बढ़ती जा रही है। शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट के कई कारण गिनाए जा सकते हैं, जैसे स्कूलों की संख्या में कमी, अच्छे व प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव, स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का न होना आदि।

हमारी शिक्षा-प्रणाली में विद्यार्थियों को उनके परिवार और माता-पिता की मदद की जरूरत होती है। ऐसी स्थिति में उन बच्चों को सबसे ज्यादा दिक्कत होती है, जो पढ़े-लिखे परिवारों से नहीं होते। गरीब व अशिक्षित परिवारों के बच्चे पिछड़ जाते हैं, क्योंकि उनके अभिभावक उनकी वैसी सहायता नहीं कर पाते हैं, जैसी शिक्षित अभिभावक अपने बच्चों की करते हैं। सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा की वकालत करने वाले देश के लिए यह एक गंभीर समस्या है, जिससे पार पाना होगा।

वैसे घटिया दर्जे की पढ़ाई का संकट केवल हमारे देश में ही नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों सहित दुनिया के कई देशों में यह एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। आठ-दस साल तक स्कूल में पढ़ने के बाद भी कई बच्चे ढंग से लिखना-पढ़ना तक नहीं सिख पाते। गणितीय कौशल का भी विकास नहीं हो पाता है।

विकसित देश आर्थिक रूप से सक्षम हैं और इसलिए वहॉं इस बात की गारंटी रहती है कि स्कूल-कॉलेज से निकलने के बाद कोई न कोई रोजगार मिल ही जाएगा। इससे वहां शैक्षणिक संस्थानों में विशेष तनाव की स्थिति नहीं रहती है। इसके विपरीत भारत के स्कूलों व कॉलेजों में निराशा का भाव हावी रहता है। नौकरी हासिल करने की अनिश्र्चितता के कारण तनाव की स्थिति बनी रहती है। इसके चलते कागजी योग्यता हासिल करना वास्तव में सीखने या समझने की बनिस्बत अधिक अहम हो जाता है। हकीकत यह है कि अच्छी तरह पढ़-लिख पाने वाले कई लोगों के लिए भी विज्ञान और विशेषकर गणित को समझना सदैव दुश्कर ही बना रहता है।

भौतिक शास्त्र शिक्षण

पिछले 20 सालों के दौरान विश्र्व भर में भौतिक शास्त्र शिक्षण में अनुसंधान ने कई बार अपनी दिशाएँ बदली हैं। ग्रैसन के अनुसार 1980 के दशक की शुरूआत में विद्यार्थियों की वैकल्पिक अवधारणाओं में दिलचस्पी ली जाती थी। 1980 के दशक के मध्य में कम्प्यूटर आधारित शिक्षा में रुचि बढ़ी। 1990 के दशक की शुरूआत में गतिविधि या खोजबीन आधारित अध्यापन किया जाने लगा। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में भौतिक शिक्षा का अनुसंधान विद्यार्थियों के संज्ञान पर केंद्रित हो गया।

आज भौतिक शास्त्र में जिस बात की कमी खलती है, वह है उचित पाठ्याम सामग्री। आखिर भौतिक शास्त्र में क्या पढ़ाया जाना चाहिए? आज कार्यस्थल पर किसी व्यक्ति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह व्यावहारिक हुनर से कितना लेस है और भावनात्मक रूप से कितना कुशाग्र है। उसमें कितना ज्ञान है, इसके कोई मायने नहीं रह गये हैं। इससे विद्यार्थियों को लगता है कि वे जो कुछ पढ़ रहे हैं, उसका वास्तविक दुनिया से कोई वास्ता नहीं है और दैनिक जीवन में कोई उपयोगिता नहीं है।

अंदरूनी एवं बाह्य दुनिया

संसार को देखने का नजरिया (विश्र्व-दृष्टि) किसी व्यक्ति के विकास का अभिन्न अंग है। बचपन में जो बोध व्यक्ति को होता है, वही कालांतर में विश्र्व-दृष्टि में बदल जाता है। इशारों, मुद्राओं और अंततः भाषा के जरिए संवाद करते हुए, उसे महसूस होता है कि दो लोगों की विश्र्व-दृष्टि में बहुत-सी समानताएँ हैं। इससे एक बाहरी दुनिया के बारे में ज्ञान होता है और उस दुनिया की कई सच्चाइयों का भी पता चलता है।

तभी यह भी अहसास होता है कि एक अंदरूनी दुनिया भी है जिसके बारे में दूसरों को बता पाना बहुत मुश्किल और कई बार तो बिल्कुल असंभव हो जाता है। उदाहरण के लिए संगीत या अन्य किसी सुंदर अनुभव से हासिल प्रसन्नता को दूसरों तक पहुँचा पाना एक कठिन कार्य होता है।

बाहरी दुनिया भी दो अलग-अलग यथार्थों से मिलकर बनती है। पहला, भौतिक या वैज्ञानिक यथार्थ जो व्यक्ति के विचारों और प्रवृत्ति से बिल्कुल स्वतंत्र होती है और दूसरा सामाजिक यथार्थ जो विचारों व धारणाओं पर बहुत अधिक निर्भर होता है। यही क्रमशः प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान है।

सामाजिक विज्ञान को बाहरी दुनिया में शामिल करें या अंदरूनी दुनिया में, यह इस बात पर निर्भर है कि वह बाहरी दुनिया प्राकृतिक है या समाज और व्यक्तियों से निर्मित है। जब हम अंदरूनी दुनिया से सामाजिक विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान की ओर बढ़ते हैं तो क्रमशः निश्र्चिंतता की ओर बढ़ते हैं। प्राकृतिक विज्ञान में सब कुछ बहुत निश्र्चित-सा है। विश्र्व-दृष्टि यथार्थ के जितने करीब होगी, मानव-जाति व दुनिया के लिए उतना ही लाभदायक रहेगा।

अलग-अलग विषय बाहरी दुनिया के बारे में अलग-अलग व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं। ये अलग-अलग प्रश्र्न्नों के जवाब देते हैं। भौतिक शास्त्र के एक अच्छे शिक्षक के लिए जरूरी नहीं है कि वह प्राकृतिक विज्ञान को छात्र की अंदरूनी दुनिया के साथ टकराव के रूप में प्रस्तुत करे। अंदरूनी दुनिया में अध्यात्म निवास करता है, जबकि बाहरी दुनिया में विज्ञान। इस प्रकार विज्ञान व अध्यात्म में कोई संघर्ष है ही नहीं। शिक्षा का मकसद किसी व्यक्ति में विश्र्व-दृष्टि का सृजन करना है और यही विश्र्व-दृष्टि आगे चलकर उसकी क्षमताओं में इजाफा करेगी। इससे समाज को अधिकतम लाभ मिल सकेगा। दरअसल, शिक्षा में मुख्य जोर सीखने वाले की ओर से दिया जाना चाहिए, न कि शिक्षक या समाज की ओर से। विद्यार्थी केंद्रित शिक्षा के पीछे मुख्य रूप से यही विचार है।

शिक्षा और कक्षा

एक अच्छी स्कूली कक्षा में एक शिक्षक चर्चा के लिए कोई विषय सुझाता है, जैसे स्थानीय स्मारकों से इतिहास कैसे सीखें। फिर विद्यार्थियों को पास स्थित किसी स्मारक पर ले जाया जाता है। यह कुतुब मीनार जैसा कोई प्रख्यात स्मारक भी हो सकता है और कोई कम प्रसिद्ध समाधि या मीनार भी हो सकती है। वहां जाकर शिक्षक एक विद्यार्थी से उस इमारत और उससे जुड़े व्यक्ति के बारे में अपना आकलन पेश करने को कहता है। वह विद्यार्थी अपने शिक्षक के मार्गदर्शन में अन्य विद्यार्थियों के साथ चर्चा करता है और इस प्रिाया में इतिहास भी सीखता है। इस माध्यम से कला, सामाजिक विज्ञान और यहां तक कि इकोलॉजी भी सीखी जा सकती है। (वैसे भारत में इस विधि से पढ़ाई बहुत ही कम स्कूलों में होती है। अधिकांश स्कूलों में तो यह होता है कि छात्र को पाठयपुस्तक में लिखा पाठ पढ़ने को कह दिया जाता है। शिक्षक उसकी व्याख्या कर देता है और तमाम छात्र उसे लिख लेते हैं। फिर वे उस लिखे हुए को रट लेते हैं और परीक्षा में वैसा ही उतार आते हैं)। लेकिन जब विज्ञान, खासकर भौतिक शास्त्र या रसायन शास्त्र के अध्यापन की बात आती है तो इसमें उक्त प्रकार के पारस्परिक संवाद की संभावना नजर नहीं आती। विज्ञान में कई परिभाषाएँ होती हैं, जिन्हें बस सूत्र की भांति पढ़ा दिया जाता है। यहां तक कि प्रायोगिक कक्षाओं में भी छात्रों को अपनी ओर से प्रयोग करने की कोई छूट नहीं मिलती। इससे ही विज्ञान की पढ़ाई बोझ बन जाती है।

परिणाम यही होता है कि विद्यार्थी तथ्यों को समझने की बजाय रटना पसंद करते हैं। भौतिक शास्त्र में कई संख्यात्मक सवाल भी होते हैं, जिनका हल कुछ निश्र्चित सूत्रों से किया जाता है। विद्यार्थी यहां भी सवालों को हल करने की तकनीक को याद कर लेते हैं। इसका एक समाधान यह हो सकता है कि विद्यार्थियों को कुछ ऐसे प्रोजेक्ट पर काम करने दिया जाए, जिसमें शिक्षक की कम से कम सहायता लेकर उन्हें खुद सोचना और सीखना पड़े। विज्ञान-शिक्षण में ऐसी तकनीकें वाकई उपयोगी हो सकती हैं, बशर्तें साल दर साल उनका नवीनीकरण किया जाए, क्योंकि हर साल एक ही प्रोजेक्ट होगा, तो विद्यार्थी स्वतंत्र चिंतन छोड़ देंगे।

कहने का मतलब यह है कि विज्ञान-शिक्षण केवल सख्त अनुशासन के माहौल में रूखा-सूखा न हो, बल्कि उसमें पूरा मानव उद्यम हो, थोड़ा-सा इतिहास और बहुत-सी मानवीयता के साथ। यह शिक्षण कुछ-कुछ सामाजिक विज्ञान के अध्यापन के समान होगा। बहुत-सी गणितीय गणनाओं को लेक्चर के दौरान बताने की बजाय उन्हें हल करने के लिए विद्यार्थियों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। यह एक प्रकार से स्व-अध्ययन के समान ही होगा, जैसा कोई शोध छात्र करता है। वर्षों पहले गुरु-शिष्य परम्परा में ऐसा ही होता था और महत्वपूर्ण बात यह है कि आज दुनिया के कई देशों में यह प्रणाली तेजी से प्रचलित हो रही है। इस पद्धति में शिक्षक को और अधिक दक्षता दिखानी होगी और प्रयास भी ज्यादा करने होंगे।

हमें एम.एस.सी. व पी.एच.डी. करने वाले विद्यार्थियों की संख्या को कम करके स्नातक कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए अधिक गहन कार्याम तैयार करना चाहिए। विशेषज्ञता वाले पाठ्याम के स्थान पर सामान्य पाठ्याम कहीं अधिक जरूरी हैं। स्नातक स्तर पर विज्ञान के पाठ्याम में विज्ञान की सभी प्रमुख शाखाओं जैसे भौतिकी, रसायन शास्त्र, जीव-विज्ञान, गणित व सांख्यिकी को शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन इस पर अमल करने से पहले बहुत अधिक अध्ययन व परीक्षण की जरूरत होगी।

2006 के नये राष्ट्रीय पाठ्याम में विद्यार्थी केंद्रित शिक्षा पर जोर दिया गया है, जो निश्र्चित रूप से सही कदम है, लेकिन अगर विज्ञान शिक्षा में इसे सफल बनाना है तो विषय विशेषज्ञता को कम करना होगा।

अमेरिका में आमतौर पर बहुत से लोग 20 साल की उम्र के बाद भौतिक शास्त्र का अध्ययन शुरू करते हैं और जल्दी ही अच्छे भौतिक शास्त्री बन जाते हैं। वहां विज्ञान-शिक्षा के प्रदर्शन में सुधार करने के उद्देश्य से कई नई पद्धतियों पर कार्य किया गया है।

निर्माणवाद

विद्यार्थी केंद्रित शिक्षा को कई बार निर्माणवाद से भी जोड़कर देखा जाता है, जिसे हाल ही में हुई चर्चाओं में शिक्षा का नया दर्शन करार दिया गया है। पियाजे व वायगोत्स्की जैसे नाम भी इस दर्शन के शुरूआती चरण से जुड़े रहे हैं। माना जाता है कि शिक्षा की प्रिाया में बच्चा अपने ही ढंग से व अपनी ही गति से ज्ञान का निर्माण करता जाता है।

1970 के दशक में ब्रिटेन में “करके सीखो’ शिक्षण-पद्धति काफी लोकप्रिय हुई थी। 1990 के दशक में यह अमेरिका में भी प्रचलन में आयी। भारत में इसे मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के कुछ स्कूलों में “होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्याम’ के नाम से शुरू किया गया। इस कार्याम में कक्षा 6-8 के विद्यार्थियों को समूहों में प्रयोग करने के लिए कहा जाता था। इसके लिए विद्यार्थियों को कम कीमत वाली प्रयोग सामग्री का एक किट भी दिया जाता था। उनसे प्रेक्षणों के जरिए भौतिकी के आर्कमिडीज के सिद्धांत और रसायन-शास्त्र व जीव-विज्ञान के नियमों को प्रतिपादित करने की अपेक्षा रखी जाती थी। जल्दी ही महसूस किया गया कि सही निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विद्यार्थियों को बाहर मार्गदर्शन भी देना होगा। यह भी महसूस हुआ कि उनमें और भी कुछ कमियां हैं। छात्रों में कल्पना-शक्ति का अभाव साफ नजर आया और साथ ही गणित व दशमलव पद्धति में भी वे कमजोर पाये गये। यहां तक कि उन्हें लिखे हुए का अनुसरण करने में भी दिक्कत आती थी, क्योंकि वे ढंग से लिख या पढ़ भी नहीं पाते थे। इस वजह से उन्हें विज्ञान सिखाने के लिए अन्य बाहरी प्रयास भी करने पड़े, जैसे पढ़ना-लिखना भी सिखाना पड़ा।

निर्माणवाद के चरम रूप में माना जाता है कि व्यक्ति को किसी भी प्रकार के कोई बाहरी सहयोग की जरूरत नहीं होती है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा संभव नहीं है। यह दर्शन शास्त्र का विषय हो सकता है, लेकिन अगर इसे शिक्षण में लागू किया जाता है तो केवल दुविधा ही बढ़ेगी। विज्ञान-शिक्षण में भी विद्यार्थी केंद्रित पद्धतियों का इस्तेमाल जरूरी है, लेकिन ऐसा पर्याप्त सोच-विचार और योजना के साथ ही किया जाना चाहिए।

– एन. पंचापकेसन

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